मैं प्रकाश की गरिमा को पहिचान सका
अन्धकार का मुझ पर यह उपकार है 
और सत्य के निकट छोड़ कर गया मुझे 
झूठ मेरे घर आया जितनी बार है 
कैसे होता मंद समीर का अनुभव 
अगर न होता मौसम झञ्झावात का 
रोज़-रोज़ आ-आ कर मन-भावन सपने 
हमें अर्थ बतला जाते हैं रात का 
पतझर में जब झर जाते हैं पात सभी 
लहराती सी आती तभी बहार है 
सोच रहा हूँ भूख न होती दुनिया में 
तो फिर इस रोटी का क्या मतलब होता 
मानव तब खेतों में गेंहू के बदले 
सचमुच क्या चाँदी बोता,
सोना बोता 
उस समाज में भी क्या ऐसा ही होता 
आज हो रहा जैसा कारोबार है 
तुम अपने सच में थोड़ा झूठ मिला कर
के 
देखो दुनिया के अन्दर कैसा लगता है 
सब अनायास मालूम तुम्हें चल जायेगा 
आदमी कहाँ किस-किस को कैसे ठगता है 
सम्बन्धों में अपनेपन का एहसास कहाँ
अपनापन बरसों से बीमार है 
:- रामचन्द्र पाण्डे श्रमिक
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