तेल और तिलहन के पंख निकल आये - नेहा वैद

पिछले साल मैंने आदरणीय वनमाली जी के घर पर एक नशिस्त में नेहा दीदी से यह गीत सुना था। कहने की ज़रूरत नहीं कि अच्छी रचनाएँ भले ही आंशिक रूप से परंतु मन-मस्तिष्क में दर्ज़ अवश्य हो जाती हैं। इस हफ़्ते अशोक अंजुम जी के मुम्बई आगमन पर हस्तीमल हस्ती जी ने नरहरि जी के निवास पर एक नशिस्त रखी। वहाँ दीदी से मैंने उस गीत को ठाले-बैठे के पाठकों के लिये भेजने का निवेदन किया................... आप को कैसा लगा यह गीत अपनी प्रतिक्रिया से ज़रूर अवगत कराएँ..............
कितने खर्चे तूने आँखों में झुठलाए हैं
कितनों को रोजाना यों ही कल पर टालेगी ।
जीवन-जोत हमेशा माँगे - तेल और बाती 
बिना तेल का दीपक,  माँ ! तू कैसे बालेगी ।। 
     मुहँ बाए सुरसा  के जैसे महंगाई 
     जीवन में कितने विलो लेकर आई
     तेल और तिलहन के पंख निकल आये 
     क्या तू कभी चाहकर इन्हें पकड़ पाई 
मुट्ठी-भर आमद, कैसे घर आज संभालेगी ।
बिना तेल का दीपक, माँ ! तू कैसे बालेगी ।।

     घर के कामों को माला-सा जपती है 
     छाँव मिली कब सदा धूप-सी तपती है 
     अपने सब दुख भूल, हमारे दुःख में तू 
    कितने अश्क बहाती और तड़पती है 
है फिर भी विश्वास, सुखों को पास बुला लेगी।
बिना तेल का दीपक, माँ ! तू कैसे बालेगी ।।

     आंसू-भरे गाल सहलाकर, छोटी  के 
     बिखरे बाल गूंथकर अपनी चोटी के 
     कितनी भी मुश्किलें पड़े लेकिन फिर भी 
     दावं बदलकर हर शतरंजी गोटी के
मुझे पता है तू फिर अपनी हार बचा लेगी । 
बिना तेल का दीपक, माँ ! तू कैसे बालेगी ।।
                   
                               नेहा वैद।

5 टिप्‍पणियां:

  1. हर कठिनाई से घर को निकाल कर तू लाई है, कौन सा कमाल हृदय में छिपाई है।

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  2. बच्चों को अपार विश्वास होता है अपनी माँ पर...तभी तो कहते हैं...सब कुछ मिल जाता है पर माँ नहीं मिलती...बहुत प्यारा गीत !!

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  3. आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 27/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

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