त्रिलोक सिंह ठकुरेला के कुण्डलिया छन्द

 


कविता जीवन सत्व हैकविता है रसधार ।

अलंकार,रस,छंद में, भाव खड़े साकार ।।

भाव खड़े साकार, कल्पना जाग्रत  होती ।

कर देते धनवान, शब्द के उत्तम  मोती । 

'ठकुरेला' कविराय, हरे तम जैसे सविता ।

मेटें सब अज्ञान, ज्ञान-सागर सी कविता ।।

 

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कठपुतली सी जिन्दगी, डोर प्रकृति के हाथ ।

जाने कैसी गति रहे, जाने किसका साथ ।।

जाने किसका साथ, थिरकना, हँसना, गाना ।

कभी गमों का दौर, अचानक सुख आ जाना ।

'ठकुरेला' कविराय, प्रेम से बाँधे सुतली ।

हिलमिल सबके संग, बिताये दिन कठपुतली ।।

 

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जीवन सबसे श्रेष्ठ है, उससे बढ़कर देश ।

जो अर्पित हो देश पर, जीवन वही विशेष ।।

जीवन वही विशेष, अमरता वह पा जाता ।

यह संसार सदैव, उसी का गौरव गाता 

'ठकुरेला' कविराय, देशहित जिनका तन-मन ।

वंदनीय वे लोग , धन्य है उनका जीवन ।।

ग़ज़ल - नहीं ऐसा नहीं लम्हे फ़क़त ग़मगीन आये हैं - देवमणि पाण्डेय

 


नहीं ऐसा नहीं लम्हे फ़क़त ग़मगीन आये हैं

मेरे हिस्से में ख़ुशियों के भी पल दो तीन आये हैं

 

बशर की ज़िन्दगी में हादिसों की धूप है माना

धनक जैसे भी कुछ सपने मगर रंगीन आये हैं

 

न जाने क्या सज़ा देगी ये दुनिया सच-बयानी की

मेरे सर पे कई इल्ज़ाम भी संगीन आये हैं

 

चलें देखें कि क्या होता है अब राह-ए-मुहब्बत में

जिन्हें है ख़ुदकुशी का शौक़ वे शौक़ीन आये हैं

 

कभी मरना है जीते जी कभी मर मर के जीना है

मेरे किरदार के हिस्से में बस ये सीन आये हैं

 

बहुत मजबूर होकर जब अना ने साथ छोड़ा था

कमाने शहर में उस दिन से मातादीन आये हैं

 

मुबारकबाद देने आ गये वे भूलकर रंजिश

मेरे घर में बनारस से नये क़ालीन आये हैं

नज़्म - मेरे पापा – अलका मिश्रा

  

वो मेरे मसीहा हैं वही मेरे ख़ुदा हैं

ये सच है मेरे पापा ज़माने से जुदा हैं

 

बचपन में मुझे बाहों के झूले में झुलाया

हर दर्द मेरा अपने कलेजे से लगाया

  

मुश्किल मेरी हर एक है पलकों से बुहारी

मैं जान हूँ पापा की मैं हूँ उनकी दुलारी

 

कितने ही बड़े ख़्वाब दिखाते थे वो मुझको

दुनिया की बुराई से बचाते थे वो मुझको

 

आज़ादी से आकाश पे उड़ना भी सिखाया

तहज़ीब की पाज़ेब से पांवों को सजाया

 

फूलों की तरह रक्खा सितारों से संवारा

काँटों पे भी चलने के हुनर से है निखारा

 

कमज़ोर पे वो ज़ुल्म कभी सह नहीं पाए

दरिया से बहे कितनों के दुःख दर्द मिटाए

 

दुनिया के सभी रहते हैं किरदार उन्हीं में

शिव उनमें समाए, बसे अवतार उन्ही में

 

सागर सी है गहराई फ़लक़ उनमें बसा है

दिल उनका मुहब्बत की सदाओं से भरा है

 

रहते हैं सफ़र में कभी रुकते ही नहीं हैं

थक कर वो कभी राह में बैठे ही नहीं हैं

 

पापा को है इस वक़्त बहुत मेरी ज़रूरत

कहते वो नहीं खुल के मगर है ये हक़ीक़त

 

मैं अपनी ज़रूरत से निकल ही नहीं पाई

पापा के लिए कुछ भी तो मैं कर नहीं पाई

 

दिल उनका किसी बात से बहला नहीं सकती

जो उन से मिला है कभी लौटा नहीं सकती


कविता - मैं लौटना चाहता हूँ - हृदयेश मयंक


दुखों को पार कर

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है सूरज

रोज़ रोज़ अल सुबह

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है चाँद

हर अगली रात नियत समय पर

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आती है याद

अक्सर बुरे दिनों की वक़्त बे वक़्त

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट कर आती है हवा भोर होते ही

तन बदन को आह्लादित करती हुई

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आते हैं मेहमान अपने घर

कुछ दिन कहीं रहकर

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है मेरा अतीत

हमेशा अपने पूरे वजूद के साथ

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आती है खुशी यदा-कदा

लाख दुखों को पार कर के भी

 

मैं लौटना चाहता हूँ

ख़ुद मेंजैसेलौट आई थी करुणा

लौटा था आत्म ज्ञान गौतम बुद्ध के पास।  

बुशरा तबस्सुम की क्षणिकाएं


ये सत्य है कि तुमसे प्रेम है

प्रेमरत जिसे निहारती हूँ रोज़ 

उस चाँद का घटना-बढ़ना भी सत्य है

कड़ुआ सच यह भी है कि

पूर्णता में चाँद की

सड़क किनारे खड़े वृक्षों में

जो चमकता है सर्वाधिक

वो एक ठूँठ है

निर्बाध चलती सड़क भी सत्य है

शेष सब झूठ है...

 

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बरसात का मौसम कभी नहीं बदलता

घिरते रहते हैं

समय के बादल

और बरसते रहते हैं पल

मैं बस यूँ ही

जीवन का आकाश तकती  हूँ

कि सरका कर बादल का कोई कोना

अचानक चमक उठे

तुम्हारी याद

 

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बड़ी नखरीली थीं कुछ चोटें

चिहुँकती रहीं

जब तक नहीं किये गए उपचार

भीतर ही भीतर बनाकर दर्द की सुरंगें

पहुँची आँखों तक

और बहने लगीं

मरहमों के लेप लगे

दी गयीं सहानुभूतियां

तब जाकर पपड़ाईं

कुछ समझदार चोटें

ओढ़ कर सहनशीलता का आवरण

पड़ी रहीं चुपचाप

देर सबेर

पपड़ा वे भी गयीं

 

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आओ लड़ें

धर्म के मुद्दे गरम हैं

अस्मिता के सवाल हैं

और भी बवाल हैं

उत्तेजित करने वाले सभी तर्क

मुस्तैद हैं

और सबसे बड़ी बात

शान्ति के कबूतर

राजनीति के दड़बों में

क़ैद हैं

 

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अबके मिलो तो

मुट्ठियों में लेकर आना

सहानुभूतियों की रेत.....

मुलाकात के मध्य से बहते समय को

इससे रोकने का करेंगे

पुख़्ता प्रबन्ध,

जब चाहो लौटना

तो ध्वंस कर देना

फिर से वो बाँध

समय के तेज़ बहाव में

बह जाएंगी सारी ग्लानियाँ ;

हम फिर से रचेंगे

नयी मुलाकात की कहानियाँ,

 

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गहरी रात ढल जाए शीघ्र

अच्छा दिन हौले चले ...

बस इतना भर

भूख में न हो विचलन

प्यास हो तो हो भरपूर आचमन...

बस इतना भर

घृणाएं घट जाएं बढ़ते बढ़ते

प्रेम में न हो अधूरापन...

बस इतना भर

समझ भर हों कविताओं के कथन

सुखद हों सभी अनिश्चित मिलन...

बस इतना भर

 

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तुम्हारी अनुपस्थितयों में बड़ा आनंद था

उदासियों के टीले पर

मैंने स्वयं के साथ बहुत समय गुज़ारा

यादों के लिए ख़ूब चटखारे

मौन की भाषा में बतियाया देर तक

प्रतीक्षाओं की पगडंडियों पर

टहलती रही

प्रत्यागमन की आस की उँगली थामे,

रात के आसन पर बैठकर

सपनों की डोरियों में गूँथते हुए

तुम्हारी कल्पनाएं

चढ़ाती रही नींदों पर ,

तुमसे की गई बातों से

कहीं अच्छे हैं

स्वयं से किए गए वार्तालाप

बस यही आश्वासन था

विपरीत परिस्थितियों में

हाँ, बहुत आनन्द था

तुम्हारी अनुपस्थितियों में

 

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