29 जून 2013

SP/2/2/7 लतिकाएँ बन बावली, चलीं बुर्ज की ओर - कल्पना रामानी

नमस्कार

तीन साल पहले सन 2010 में जब मैं ने समस्या-पूर्ति आयोजन की शुरुआत की थी तो यक़ीन जानिये काफ़ी दिनों तक मुझे प्रतिसाद की प्रतीक्षा करनी पड़ी। फिर बहुत दिनों बाद कंचन बनारसी [उमा शंकर चतुर्वेदी] जी की चौपाइयाँ आईं और आयोजन का श्री गणेश हो सका। वहाँ से आगे का सफ़र देखें तो आयोजन दर आयोजन पोस्ट दर पोस्ट ज़बर्दस्त इम्प्रूव्मेण्ट हुआ है। यह कुछ ऐसा ही है कि के. जी. / नर्सरी के आगे की कक्षाओं में / का अध्ययन। “इस ज़माने को कौन समझाये!! अब का तब से मुक़ाबला क्या है?“ वर्तमान-भूत-भविष्य सन्दर्भ की विषय-वस्तु हैं न कि प्रतिस्पर्धा की।

अपने दोहों के साथ मञ्च पर पहली बार पधार रही हैं आदरणीया कल्पना रामानी जी, और इस तरह मञ्च पर प्रस्तुति देने वाले रचनाधर्मियों की संख्या हो गयी 43। इस आयोजन में अभी कुछ और नये साथियों के जुड़ने की सम्भावना है, अगर मेरी रिक्वेस्ट उन के हृदय की गहराइयों तक पहुँच पाये तो........... आइये पहले पढ़ते हैं मिसरा-दर-मिसरा एक ब्यूटीफुल  पोर्ट्रेट बनाते हुये कल्पना जी के दोहे :-
 
आँख मिचौनी सूर्य की, देख बादलों संग
खेल रचाकर हो रही, कुदरत खुद ही दंग

शिखरों को छूने बढ़े, बादल बाँह पसार
स्वागत करने वादियाँ, कर आईं शृंगार

सुन सुखदाई सावनी, जल-बूँदों का शोर
लतिकाएँ बन बावली, चलीं बुर्ज की ओर

भीगी-भीगी शाम से, हर्षित तन-मन-रोम
इन्द्र धनुष सहसा दिखा, सजा रंग से व्योम

पहली बरखा ज्यों गिरी, मुदित हुआ संसार
जन-जन मन की तल्खियाँ, बहा ले गई धार

अमृत वर्षा से मिले, जड़ चेतन को प्राण
अंकुर फूटे भूमि से, खिले खेत, उद्यान
 
बौछारों की बाढ़ से, जल-थल हुए समान
जल स्रोतों ने झूमके, छुए नए सोपान

छेड़ी ऋतु ने रागिनी, उमड़े भाव अपार
कलम-कलम देने लगी, गीतों को आकार

चाह यही, न कहीं रहें, सूखे के अवशेष
उर्वर सालों साल हो, यह माटी, यह देश

भाषा-प्रवाह, वाक्य-विन्यास तथा भाव-प्रकटन सत्यापित कर रहे हैं कि इन दोहों पर चरण-बद्ध परिश्रम हुआ है, हालाँकि समीक्षकों को सार्थक समीक्षा अवश्य करनी चाहिये। बहुत अच्छे दोहे हैं। पहले दोहे से अन्तिम दोहे तक हम एक भरे-पूरे दृश्य का अवलोकन कर पा रहे हैं। लतिकाएँ बन बावली वाला दोहा कल्पना [imagination] का अनूठा और बड़ा ही प्यारा उदाहरण है, जिस के लिये आदरणीया कल्पना रामानी जी को दिल की गहराइयों से बधाइयाँ और सादर अभिवादन। दीदी ऋता शेखर मधु जी इस दोहे पर आप छन्द-चित्र बनाने की कृपा करें, और ध्यान रहे बूँदें, लतिकाएँ तथा बुर्ज चित्र में आने हैं, सम्भव हुआ तो अगली पोस्ट में उस चित्र को भी शामिल करेंगे।

आ. कल्पना जी, आप का प्राण- उद्यान वाला दोहा मैं ने जान बूझ कर लिया है। कुछ दिनों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मेरे सामने कुछ ऐसे उदाहरण आ रहे हैं और मेरी राय पूछी जा रही है। प्राण के साथ  उद्यान का अन्त्यनुप्रास लेने से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता, परन्तु यह सहज ग्राह्य जैसा नहीं लगता – मुझे। अन्य व्यक्ति अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ इस का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसी तरह संस्कार का पदभार सही अर्थों में 221 है न कि 2121। कुछ कवि सुविधा के अनुसार पदभार का प्रयोग कर लेते हैं, परन्तु उन रचनाधर्मियों को ऐसे प्रयोगों को नियम की तरह से पेश नहीं करना चाहिये। कलपना जी आप के दोहे को मैं ने उदाहरण के साथ अपनी राय ज़ाहिर करने के लिये इस्तेमाल किया है, कृपया अन्यथा न लें।

तो साथियो आप आनंद लीजिये इन दोहों का, अपने सुविचार भी व्यक्त कीजियेगा और मैं बढ़ता हूँ अगली पोस्ट की तरफ़।

इस आयोजन की घोषणा सम्बन्धित पोस्ट पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
आप के दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें  

21 टिप्‍पणियां:

  1. पावस पर कल्पना जी के बेहतरीन दोहे ....

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीया आपके सभी दोहे मन को मुग्ध कर गए हार्दिक बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. शानदार दोहे कहे हैं कल्पना जी ने। जिस सहजता से उनकी कल्पना ने उड़ान भरी है और जहाँ जहाँ तक गई है उससे लगता है कि उनका नाम कल्पना रामानी बिल्कुल ठीक ही है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन शानदार दोहों के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  4. मन मुग्ध कर गए सभी दोने ... मैं तो सीच रहा हूं इतना श्रृंगार, मधुर शब्द-विन्यास कितना रस देता है .. कमाल के दोहे सभी ...

    जवाब देंहटाएं
  5. कल्पना रामानी दी के दोहे बहुत अच्छे होते हैं...प्रवाह और शब्द संयोजन अद्भुत...कल्पना जी एवं नवीन जी को सादर बधाई|
    छंदचित्र...बनाने की कोशिश करती हूँ...आभार !!

    जवाब देंहटाएं
  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीया कल्पना जी के छंद मात्र विधान का प्रस्तुतिकरण नहीं होते. जिस लालित्य की बात छंद शास्त्र करता है उसका सुन्दर और सरस निर्वहन होता देख मन मुग्ध है.
    हृदयतल से बधाइयाँ इतना भावप्रवण दोहों के लिए.

    भाई नवीन जी को विधान सम्बन्धी विन्दुओं पर खरी-खरी कहने के लिए मेरा हार्दिक अभिनन्दन. आपके तथ्य स्पष्ट और सार्थक हैं. इन विन्दुओं पर मेरा भी समर्थन है.

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  8. bahut sundar dohe kalpana ji anand aagaya padhkar . hardik badhai aapko

    जवाब देंहटाएं
  9. MAI SABHI DOHON KI TAREEF KE LIYE SHABD DOOND RAHA HUN....FILHAAL MERI TARF SE AAP KI KALAM KI JAI HO ,,,,HAR DOHA EK NAYA MANJAR UBHARTA HAI...MAN KARTA HAI BAR BAR PADHANE KO

    जवाब देंहटाएं
  10. आदरणीय विद्वान बंधुओं से इतनी सुंदर और स्नेहपूर्ण प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया पाकर मन अति प्रसन्न हुआ। टिप्पणियाँ ही तो वास्तविक ऊर्जा का स्रोत बनती हैं,जो आगे और उत्साहपूर्वक लेखन के लिए प्रेरित करती हैं। आप सबका हृदय से आभार

    जवाब देंहटाएं
  11. कल्पना जी ने बहुत सुंदर दोहे लिखे है. आभार नवीन जी हम सबके साथ साझा करने के लिये.

    जवाब देंहटाएं
  12. आपने लिखा....
    हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए बुधवार 03/07/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है .
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  13. आँख मिचौनी सूर्य की, देख बादलों संग
    खेल रचाकर हो रही, कुदरत खुद ही दंग

    @ भरे कल्पना छन्द में,इंद्रधनुष –से रंग
    शब्दों का सावन करे, कुदरत को भी दंग

    शिखरों को छूने बढ़े, बादल बाँह पसार
    स्वागत करने वादियाँ, कर आईं शृंगार

    @देख-देख श्रृंगार को, छलका रस श्रृंगार
    पानी-पानी वादियाँ, बदरा आयें द्वार

    सुन सुखदाई सावनी, जल-बूँदों का शोर
    लतिकाएँ बन बावली, चलीं बुर्ज की ओर

    @ बहकी-बहकी सी लगी, लतिकाओं की चाल
    करधन हरियाली सजी,जल बूँदें गरमाल

    भीगी-भीगी शाम से, हर्षित तन-मन-रोम
    इन्द्र धनुष सहसा दिखा, सजा रंग से व्योम

    @इंद्रधनुष तन कर खड़ा, तन सकुचाये साँझ
    ढोल बजाये बादरा, घटा बजाये झाँझ

    पहली बरखा ज्यों गिरी, मुदित हुआ संसार
    जन-जन मन की तल्खियाँ, बहा ले गई धार

    @ पहली बरखा यूँ लगे, मानों पहला प्यार
    ना – ना कहते हो गया,हो जैसे इकरार

    अमृत वर्षा से मिले, जड़ चेतन को प्राण
    अंकुर फूटे भूमि से, खिले खेत, उद्यान

    @ वर्षा जीवनदायिनी, जड़ चेतन चैतन्य
    ताल तलैया भर गये, खेत-खार भी धन्य


    चाह यही, न कहीं रहें, सूखे के अवशेष
    उर्वर सालों साल हो, यह माटी, यह देश

    @ अब तो समझें छोड़ दें,कुदरत से खिलवाड़
    करें संतुलित काज सब, खूब उगायें झाड़

    जवाब देंहटाएं
  14. अरुण जी, आपके दोहे पढ़कर अपने दोहे भूल गई हूँ। कितनी सुंदरता से एक एक दोहे पर दोहा रचा है!
    आपकी लेखनी को नमन। एक बार फिर समस्त मित्रों को सहृदयता से टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  15. वाह वाह ! क्या सुन्दर दृश्य उत्पन्न हुआ है .

    जवाब देंहटाएं
  16. आदरेया आपकी यह अप्रतिम प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक की गई है। कृपया http://nirjhar-times.blogspot.in पर अवलोकन करें,आपका स्वागत है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं


  17. आदरणीया कल्पना रामानी जी को
    अच्छे दोहों के लिए बधाई !

    सही कहा नवीन जी आपने - "प्राण के साथ उद्यान का अन्त्यानुप्रास लेने से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ा"
    और सहमत हूं कि "प्रयोगों को नियम की तरह भी पेश नहीं किया जाना चाहिये"

    # (संस्कार शब्द के प्रयोग वाला दोहा यहां ध्यान नहीं आया ...शायद पहले की किसी पोस्ट का प्रसंग होगा... )

    शुभकामनाओं सहित
    सादर...
    राजेन्द्र स्वर्णकार


    जवाब देंहटाएं