22 मई 2013

जो समंदर है, उसे दरिया समझ बैठे थे हम - नवीन

मुहतरम फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ज़मीन “कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम” पर एक कोशिश

होश में थे फिर भी जाने क्या समझ बैठे थे हम । 
बादलों को नूर का चेहरा समझ बैठे थे हम ।। 

किस के सर पर ठीकरा फोड़ें अब इस भटकाव का । 
दूर की हर चीज़ को आला समझ बैठे थे हम ।। 

हाल ये होना ही था तालीम और तहज़ीब का । 
लग्ज़िशों को रक़्स का हिस्सा समझ बैठे थे हम ।। 

जिस में कुछ अच्छा दिखा उस के क़सीदे पढ़ दिये । 
एरे-गैरों को भी अल्लामा समझ बैठे थे हम ।। 

जो भी कुछ सामान है तन में समाता है ‘नवीन’ । 
जो समंदर है, उसे दरिया समझ बैठे थे हम ।। 

तालीम – शिक्षातहज़ीब – संस्कारलग्जिश – फिसलना / रपटना , रक़्स – नृत्य, क़सीदे – गुणगानअल्लामा – [बड़ा] विद्वान,

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

फाएलातुन फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन 
2122 2122 2122 212 

बहरे रमल मुसमन महजूफ

9 टिप्‍पणियां:

  1. मन में जितना रूप समाये,
    मन में तू उतना ही आये।

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  2. हाल ये होना ही था तालीम और तहज़ीब का
    लग्जिशों को रक़्स का हिस्सा समझ बैठे थे हम

    bahut shandaar

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  3. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और भी पढ़ें;
    इसलिए आज 23/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर (यशोदा अग्रवाल जी की प्रस्तुति में)
    आप भी देख लीजिए एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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  4. बहुत सुन्दर नवीन भाई !! मैं हर ऐंगल से ये गज़ल पढ रहा हूँ – शीर्षासन लगा कर पढने से ये ऐसी पढने में आ रही है --

    होश में थे फिर भी जाने क्या समझ बैठे थे हम
    बादलों को नूर का सेहरा समझ बैठे थे हम

    दूर के हर अक्स को आला समझ बैठे थे हम
    एरे-गैरों को भी अल्लामा समझ बैठे थे हम


    किस के सर पर ठीकरा फोड़ें अब इस भटकाव का
    आसमाँ के चाँद को मामा समझ बैठे थे हम

    हाल ये होना ही था तालीम और तहज़ीब का
    यूकलिप्टस् को बरम्बाबा समझ बैठे थे हम


    जिस में कुछ अच्छा दिखा उस के क़सीदे पढ़ दिये
    लग्जिशों को रक़्स का हिस्सा समझ बैठे थे हम

    हमारा आपसी आनन्द संवाद गज़लो पर चलता रहेगा –इस गज़ल पर फिर बधाई !! –मयंक

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  5. आभार मयंक भाई, बिना शीर्षासन वाली टिप्पणी शायद स्पेम का शिकार हो गयी है :)

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  6. किस के सर पर ठीकरा फोड़ें अब इस भटकाव का
    दूर के हर अक्स को आला समझ बैठे थे हम

    लाजवाब, बढ़िया

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