6 अगस्त 2016

रोज़ रह-रह के सोचता है मुझे - नवीन

रोज़ रह-रह के सोचता है मुझे।
यानि अब तक भुला रहा है मुझे॥
वो भी तो वक़्त का सताया है।
फिर भला क्यों सता रहा है मुझे॥
अब रिहाई बहुत ज़ुरूरी है।
कोई आवाज़ दे रहा है मुझे॥
ये तरावट ये लम्स1 अदभुत है।
कौन साहिल प लिख रहा है मुझे॥
दिन-ब-दिन दर्द में इज़ाफ़ा है।
चैन मिलता ही जा रहा है मुझे॥
कारोबारे-चमन उरूज प है।
ग़म गटकता ही जा रहा है मुझे॥
इश्क़ जैसा चतुर नहीं कोई।
मुफ़्त-रुज़गार दे गया है मुझे॥
दिन ख़सारों के लद चुके साहब।
अब तो हर नुक़्स में नफ़ा है मुझे॥
मेरे नक़्क़ाद2 ऐ मेरे भगवान।
जो मिला आप से मिला है मुझे॥
रात बरसाये धूप को शायद।
दिन तो तारे दिखा चुका है मुझे॥
उस की महफ़िल मकानो-घर के सिवा।
उस का बाज़ार भी पता है मुझे॥
यों ही खारा नहीं बना हूँ मैं।
तज़्रिबों ने बहुत चखा है मुझे॥
सब के अन्दर ख़ुदा का मन्दर है।
उफ़ ये कैसा मुग़ालता3 है मुझे॥
कोई अम्बर भले रहे मग़रूर।
कोई ज़र्रा तो पा चुका है मुझे॥
इक ‘नवीन’ आसमान और भी है।
इक सुराग़ और मिल गया है मुझे॥
1 स्पर्श 2 आलोचक / टीकाकार 3 ग़लत-फ़ह्मी
नवीन सी॰ चतुर्वेदी
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22


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