27 सितंबर 2012

कबीर के दोहे

तिनका कबहुँ न निंदिये, पाँव तले भलि होय ।
कबहूँ उड़ आँखन पड़े, पीर घनेरी होय ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा नामरी, कह गए दास कबीर ॥

रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥

उठा बगूला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरि खड़े जब माँगे तब देय॥

1 टिप्पणी:

  1. उट्ठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
    तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

    इस दोहे में बगुला की जगह बगूला रहे तो अर्थ निखर कर अ रहा है, भाईजी.
    उठा बगूला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास.. .

    सादर

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