6 अगस्त 2016

बह्रे-वाफ़र पर चन्द ग़ज़लें - नवीन

1
ववाले-हयात बन ही गयी हमारी हसद हमारे लिये
हमारे फ़लक ने आग उगली हमारे ख़ुद अपने जिस्म जले
एक ऐसा भी दौर गुजरा है जब हवा को फ़ज़ा कुबूल न थी
पे जिन पे हवा का बस न चला वो एक रहे जुदा न हुये
बचा तो लिया है ख़ुद को मगर ये टीस दिलों से जाती नहीं
वो जिन का निशान था न कहीं अब ऊँची उड़ान भरने लगे
बस इतनी सी जिद कि घर न लुटें बस इतनी सी फ़िक्र दिल न दुखें
कुछ ऐसी धुनों में डूब के हम लहू से दिये जलाते रहे
उमीद के साथ बढ़ते हुये ‘नवीन’ डगर तलाशनी है
हम उन की तलाश में हैं मगन जो ख़ुद से नज़र मिला न सके
2
अमृत भी मिला कलस भी मिला मगर वो अमृत-कलस न मिला
हम उस से मिले छुआ भी उसे पर उस का दरस-परस न मिला
जो कल थी कमी वो आज भी है तू कल भी न था तू अब भी नहीं
मिले तो बहुत से लोग हमें पे कोई भी हम-नफ़स न मिला
सभी ने गढ़ा, सभी ने मढ़ा, सभी ने गुना, सभी ने बुना
पे यार मेरे ये वो है मकाँ किसी को जहाँ सुजस न मिला
तू पहले तो ऐसा ऐसा रहा फिर ऐसे से वैसा वैसा हुआ
तमाम नज़ीरें समझीं मगर कहीं भी तू जस का तस न मिला
जो सच को सुने तो कहता हूँ सुन बस इस के लिये हैं साथ में हम
तुझे भी पसन्द आये हमीं हमें भी जुदा कफ़स न मिला
3
बना दे मुझे मिटा दे मुझे गिरा दे कि या उछाल मुझे
जो करना है तुझ को कर ले मगर ऐ मेरे किसन सम्हाल मुझे
जो इतना ही ख़ुद को समझे है तू तो चल मैं तुझे बताता हूँ कुछ
जो तुझ से मिला वो रीत गया न माने तो फिर खँगाल मुझे
हमारे बिरज की तुझ से लगन जो कल थी वो अब भी वैसी ही है
पे कल जो किया था तू ने सितम फिर उस ही तरह न टाल मुझे
भटकता रहा हूँ जनमोजनम मकाँ तो मिले पे घर न मिला
ब-मुश्किलतन ये ठौर मिली सो दिल से न अब निकाल मुझे
नवीन सी चतुर्वेदी

बहरे वाफ़र मुसम्मन सालिम
मुफ़ायलतुन मुफ़ायलतुन मुफ़ायलतुन मुफ़ायलतुन
12112 12112 12112 12112


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