16 जनवरी 2014

SP2/3/5 लोकेश शर्मा साहिल एवं अरुण निगम जी के छन्द

नमस्कार

पिछली पोस्ट की एक ख़ास बात यह रही कि सभी टिप्पणी-कर्ताओं ने पूरी पोस्ट नहीं पढ़ी। विश्वास न हो तो एक बार पोस्ट पढ़ कर शुरुआत की टिप्पणियों को भी पढ़ लीजिये। ख़ैर, यह सब चलता ही रहता है

दिखाता फिर रहा था ऐब सब को
सो, चकनाचूर होता जा रहा हूँ 

क़रीब ढाई-तीन साल पहले हर दिल अज़ीज़ भाई +Neeraj Goswami जी के वेबपेज पर जयपुर निवासी श्री लोकेश शर्मा जी का उपरोक्त शेर पढ़ा था। दर्पण का नाम लिये बिना ही दर्पण की बात कह दी शायर ने। यह कवि का कौशल्य कहलाता है। पढ़ कर रहा न गया सो हमने लोकेश जी को फोन [9414077820] भी लगा दिया, बातचीत हुईं और तब से गुफ़्तगू का सिलसिला शुरू हो गया। लोकेश जी को हम पहले भी इस वेबपेज पर पढ़ चुके हैं। वर्तमान आयोजन की सूचना मिलते ही महज़ चन्द ही घण्टों मैं आप ने देखिये कितने असरदार, विविधता पूर्ण और मनोरम छन्द भेजे हैं। इन तीन शब्दों का जादू अब और निखार पाने लगा है :-  

तुम तो मेरे मित्र हो, क्यूँ करते हो घात
बड़ा बतंगड़ बन गई इक छोटी सी बात
इक छोटी सी बात फ़क़त है सुनी सुनाई
तुम ने भी अनदेखी कर दी हर सच्चाई
कह साहिल मुरझाय हुये हैं रिश्ते गुम-सुम
ग़लतफ़हमियाँ जीत गईं अरु हारे हम-तुम

हम सब जो इस देश में, मञ्च-वीर हैं मित्र
कवि-सम्मेलन का किया हमने अजब चरित्र
हमने अजब चरित्र बना डाला मञ्चों का
वाचिकता को खेल बना डाला कञ्चों का
कह साहिल झल्लाय हुई है कविता बेदम
सिर्फ़ तालियों और लिफ़ाफ़ों में उलझे हम

मैं तो इस जञ्जाल से बहुत थक गया यार
ख़ुशियाँ दीखें हर तरफ़, लेकिन मन बीमार
लेकिन मन बीमार पड़ा क्यों कभी न जाना
मन का मौसम क्यूँ ख़ुशियों से रहा अजाना
कह साहिल समझाय करे बकरी ज्यों मैं-मैं
जीवन भर बस इसी तरह जीता आया मैं


'मञ्चों' के साथ 'कञ्चों' का क़ाफ़िया न सिर्फ़ बैठाना बल्कि उस के साथ पूरा-पूरा न्याय भी करना..... भाई इस के लिये आप विशेष बधाई के अधिकारी हैं। लोकेश जी ने हर कवि के दिल की बात कह दी है। वास्तव में आज कविता बेदम हुई जा रही है मगर लोग हैं कि उन्हें तो बस कॉमेडी शो की तर्ज़ पर होने वाले चुटकुला सम्मेलन ही अच्छे लग रहे हैं। बहुत ही कम लोग हैं जो अच्छी कविता सुनना चाहते हैं, और ये जो बहुत ही कम लोग हैं इन में से भी ज़ियादातर स्वयं रचनाधर्मी होते हैं। कहीं-कहीं कवि मज़बूर दिखता है तो कहीं-कहीं शठ भी। समय निर्णय लेगा इस बारे में। बहरहाल 'मैं-हम-तुम' इन तीन शब्दों की शाख़ पर लोकेश जी ने क्या ही सुंदर सुमन लगाये हैं, आनन्द आ गया। 

मित्रो तरही की तरह ही समस्या पूर्ति आयोजन भी कवियों को मश्क़ करने के लिये सबसे बढ़िया साधन है। ऐसे आयोजनों के द्वारा हम इस विपरीत समय में कविता को ज़िन्दा रखने का अल्प प्रयास तो कर ही सकते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात [यह मेरा व्यक्तिगत मत है] ऐसे आयोजनों में हमें ख़ुद मश्क़ करना चाहिये, जैसी भी कविता लिख सकें, स्वयं लिखें, हाँ मार्गदर्शन लेने में कोई बुराई नहीं है, मगर प्रयास और मशक़्क़त हम अगर ख़ुद करेंगे तो दो-तीन तरही या समस्या-पूर्ति के बाद हम कम-अज़-कम पूर्ण वाक्य / मिसरा बनाना और मिसरों / पंक्तियों को गिरह करना तो सीख ही जाएँगे। 

इस पोस्ट के दूसरे छंदानुरागी हैं भाई अरुण निगम जी। अरुण जी मञ्च के पुराने साथी हैं और वातायन तथा समस्या पूर्ति आयोजनों में निरंतर प्रस्तुत होते रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से इन की सहभागिता कम होने का कारण तब पता चला जब हमें इन की प्रकाशित हुई पुस्तक की सूचना मिली। इन की पुस्तक आप इन से फोन [9907174334] पर बात कर के मँगवा सकते हैं। आइये पढ़ते हैं आप के छन्द :-  

मैं-मैं तू करके हुआ, भौतिक सुख में लीन
अहम् भाव अरु देह की, रहा बजाता बीन
रहा बजाता बीन , नहीं  ‘मैं’ को पहचाना 
परम तत्व को  भूल ,जोड़ता रहा खजाना   
क्या  दिखलाकर दाँतकरेगा केवल हैं हैं ?
जब पूछें यमराज, कहाँ बतला  तेरा  मैं 

तुम-मैं मैं-तुम एक है , परम ब्रम्ह का अंश 
जाति- धर्म  इसका नहीं , और न कोई वंश
और न कोई वंश ,यही तो अजर - अमर है
अविनाशी  है  रूह , और  काया  नश्वर है
कर इसका अहसास,ह्रदय में रुमझुम रुमझुम
परम ब्रम्ह का अंश , एक है तुम-मैं मैं-तुम 
  
‘हम’ नन्हा-सा शब्द है,अणु जैसा ही जान
शक्ति कल्पनातीत है,‘हम’ से कौन महान
‘हम’ से कौन महान, एकता का परिचायक
‘हम’ देता सुख शांति, रहा हरदम ‘हम’ नायक 
जीना सब के साथ , नहीं  रहना तन्हा-सा
अणु जैसा ही जान,शब्द है ‘हम’ नन्हा-सा 


अविनाशी  है  रूह और  काया  नश्वर है ...................................... जीना सब के साथ नहीं  रहना तन्हा-सा.............. क्या ही सुंदर बातें कही हैं अरुण जी ने। शब्दों के शिल्पी हैं आप। साथियो आप को याद होगा पहले के आयोजनों में अरुण जी टिप्पणियाँ भी छन्द में ही देते थे। पुस्तक प्रकाशन के मद्देनज़र ज़रा से [लापता गञ्ज वाले] बिजी पाण्डेय हो गये हैं :) अब लगता है मञ्च को आप की सहभागिता फिर से मिलने लगेगी। अरुण जी कई सालों से ड्यूटी के सिलसिले में घर-परिवार से दूर रहे और अब लम्बे अन्तराल के बाद ठाकुरजी ने इन्हें वापस घर-परिवार के साथ रहने का अवसर दिया है। जीवन की अनन्य ख़ुशियों में से यह एक बहुत बड़ी ख़ुशी मानी जाती है। हम आप की ख़ुशियों की मङ्गल कामना करते हैं। 

साथियो आनन्द लीजिये दौनों साथियों के छंदों का, नवाज़िएगा अपनी अनमोल टिप्पणियों से और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर। 

नमस्कार 

7 टिप्‍पणियां:

  1. तीन घंटों में तो लोकेश जी ने कमाल कर दिया है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन शानदार छंदों के लिए।
    अरुण निगम जी ने हमेशा की तरह सुंदर छंद रचे हैं। उन्हें बहुत बहुत बधाई। अपने परिवार का साथ पाने के लिए अलग से ढेरों बधाइयाँ और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ।

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  2. साहिल जी और अरुण जी ... दोनों ने कमाल कर दिया ... लाजवाब छंदों की लाच्चेदारी देखते ही बनती है ... अरुण जी को पुस्तक प्रकाशन की बहुत बहुत बधाई ...

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  3. आ. लोकेश जी एवं आ. निगम जी को इन सारगर्भित अनुपम छंदो के प्रस्तुति हेतु ढेरों हार्दिक बधाई. आ. निगम जी को पुस्तक प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई एवं भविष्य के लिए शुभ कामनाएं सादर

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  4. सभी छन्द बेहद अच्छे हैं। कवियों को शुभकामनाएँ।

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  5. बढ़िया प्रस्तुति-
    बधाई स्वीकारें आदरणीय-

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  6. हरदिल अज़ीज़ शायर साहिल सा. तथा आ.निगम जी के सुन्दर छंदों के लिए आप महानुभवों को कोटि बधाई |सादर शुभकामनाएँ

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  7. नहीं ‘मैं’ को पहचाना ...क्या शानदार बात है ...सुन्दर छंदों के लिए बधाई....

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