दोहे - नवीन

दोहे

सर्दी में लागे सुखद, धीमी-धीमी आँच। 
मनुहारों की संहिता, हौले-हौले बाँच॥ 

काहे को संशय करे, काहे करे मलाल। 
राधे को मालूम है, सब के हैं नँदलाल॥ 

तब ही तो ब्रजभूमि ने, टाले सकल सवाल। 

मनमीतों से कब छुपा, मनमीतों का हाल॥ 

सारे ही संसार को, भेड़चाल मत बोल। 
बस नवीन उलझाव की, गाँठ पुरानी खोल॥

नित-नवीन आनन्द-मय, रस बरसे ख़ुश-रंग। 
हम सब हम-आहंग हों, तो सार्थक सत्संग॥

मति मधुबन-रंगन रँगै, ज्ञान तजै निज-रंग। 
हिय भींजै रस-वृष्टि सों, धन्य-धन्य सत्संग॥

यह नवीन घुड़दौड़ भी, जीत जायँगे क्रूर। 
गौतम भी मजबूर थे, हम भी हैं मजबूर॥

दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान। 
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान॥

हम नवीन रस-सिन्धु का, कैसे करते पान। 
सारा अमरित पी गया, इक थोथा अभिमान॥

वही पुरानी-पीर है, नहिं नवीन अवसाद। 
कुछ लोगों ने खेत को, समझ रखा है खाद॥

हर नवीन युग ने उसे, दिये नवीनायाम। 
तसवीरों को देख लो, अलग-अलग हैं राम॥

तब से अब तक सौ गुना, फैल चुका संसार। 
सभ्य-सभाओं का मगर, बढा नहीं आकार॥


नवीन सी. चतुर्वेदी 

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