दो पञ्जाबी गजलें - शिव कुमार बटालवी

मैनूँ मेरा शबाब लै बैठा 
रङ्ग गोरा गुलाब लै बैठा 

दिल दा1 डर सी किते2 न लै बैठे 
लै ही बैठा जनाब लै बैठा 

विहल [विह्ल]3 जद4 वी मिली है फर्जा तों
तेरे मुख दी किताब लै बैठा 

किन्नी6 बीती है किन्नी बाकी है 
मैनूँ एहोहिसाब लै बैठा 

`शिव ` नूँ 8 गम ते9 ही इक भरोसा सी10 
गम तो कोरा जवाब लै बैठा 

1 का , 2 कहीं 3 फुर्सत 4 जब 5 से 6 कितनी 7 यही 8 को 9 पर 10 था 

जाच1 मैनूँ  आ गयी गम खाण  दी 
हौली-हौली रो के जी परचाण2 दी 

चङ्गा होया तू पराया हो गया 
मुक3 गयी चिन्ता तैनूँअपनाण दी 

मर ते जाँ पर डर है दम्मा वालियो 
धरत [धर्त]वी विकदी है मुल शमशाण दी

ना दिओ [द्यो] मैनूँ साह5 उधारे दोस्तों 
लै के मुड़  हिम्मत नहीं परताणदी 

ना करो `शिव`दी उदासी दा इलाज 
रोण दी6  मर्जी है अज8   बइमाण दी 

1 जानना 2 बहलाना 3 तुझको 4 हिम्मत वालो यानि पैसे वालो , मैं मर तो जाऊँ लेकिन शमशान का मूल्य भी पड़ता है यानि वह भी बिकती है 5 सांस , जीवन 6  लौटाना  7 रोने की 8 आज 

शिव कुमार बटालवी  [1936-73]

आ. प्राण शर्मा जी के सौजन्य से

1 टिप्पणी:

  1. ग़ज़ल तो फार्मेट है लेकिन अगर इस पाये की गज़लें कही जाती रहीं तो वो दिन दूर नहीं जब पंजाबे या गुजराती या ब्रज भाषा के गज़ल या भोजपुरी ग़ज़ल –परम्परागत उर्दू हिन्दी हिन्दुस्तानी ग़ज़ल से ऊपर रेट की जाय !!
    क्योंकि हिन्दी साहित्य के विकास में जिन पुस्तकों का चर्चा होता है --उनमे रामचरितमांस अवधी मे है –सूरसाहर ब्रजभाषा मे है और दादू मीरा रैदास कबीर सब आंचलिक भाषाओं के ही स्रजंकार है !!! बहुत सुन्दर प्रस्तुति शैर को दाद !!

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