चलते चलते एक
दिन ,तट पर लगती नाव।
मिल जाता है सब
उसे , हो जिसके मन
चाव ।।
हो जिसके मन चाव , कोशिशें सफल करातीं ।
लगे रहो अविराम , सभी निधि दौड़ी आतीं ।
'ठकुरेला' कविराय ,आलसी
निज कर मलते ।
पा लेते गंतव्य , सुधीजन चलते चलते ।।
कामी भजे शरीर को , लोभी भजता दाम ।
पर उसका कल्याण
है , जो भज लेता राम ।।
जो भज लेता राम ,दोष निज मन के हरता ।
सुबह शाम अविराम , काम परहित के करता।
'ठकुरेला' कविराय ,बनें
सच के अनुगामी।
सच का बेड़ा पार , तरे अति लोभी , कामी ।।
नहीं समझता मंदमति , समझाओ सौ बार ।
मूरख से पाला
पड़े , चुप रहने में
सार ।।
चुप रहने में
सार ,कठिन इनको समझाना ।
जब भी जिद लें ठान , हारता सकल ज़माना ।
'ठकुरेला' कविराय , समय
का डंडा बजता ।
करो कोशिशें लाख , मंदमति नहीं समझता ।।
धन की है महिमा
अमित , सभी समेटें अंक ।
पाकर बौरायें सभी , राजा हो या रंक ।।
राजा हो या रंक , सभी इस धन पर मरते ।
धन की खातिर लोग , न जाने क्या क्या करते ।
'ठकुरेला' कविराय ,कामना
यह हर जन की ।
जीवन भर बरसात , रहे उसके घर धन की ।।
दुविधा में जीवन कटे ,पास न हों यदि दाम ।
रूपया पैसे से
जुटें , घर की चीज तमाम ।।
घर की चीज तमाम ,दाम ही सब कुछ भैया ।
मेला लगे उदास , न हों यदि पास रुपैया ।
'ठकुरेला' कविराय , दाम
से मिलती सुविधा ।
बिना दाम के
मीत ,जगत में सौ सौ
दुविधा ।।
उपयोगी हैं साथियो ,जग की चीज तमाम ।
पर यह दीगर बात है, कब, किससे
हो काम ।।
कब , किससे हो काम , जरूरत
जब पड़ जाये।
किसका क्या उपयोग , समझ में तब ही आये ।
'ठकुरेला' कविराय , जानते
ज्ञानी , योगी ।
कुछ भी नहीं
असार , जगत में सब
उपयोगी ।।
पल पल जीवन जा रहा , कुछ तो कर शुभ काम।
जाना हाथ पसार कर , साथ न चले छदाम ।।
साथ न चले छदाम , दे रहे खुद हो धोखा ।
चित्रगुप्त के पास , कर्म का लेखा जोखा ।।
'ठकुरेला' कविराय ,छोड़िये
सभी कपट , छल ।
काम करो जी नेक , जा रहा जीवन पल पल ।।
यह जीवन है बाँसुरी , खाली खाली मीत ।
श्रम से इसे
संवारिये , बजे मधुर
संगीत ।।
बजे मधुर
संगीत , ख़ुशी से सबको भर दे
।
थिरकेँ सब के पाँव , हृदय को झंकृत कर दे ।
'ठकुरेला' कविराय , महकने
लगता तन मन ।
श्रम के खिलें
प्रसून , मुस्कराता यह
जीवन ।।
--- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मो . 09460714267
कुण्डलिया छन्द
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