शायरी आज भी कंटेंट नहीं आर्ट ही है

इस बात में कोई दो राय नहीं कि सोश्यल मीडिया की इस अन्धी दौड़ में और विशेषकर बुलेट ट्रेन की स्पीड में दौड़ती रीलों वाले इस दौर में शायरी नयी चुनौतियों से जूझ रही है.

जहाँ एक ओर मिलियन बिलियन व्यू वाली रील बनाने वाले बड़ी तादाद में दिखाई पड़ते हैं वहीं धूपबत्ती जैसी महक बिखेरते शेर कहने वाले गुमनाम शायर भी नज़र आते हैं. अग्रजों की बात मानें तो स्वरुप भले ही भिन्न रहे हों परन्तु शायरी इस तरह के मरहलों से हर दौर में दो चार होती रही है.

 

कश्मीर से वास्ता रखने वाले तथा हाल में पुणे के रहिवासी नर्म लहजे के शायर विशाल बाग़ ने इस चुनौती का अपनी तरह से मुक़ाबला किया है. इन्होंने थिएटर इण्डिया की मदद से एक अनोखी पहल की है जिसका नाम है “इत्र-लफ़्ज़ लफ़्ज़ ख़ुशबू”. वैदेही संचेती जी द्वारा निर्देशित इस शो को क्षितिज कुलकर्णी जी ने बेइन्तेहा मुहब्बतों के साथ सजाया है तथा प्रेरणा जकातदार जी की होस्टिंग और निखिल आठवले जी की बाँसुरी इस शो में चार चाँद लगा देते हैं.

 
विशाल बाग़ की शायरी, और शायरी के पीछे की कहानियाँ सुनने वालों के लिए यह एक नया तजरिबा है. सीधी सादी ज़बान में ज़िंदगी में मौजूद मुहब्बत , ‘मैं’ और ‘ख़ुदा’ से रूबरू कराता यह शो कब आपको अपने आगोश में ले लेता है पता ही नहीं चलता.

मुंबई और पुणे में अब तक इत्र के अनेक शो हो चुके हैं। इन शो’ज़ में शायरी के सुनने वाले ना सिर्फ़ अच्छी तादाद में पहुँच रहे हैं बल्कि टिकट लेकर आ रहे हैं. शायरी के लिए मुशायरों से हट कर एक अलग रास्ता बन रहा है जो शायरी और इसके चाहने वालों के लिए एक नई महक के दरवाज़े खोल रहा है. “इत्र-लफ़्ज़ लफ़्ज़ ख़ुशबू” शेर कहने वालों और सुनने वालों, दोनों के लिए ये रिमाइंडर है कि शायरी अभी भी कंटेंट नहीं हुई है, ये आज भी आर्ट ही है. साहित्यम् ऐसे प्रयास करने वालों की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है और उन्हें साधुवाद देता है.

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