बह रही है इस सलीक़े से हवा
एक भी पत्ता नहीं अलसा रहा
शेर की कुर्सी बिल-आख़िर छिन गयी
पेड़ पे चढ़ना ही सब कुछ हो गया
फ़िक्र करते ही नहीं उड़ते परिन्द
चोंच से कुछ गिर गया तो गिर गया
धान की नस्लें उठा कर देख लो 
फ़स्ल ने हर बूँद को लौटा दिया
परबतों को थोड़े ही मालूम है 
कौन झरना किस नदी में जा मिला
जब दरख़्तों की जड़ें तक जल गईं
घास का मैदान क्या बचता भला
कल ही पिंजड़े से छुड़ाया था जिसे
वो कबूतर भी ज़मीं पर आ गिरा 
बहरे रमल मुसद्दस महजूफ़
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन 
2122 2122 212
 
वाह..
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