9 सितंबर 2013

3 ग़ज़लें - मयंक अवस्थी

वही  अज़ाब  वही  आसरा  भी  जीने का
वो मेरा दिल ही नहीं ज़ख्म भी है सीने का


मैं बेलिबास  ही शीशे के  घर में रहता हूँ

मुझे भी शौक है  अपनी तरह से जीने का


वो  देख  चाँद की पुरनूर  कहकशाओं  मे

तमाम  रंग  है  खुर्शीद  के  पसीने   का


मैं पुरखुलूस हूँ फागुन की दोपहर की  तरह

तेरा  मिजाज़  लगे  पूस  के  महीने  का


समंदरों  के  सफ़र  में सम्हाल कर रखना

किसी  कुयें  से जो पानी मिला है पीने का


मयंक” आँख में सैलाब उठ न पाये कभी  

कि  एक अश्क मुसाफिर है इस सफीने का

अज़ाब=पीड़ा, पुरनूर कहकशाओं = ज्योतिर्मय व्योम गंगाओं, खुर्शीद=सूर्य, पुरखुलूस=अत्मीयता से भरा  हुआ


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ. 

मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन 
1212 1122 1212 22.



भाव महफिल में दिखाता हूँ  अमीरों  की तरह

छुप के ख़ैरात  भी लेता हूँ फ़क़ीरों की तरह


दूर  के   ढोल  नज़र आयें कहीं मुझको बस

उठ के  आदाब में बजता हूँ  मजीरों  की तरह


नक्श   पानी पे  बनाता  हूँ इसी हसरत में  

कोई कह दे इन्हें  पत्थर की लकीरों की तरह


रात  दिन  बस   तिरी  यादों के  थपेड़े खाकर

क़ैद हूँ  आज  समन्दर में   जज़ीरों  की तरह


ढाई  आखर का मुझे इल्म नहीं है फिर भी 

चाहता हूँ  कि  पढ़ा जाउँ कबीरों  की  तरह


जज़ीरों==द्वीप



बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन. 

फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन
2122 1122 1122 22.



मेरे  आगे  बड़ी  मुश्किल  खड़ी  है

मेरी  शुहरत  मेरे  कद  से बड़ी  है


चले  आओ  कि  सदियाँ हो चुकी हैं

तरस खाओ  कि नर्गिस  रो पड़ी  है


हवाओं में जो  चिंगारी थी  अब तक

वो अब जंगल के दिल में जा पड़ी है


कोई  आतिशफिशाँ  है  दिल में मेरे

मेरे   होंठो  पे  कोई   फुलझड़ी  है


तेरा   जूता   सभी    सीधा  करेंगे

तेरे   जूते   में  चाँदी  जो जड़ी  है


उधर इक दर इधर इस घर की इज़्ज़त

अभी   दहलीज़  पे  लड़की  खड़ी  है


मयंक   आवारगी  की  लाज  रखना

तुम्हारी  ताक  में  मंज़िल  खड़ी  है


आतिशफिशाँ=ज्वालामुखी



बहरे हजज मुसद्दस महजूफ़. 

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन.
1222 1222 122

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