संस्कृत गजल - प्रभातं क्व यातं निशा पृच्छतीयम् - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय


संस्कृत (गज्जलिका भावानुवाद सहिता)

 

प्रभातं क्व यातं निशा पृच्छतीयम्

दिगन्तं तमः किं विभा पृच्छतीयम् ।


सुनहरा सबेरा कहां रुक गया है

अंधेरे से सहमी निशा पूछती है।

 

सखे ! स्वादुरेवं कथं सैन्धवस्य

निशीथे व्रणस्य  कथा पृच्छतीयम् ।

 

बताओ जरा स्वाद कैसा नमक का

छिपे घाव की यह व्यथा पूछती है।

 

कदा शापमुक्तिः कदा सङ्गमश्च

प्रतीक्षा विवर्णाधुना पृच्छतीयम् ।

 

कहां शाप से मुक्ति के बाद संगम

प्रतीक्षा उदासी भरी पूछती है।

 

गिरेस्तुङ्गशृङ्गाच्चला मोदमग्ना

गृहं सागरस्यापगा पृच्छतीयम् 

 

नदी ऊंचे पर्वत से निकली भटकती

समन्दर का मुझसे पता पूछती है।

 

गता शुष्कतामीप्सिता वल्लरी मे

प्रियःक्व वसन्तोSधुना पृच्छतीयम् ।

 

वो रूठी हुई बेल मुझसे लिपटकर

कहां मेरा फागुन गया पूछती है।

 

कदा श्लोकमापद्यते शोकमूले

पुनः क्रौञ्चगाथा स्मृता पृच्छतीयम् ।

 

कथा कोई कब वेद के जैसी पावन

करुण क्रौंच की वेदना पूछती है।

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