ख़ूब
थी वो मक़्क़ारी, ख़ूब ये छलावा है।
वो भी
क्या तमाशा था, ये भी क्या तमाशा है॥
सोचने
लगे हैं अब, ज़ुल्म के क़बीले भी।
ख़ामुशी
का ये दरिया, और कितना गहरा है॥
बेबसी
को हम साहब, कब तलक छुपायेंगे।
दिल
में जो उबलता है, आँख से टपकता है॥
पास
का नहीं दिखता, सूझती नहीं राहें।
गर यही
उजाला है फिर, तो ये भी धोखा है॥
:- नवीन
सी. चतुर्वेदी
हज़ज मुसम्मन अशतर मक्फ़ूफ मक्बूज़ मुखन्नक सालिम
फ़ाएलुन
मुफ़ाईलून फ़ाएलुन मुफ़ाईलून
212
1222 212 1222
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