ग़ज़ल - और तो सब कुछ इन्ही आंखों में रखते हैं - कमलेश श्रीवास्तव

 


और तो सब कुछ इन्ही आँखों में रखते हैं

बस तुम्हारी याद को परदों में रखते हैं

धूप में जल जाएँगे आँसू अगर छलके

इसलिए ही हम इन्हे पलकों में रखते हैं

 

उनके रहते कोई हमको छू नहीं सकता

वे हिफ़ाज़त से हमे बाँहों में रखते हैं

 

आसमानों के निवासी हैं परिन्दे सब

आप क्यों इनको यहाँ पिंजरों में रखते हैं

 

आपने क्यों रख दिया ईमान रस्ते पर

क़ीमती ज़ेवर तो संदूकों में रखते हैं

 

छोड़ रक्खा है इन्हे संसद में तुमने क्यों

मुजरिमों को बाँध कर जेलों में रखते हैं

 

ख़ुशबुएं अपने बदन पर हम नहीं मलते

हम महकते प्यार को साँसों में रखते हैं

 

इस ज़माने से तो हम डरते नहीं बिल्कुल

इस ज़माने को तो हम जेबों में रखते हैं

 

वे कभी तक़दीर का रोना नहीं रोते

जो मुक़द्दर अपने दो हाथों में रखते हैं

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