31 जुलाई 2014

7 ग़ज़लें मयङ्क अवस्थी

नींदों के घर में घुस के चुकाये हिसाब सब
बेदारियों ने तोड़ दिये ख़्वाब –वाब सब

इक धुन्ध ने सहर को कहानी बना दिया
महफूज़ अब तलक हैं सियाही के बाब सब

तनहाइयों में ऊब रही है मशीनगन
जाने कहाँ फरार हुये इंकलाब सब

क्यों चार दिन के हब्स से बैचैन हो मियाँ
बरसेगा अभी आसमाँ का इज़्तिराब सब

इस मादरे- चमन की सियासत पे वार जाऊँ
पंजे में फाख़्ता के दबे हैं उकाब सब

उड़ जायेंगे ये होश किसी रोज़ आखिरश
रह जायेगी धरी की धरी आबोताब सब

हो बेतकल्लुफीकि तककल्लुफ की शक़्ल में
आते है महफिलों में पहन कर नकाब सब
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212  


खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से
शबरंग हुआ जाउँ मैं सूरज के करम से

तरकीब यही है उसे फूलों से ढका जाय
सच ये है कि डरता हूँ मैं पत्थर के सनम से

इक झील सरीखी है गज़ल दश्ते-अदब में
जो दूर थी, जो दूर रही, दूर है  हम से

आखिर ये खुला वो सभी ताज़िर थे ग़ुहर के
जिनके भी मरासिम थे मेरे दीदा-ए-नम से

साक़ी  के सिवा और उसे याद नहीं कुछ
क्यों रिन्द की निस्बत हो तेरे दैरो-हरम से

ये मेरे तख़ल्लुस का असर मुझ पे हुआ है
अब याद नहीं अपना मुझे नाम कसम से
बहरे हजज़ मुसमन अख़रब मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122 


सुर्ख़ फूलों सी मेरी नज़्म की तस्वीर हुई
मेरी हस्ती मेरे जज़्बात की जागीर हुई

तूर पे बर्क़ जो चमकी तो गनीमत ये रही
एक लम्हा ही मेरे ख़्वाब की ताबीर हुई

सब थे खुशरंग लिबासों में बरहना लेकिन
कोई शै जिस्म पहनकर ही महावीर हुई

उसको पहचान के तस्वीर जला दी उसकी
चश्मे-बेदार मेरे ख़्वाब को शमशीर हुई

डूबता छोड़ के सूरज को सियाही में मयंक
रौशनी चाँद सितारों की बगलगीर हुई
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22 


कोई दस्तक कोई ठोकर नहीं है
तुम्हारे दिल में शायद दर नहीं है

उसे इस दश्त में क्या ख़ौफ़ होगा
वो अपने जिस्म में होकर नहीं है

इसे लानत समझिये आइनों पर
किसी के हाथ में पत्थर नहीं है

तेरी दस्तार तुझको ढो रही है
तेरे काँधों पे तेरा सर नहीं है

ये दुनिया असमाँ में उड़ रही है
ये लगती है मगर बेपर नहीं है

मियाँ कुछ रूह डालो शायरी में
अभी मंज़र पसेमंज़र नहीं है
बहरे हज़ज  मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,
1222 1222 122  


इक चाँद तीरगी में समर रोशनी का था
फिर भेद खुल गया वो भँवर रोशनी का था

सूरज पे तूने  आँख तरेरी थी , याद कर 
बीनाइयों पे फिर जो असर रोशनी का था

सब चाँदनी किसी की इनायत थी चाँद पर
उस दाग़दार शै पे कवर रोशनी का था

मग़रिब की मदभरी हुई रातों में खो गया
इस घर में कोई लख़्ते –जिगर रोशनी का था

दरिया में उसने डूब के कर ली है खुदकुशी
जिस शै का आसमाँ पे सफर रोशनी का था

जर्रे को आफताब बनाया था हमने और  
धरती पे कहर शामो-सहर रोशनी का था
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212  



बचपन में इस दरख़्त पे कैसा सितम हुआ
जो शाख़ इसकी माँ थी वहाँ से कलम हुआ

मुंसिफ हो या गवाह  , मनायेंगे अपनी ख़ैर
गर फैसला अना से मिरी कुछ भी कम हुआ

इक  रोशनी  तड़प के ये कहती  है बारहा
क्यूँ  आसमाँ का नूर घटाओं में ज़म हुआ

जूठे  हैं लब  तिरे ये उसे  कुछ ख़बर नहीं
जो  बदनसीब  शख़्स  तुम्हारा ख़सम हुआ

यकलख्त आ के आज वो मुझसे लिपट गया
जो फासला दिलों में था अश्कों में ज़म हुआ
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212  



मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ायें ग़र न हों बुनियाद मे , घर टूट जाता है

शिनावर को कोई दलदल नहीं दरिया दिया जाये
जहाँ कमज़र्फ बैठे हों सुखनवर टूट जाता है

अना खुद्दार की रखती है उसका सर बुलन्दी पर
किसी पोरस के आगे हर सिकन्दर टूट जाता है

हम अपने दोस्तो के तंज़ सुनकर मुस्कुराते हैं
मगर उस वक्त कुछ अन्दर ही अन्दर टूट जाता है

मेरे दुश्मन के जो हालात हैं उनसे ये ज़ाहिर है
कि अब शीशे से टकराने पे पत्थर टूट जाता है

संजो रक्खी हैं दिल में कीमती यादें मगर फिर भी
बस इक नाज़ुक सी ठोकर से ये लॉकर टूट जाता है

किनारे पर नहीं ऐ दोस्त मैं खुद ही किनारा हूँ
मुझे छूने की कोशिश में समन्दर टूट जाता है
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


मयङ्क अवस्थी – 8765213905

2 टिप्‍पणियां:

  1. मयंक भाई हमेशा की तरह लाजवाब हैं। ये अश’आर तो बेहद शानदार और यादगार हुए हैं।

    इस मादरे- चमन की सियासत पे वार जाऊँ
    पंजे में फाख़्ता के दबे हैं उकाब सब

    खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से
    शबरंग हुआ जाउँ मैं सूरज के करम से

    सब थे खुशरंग लिबासों में बरहना लेकिन
    कोई शै जिस्म पहनकर ही महावीर हुई

    डूबता छोड़ के सूरज को सियाही में मयंक
    रौशनी चाँद सितारों की बगलगीर हुई

    कोई दस्तक कोई ठोकर नहीं है
    तुम्हारे दिल में शायद दर नहीं है

    इसे लानत समझिये आइनों पर
    किसी के हाथ में पत्थर नहीं है

    अना खुद्दार की रखती है उसका सर बुलन्दी पर
    किसी पोरस के आगे हर सिकन्दर टूट जाता है

    किनारे पर नहीं ऐ दोस्त मैं खुद ही किनारा हूँ
    मुझे छूने की कोशिश में समन्दर टूट जाता है

    दिली दाद हाजिर है। कुबूल फ़रमाइये।

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