सितमगर की ख़मोशी को भले जुल्मो-सितम कहना - नवीन

सितमगर की ख़मोशी को भले जुल्मो-सितम कहना
पर उस की मुस्कुराहट को तो लाज़िम है करम कहना
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब तो इस दिल पर इनायत कर
लबों को आ गया है ख़ुश्क-आँखों को भी नम कहना
हमें तनहाई के आलम में अक्सर याद आता है
किसी का ‘अल्ला-हाफ़िज़’ कहते-कहते ‘बेsssशरम’ कहना
हमें गूँगा न समझें हम तो बस इस वासते चुप हैं
सभी के हक़ में है असली फ़साना कम से कम कहना
सनातन काल से जिस बात का डर था – हुआ वो ही
बिल-आख़िर बन गया फ़ैशन दरारों को धरम कहना
अक़ीदत के सिवा शाइस्तगी भी चाहिये साहब
कोई फ़ोर्मेलिटी थोड़े है ‘वन्दे-मातरम’ कहना
अगरचे मान्यवर कहने से कुछ इज़्ज़त नहीं घटती
मगर हम चाहते हैं आप हम को मुहतरम कहना
नवीन सी चतुर्वेदी

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


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