कहते हैं उस्ताद - सुनो
छोटी बह्र में शेर कहो
नस्लें गुम हो जायेंगी
फ़स्लों को महफ़ूज़ करो
अंकुर - पौधा - पेड़ - दरख़्त
इतने में सब कुछ समझो
दोनों ही उड़ती हैं, पर
धूल बनो मत, महक़ बनो
कबिरा की बानी का सार
भाखा को दरिया समझो
अपनी भी है सोच यही
आग लगे - पानी डालो
सफ़र बहुत लंबा है दोस्त
कछुए जैसी चाल चलो
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
फ़ालुन फ़ालुन फ़ालुन फ़ा
22 22
22 2
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