लघुकथा - जूण - डॉ. शील कौशिक

शाम के समय पार्क से उठकर औरतें अपने-अपने ठिकानों पर चल पड़ी। नीता और शीतल पार्क के गेट से बाहर निकल रही थी कि सामने मादा कुक्कर पर नज़र पड़ी। दोनों के मुँह से एक साथ निकला, "हे भगवान! फिर से पेट से है यह तो। अभी कुछ दिन पहले ही तो जने थे पूरे छह पिल्ले...

कुछ मर-खप गए। एक-दो को कोई पालने के लिए ले गया। यही दुर्गति होनी थी इनकी। दुम हिलाते नर कुत्तों से हर वक़्त घिरी रहती थी। बेचारी की जूण ही ऐसी है, क्या करे?”

अभी आगे बढ़ी थी कि उनकी नज़र बाई कमला की बाहर निकली आँखें, कमज़ोर व पीली पड़ी काया पर पड़ी। कमला का फिर पेट बढ़ा हुआ था।

"सुना है अब जो इसका पति है, वह चाहता है कि उसका ख़ुद का भी बच्चा हो। तीन-तीन आदमियों के साथ रहकर भी एक भी पति नहीं। बेचारी के चार बच्चे पहले और दूसरे पति से हैं। दोनों ही उसे छोड़कर जा चुके हैं और इनके लालन-पालन के बोझ में रात-दिन घरों में बर्तन, झाड़ू-पोंछा करके यह मरी जा रही है।"


"एक तो कमज़ोर हालत ऊपर से फिर यह गर्भावस्था... देख लेना! इस बार इसकी जान पर बन आएगी। इन बेचारी कामवालियों की जूण ही ऐसी है," कहते हुए सीता अपने घर की और मुड़ गई। वह अपने अंतर्मन को टटोलने लगी। लड़के की चाह में उसके भी तो न चाहते हुए चार बच्चे हो गए। उसके मुख से बे-साख़्ता निकला, "नहीं...नहीं... मादा कुक्कर की नहीं... कमली की नहीं... स्त्री की जूण ही ऐसी है।


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