कविता - श्रापित खण्डहर - अनामिका प्रवीण शर्मा

 


किसी दिन

किसी कविता में

मैं लिखूँगी उन तमाम औरतों की जीवनी

जो नज़रबंद थीं

इन  ऊँची ऊँची

किलों की दीवारों के पीछे

जो रानियाँ तो कतई नहीं थीं

पर वे रानियों की प्रतिस्थापन स्वरूप जरूर थीं

राजाओं की सेज के कुचले हुए

फूलों की पंखुड़ियां

थीं वे ऐसी धरती

जो सींचती रहीं

उनके ग़ैरवाजिब बीजों को

और भरती रहीं राज्य की सेनाएँ

वे मात्र भोग्या थीं

युद्ध में जीती हुई

कहीं किसी आँगन से उठाई हुई

महाराजाओं के वस्त्रों की तरहथीं बिल्कुल

पहने,फिर उतार फेंके

या बाँट दिए निचले तबके को

कभी ध्यान से सुनना

इन पत्थरों की दीवारों को

इनमें से आज भी आती हैं

कानों को भेदने वाली आवाजें

घुटी हुईं सिसकियाँ

कुछेक ज़िंदा चुनवा दी गईं थीं इनके पीछे

कुछेक गहरे काले कुँए में फिंकवा दी गईं थीं

उनकी गहराई आज भी चीखती है

यूँ ही नहीं ये खण्डहर शापित हुए

असंख्य श्रापों का परिणाम है ये ......

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