व्यंग्य - मिडिल क्लास- द डोनर - समीक्षा तैलंग

दान-पुण्य की बातें हम न करें तो कौन करेगा!! भारत में जन्म लेनेवाला, दान का भाव साथ लेकर जन्मता है। बात ये है कि वे भी और हम भी इसी माटी के हैं। समय के साथ वे जोंक बन गए और हम मनुष्य के मनुष्य ही रहे। उन्हें जोंक का आहार-व्यवहार बड़ा पसन्द आता। हमारे लिए नापसन्दगी जैसा कुछ था ही नहीं,,,। हमारी जुर्रत भी नहीं थी कि हम अपनी पसन्द बतायें। हम तो वे हैं जो ट्रेन की निचली बर्थ देकर मिडिल पर एडजस्ट हो जाते हैं। जरूरत पड़े तो बस के बोनट पर आराम भी फरमा लेते हैं।

जोंक रक्त चूसती है। हाँ, सच है ये! परन्तु हरेक का नहीं चूसती, ये उससे भी बड़ा सच है। उसके टेस्ट-बड्स मनुष्य की जीभ की तुलना में ज्यादा सम्वेदनशील हैं। उसकी जीभ के सेंसर्स अपना मनपसन्द स्वाद खोज वहीं चिपक जाते हैं। उसे पता है कि गरीब वर्ग उसके भोजन के लायक नहीं। वहाँ उसे पाँच साल तो दूर एक साल भी टिकने की इम्यूनिटी नहीं मिलेगी। धनाढ्य वर्ग से जोंक पहले से ही खौफजदा है। यद्यपि वह जानती है कि सर्वोत्तम उसे यहीं मिलेगा, लेकिन वो ये कतई नहीं भूलती कि यदि उस वर्ग की नजर जोंक पर पड़ी तो उसके टुकड़े-टुकड़े करने में उन्हें एक पल का समय नहीं लगेगा।

वहीं मध्यमवर्ग के यहाँ सब चलता है। दादा-नाना के दूर के रिश्तेदार भी चलते हैं और मुहल्ले की दाई भी। पाँच सदस्यों में एक कमाकर खिलाने वाला भी चलता है। और बगैर कामवाली के घर भी। एक थाली में चार लोग भोजन भी कर लेते हैं। और पुराने कपड़े युगों तक बदन पर करीने से सम्भाले जाते हैं। चाय में डूबी बासी रोटी से पेट भर नाश्ता उनका फेवरेट होता है। पचास रुपए प्लेट की पोहे जलेबी लक्जरी होती है।

मध्यम वर्ग में काफी कुछ चलता है। जोंक भी डरती नहीं वहाँ जाने से। बल्कि वो अपना अधिकार जताती है। जैसे बेटी-बहू हो उस घर की। पाई-पाई की गुजर बसर में सबकी सलामती का खयाल यही वर्ग करता है। भले वो छोटा-मोटा अफसर हो या क्लर्ककर्ज में आकण्ठ डूबा रहता है। बच्चों की पढ़ाई से लेकर बहन-बेटी की शादी और दो कमरे का घर खड़ा करने में ही पूरी जिन्दगी गुजर जाती है। इसके बावजूद दरवाजे पर आया हुआ भिक्षुक खाली हाथ नहीं लौटता। धार्मिक स्थलों पर चढ़ावा भी यही वर्ग सबसे ज्यादा चढ़ाता है। इसी वजह से दोनों जगहें हमेशा गुलजार रहती हैं। न पंडित को भूखा रहने देता हैन मेहमान-नवाजी में कसर। सब कुछ खुले हाथों से।

वो जीवन के हवन-कुण्ड में इतने वर्षों की अपनी मेहनत की आहुति देता चलता है। उसकी अनगिनत आहुतियाँदेश की ढाल भी बनती हैं। वो जगह-जगह टैक्स की आहुति देता है। आपदा आए तो उसके लिए धन संचय की भी आहुति देता है। महामारी में निःसंकोच एक-दो महीने की पगार तक दान करने की आहुति देता है। इस बीच किसी के पास नौकरी नहीं तो उसे एक समय भरपेट भोजन कराने की आहुति भी वही देता है। अस्पतालों का लम्बा-चौड़ा बिल भरकर, डॉक्टरों के सपने पूरा करने में भी इसी की आहुति काम आती है।

दरअसल उनके अस्पताल और बँगले इसी वर्ग की रक्त कोशिकाओं से निचोड़ी हुई मेहनत के बलबूते खड़े होते हैं। वो पूरी मेहनत करता है अपनी पगड़ी बचाने की। इतनी आहुतियाँ देकर बचत का हिस्सा जानने की जिज्ञासा कोई नहीं रखता। जोंक इसी टेक्सपेयर का रक्त चूसकर तृप्त होती है। उसे इसी से सर्वाधिक अपेक्षाएँ होती हैं क्योंकि उसे पता है कि दबे मुँह से मुक्के की मार केवल यही सहन कर सकता है। इनके बीच जोंक अपनी इम्यूनिटी की परवाह नहीं करती। वो सब तरह के टेक्स बढ़ाकर उसे और स्वादिष्ट बनाती है। ताकि चूसने में और और आनन्द की अनुभूति हो। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी करने के लिए 3 विकल्प हैं.
1. गूगल खाते के साथ - इसके लिए आप को इस विकल्प को चुनने के बाद अपने लॉग इन आय डी पास वर्ड के साथ लॉग इन कर के टिप्पणी करने पर टिप्पणी के साथ आप का नाम और फोटो भी दिखाई पड़ेगा.
2. अनाम (एनोनिमस) - इस विकल्प का चयन करने पर आप की टिप्पणी बिना नाम और फोटो के साथ प्रकाशित हो जायेगी. आप चाहें तो टिप्पणी के अन्त में अपना नाम लिख सकते हैं.
3. नाम / URL - इस विकल्प के चयन करने पर आप से आप का नाम पूछा जायेगा. आप अपना नाम लिख दें (URL अनिवार्य नहीं है) उस के बाद टिप्पणी लिख कर पोस्ट (प्रकाशित) कर दें. आपका लिखा हुआ आपके नाम के साथ दिखाई पड़ेगा.

विविध भारतीय भाषाओं / बोलियों की विभिन्न विधाओं की सेवा के लिए हो रहे इस उपक्रम में आपका सहयोग वांछित है. सादर.