महाभारत का युद्ध जीतने के बाद एकदिन कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘हे पार्थ! तुम अच्छे योद्धा हो. अब मुझसे गीता सुनने के बाद, विद्वान भी हो गये हो. मेरा मन है कि तुम आचार्य अतरंगी के पास जाओ और उन्हें शास्त्रार्थ में हरा कर आओ!’
अर्जुन गया मगर थोड़ी देर में लौट आया, बोला ‘प्रभु! मैं आपकी इच्छा पूरी नहीं कर सकता.’
‘क्यों?’
“मैंने आचार्य अतरंगी से कहा
कि मुझे श्री कृष्ण ने आपके पास शास्त्रार्थ करने भेजा है! तो आचार्य श्री बोले कि
कृष्ण तो मूर्ख है. धरती गोल है. तुझे बाण चलाना नहीं आता.दुर्योधन श्रेष्ठ सम्राट
था. दो और दो कभी कभी सवा चार भी हो जाते हैं! आज ठण्ड बहुत है. सूरज भी बेईमान हो
गया है. सूरज का भी कुछ इलाज करना पड़ेगा. आचार्य अतरंगी बहुत बड़े कुतर्की हैं
प्रभु. इसीलिए अकेले पड़ गये हैं. न कोई हृदय से उन्हें पसन्द करता है, न उनके पास जाना चाहता है. वे अपनी विद्वत्ता और अकड़ में इस कदर जकड़े हुए
हैं कि स्वयं के अलावा न किसी को सुनना चाहते हैं, न कुछ
समझना चाहते हैं. उन्हें उनकी उसी दुनिया में उसी भरम के साथ रहने दें. मैं तर्कों
सहित शास्त्रार्थ करने वाले विद्वान को तो हरा सकता हूँ प्रभु, लेकिन एक आत्ममुग्ध कुतर्की तथाकथित आचार्य को कभी नहीं.”
कृष्ण मुस्कुराए और बोले “जानता
हूँ पार्थ! तुम्हें आचार्य अतरंगी के पास भेजने का आशय केवल इतना ही था कि तुम भी
ये जान लो कि दुनिया में केवल सरल, सहज और खुशियाँ बाँटने वाले लोग ही नहीं होते,
बल्कि हर युग में कुछ आचार्य अतरंगी भी होते हैं! जीते जी उन्हें कभी इस बात का
भान नहीं होता कि वे क्या सोच रहे हैं, क्या बोल रहे हैं, क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं? वे तो जब
चित्रगुप्त के दरबार में उपस्थित होते हैं, तभी जान पाते हैं
कि इन्होंने जीवन के स्वर्णिम पल कैसी कैसी मूर्खताओं में व्यर्थ किए हैं.”
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