कहानी - बेवकूफ – वन्दना बाजपेयी

टिंग-टॉंगटिंग-टॉंगटिंग-टॉंग। “कौन है?” मैंने शॉल हटाते हुए पूछा। “पोस्टमैन” उधर से आवाज आयी। “आती हूँ” कहते हुए मैं चप्पलें पैर में फँसाने लगी। फँसाने इसलिए कि चिट्ठी लेकर मेरा फिर से सोने का इरादा था। वैसे भी छुट्टियाँ कम ही मिलती हैं उस पर छुट्टी

के दिन सर्दियों की धूप अपने रेशमी एहसास के साथ पूरे आँगन में पसरी हो, तो कौन बेवकूफ होगा जो ऐसे दुर्लभ मौके को जाने देगाखैर अलसाते हुए मैं दरवाजे तक पहुँची । पोस्टमैन ने पीले लिफाफे में एक बड़ा सा कार्ड पकड़ा दिया।

 

ओह! लगता है शादी का कार्ड है। इस बार सहालगें भी कम दिन की हैं। तो सब उन्हीं तारीखों पर शादी करने को आमादा हैं। कहाँ-कहाँ जाया जाएखैर देखा जाएगा। अभी तो एक झपकी ले लूँ सोचते हुए कार्ड बगल में रख फिर से फोल्डिंग पर पसर गयी। पर नींद महारानी अपना राजपाट छोड़कर जा चुकी थीं। दो-चार बार करवट बदलने के बाद सोचाचलो देखा जाए किसका कार्ड है। खोला तो पीले लिफाफे से सुंदर सा कार्ड झाँका। “अच्छा लखपतराय चाचा जी के पोते की शादी है। चलो! सुलेखा परेशान भी थी कई सालों से” सोचते हुए मैंने कार्ड दाई तरफ रखे स्टूल पर रख दिया और खुद समय को फ़र्लांघते हुए लखपत राय चाचा के पास पहुँच गयी। लखपत राय चाचा जी के घर हमारा पुराना आना-जाना रहा है। लखपतराय चाचा जी मेरे पिता के मित्र थे। बचपन से उनको देखा हैबहुत उसूल वाले आदमी थे। पिताजी अक्सर उनकी प्रशंसा किया करते थेजो कहते हैं वो निभाते हैं। उम्र के उस दौर में जब हमारी समझ थोड़–थोड़ी बढ़ रही थीहमें भी विश्वास होने लगा था लखपत राय चाचा कुछ तो अलग हैंसामान्य कद–काठी और नौकरी होते हुए भी उसूलों का पालन उन्हें आम आदमी से अलग खड़ा कर ही देता। लखपत राय चाचा को उस लोक गए तो बरसों हो गएपर घर आते-जाते उनकी बहू सुलेखा जो एक स्कूल की प्रधानाचार्या है मेरी सहेली बन गयी। इसलिए ये रिश्ता चलता रहा। उसमें पहले जैसे गर्मजोशी तो नहीं थी पर इतनी आंच बाकी रही कि गुजरते समय और बढती उम्र के बाद भी हमारा मिलना जुलना होता रहा। फिर प्रेम से बुलाने पर उनके घर न जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।

 

विवाह  के दिन मैं भी कार्यक्रम में शिरकत करने पहुँची। मंगलगीत,  द्वारचारमेहमानों की आवभगत से पूरा माहौल खुशनुमा था। मैंने जैसे ही प्रवेश किया एक कप गर्म कॉफी के साथ उन्होंने मेरा स्वागत किया। उस दिन ठंड काफी थीबाहर से आने के कारण मेरे हाथ अकड़े जा रहे था। लिहाजा  कॉफी का गर्म कप मुझे बहुत सुकून भरा प्रतीत हुआ।  मैं कप लेकर महिलाओं के बीच बैठ गयी।  वे आपस में बाते कर रही थी और मैं कॉफी में मगन थी। तभी एक वाक्य ने मेरा ध्यान खींचा। मैं कान लगा कर सुनने लगी।  महिलाएं आपस में बात कर रही थीं, “50 लाख दहेज लिया हैलड़की भी मन की मिली हैभाई भाग्य हो तो इनके जैसे”

दूसरी ने बात काटी, “लड़का भी तो इंजीनीयर है। ये तो आजकर रेट चल रहा है। अरे पढाया-लिखाया है लड़के कोलड़की वाले कोई अहसान नहीं कर रहे हैं।”

 लड़की भी तो इंजिनीयर हैफिर दहेज काहे का” एक और आवाज़ उभरी।

 

 “अरे ये तो परंपरा चली आ रही है”

 

 “परंपरा! वैसे एक बात कहूँ जिज्जी! कितनी परंपराएँ टूट भी रहीं हैंपर ये नहीं टूटेगी”

 

  “हाँ भाई! कौन रोकना चाहेगा घर आती लक्ष्मी को”

 

इस वाक्य के बाद महिलाओं के सम्मिलित ठहाके गूंजने लगे।

 

ठहाकों की ये आवाज मुझसे सहन नहीं हुई।  मैं कप लेकर दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ दीवार पर लखपतराय चाचा जी की बड़ी सी तस्वीर लगी थी। तस्वीर देखकर मेरी आँखे डबडबा गयीं और मैं उस समय में पहुँच गयी जब सुलेखा इस घर में बहू बन कर आई थी। सुलेखा की शादी चाचाजी के एकलौते बेटे श्याम से हुई थी। सुलेखा गरीब परिवार से थी। उनके पिता दहेज देने की स्थिति  में नहीं थे। श्यामजो मुझसे कुछ महीने छोटा है नया–नया इंजीनियर बना था। उसके बहुत सारे रिश्ते आ रहे थे। लोग ढेर सारा दहेज देने को भी तैयार थेपर चाचा जी ने गुणों के आधार पर सुलेखा को चुना।  सुलेखा के पिता चाचा जी के पैर पड़  कर बोले, “मैं केवल बेटी दे सकता हूँ।” चाचा जी ने उन्हें गले से लगा लिया और कहा, “हमें सिर्फ बेटी ही चाहिएमैं दहेज प्रथा का विरोधी हूँपरंपरा के नाम पर दिया जाने वाला दहेज मुझे स्वीकार नहींइन सड़ी–गली परंपराओं को तोडना ही चाहिए जिसमें किसी बहू की औकात पिता द्वारा दिए गए दहेज से तय न हो। पुरानी टूटेगी तभी तो एक नयी परंपरा बनेगी जहाँ बेटा बहू एक सामान माने जायेंगे।”

 

चाचा जी ने ऐसा ही किया।  सुलेखा सिर्फ अपने सूटकेस में मात्र कुछ कपड़े ले कर घर आई। ससुराल उसका दूसरा मायका बन गया। उसे वही अधिकार प्राप्त थे जो घर में बेटियों को होते हैं।  उस जमाने में जब हम ससुराल में माथा दिखने तक का नहीं सोच सकते थे,  सुलेखा सर पर पल्लू भी नहीं लेती।  सुलेखा आगे पढ़ना नहीं चाहती थी पर चाचा जी ने उसकी शिक्षा  पूरी कराईउनका मानना था कि शिक्षा के माध्यम से ही आवाज में वो ताकत आती है, जिससे गलत का विरोध किया जा सकता है । उन्होंने ही सुलेखा की नौकरी भी लगवाई।  सुलेखा आराम से नौकरी कर सके इसके लिए उन्होंने बहुत त्याग किये।  उन्होंने घर में बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी खुद ले ली।  तब तक उन्हें दिल की बीमारी लग चुकी थी। बच्चों के बीच भागते दौड़ते बहुत थक जाते पर मजाल है कि उफ करते।  कई बार लोग उन्हें समझाते पर वो हँस कर इतना ही कहतेहमें अपनी बहू-बेटियों को बाहर आराम से काम करने देने के लिए घर का वातावरण बेहतर बनाना होगा।  परिवार समाज की छोटी इकाई है और सामाज यहीं से बदलेगा।

 

एक दिन पता चला कि हृदयघात के कारण चाचाजी का निधन हो गया। मैं भी बच्चों को ले कर रोती कलपती पहुँची थी। चाचाजी के चेहरे पर बहुत शांति थी।  उन्होंने समाज को बदलने का अपने हिस्से का योगदान दे दिया थाअब ये बीड़ा अगली पीढ़ी को उठाना था। पर शायद अभी एक काम बाकी था। उनके बेटे श्याम ने बताया था कि चाचाजी कह गए हैं कि उनकी तेरहवीं पर खर्च होने वाला धन अनाथालय को दे दिया जाए।” मेरे झरते आँसुओं के बीच मेरी नजरों में चाचा का कद और ऊँचा हो गया था।

 

धीरे–धीरे मेरा मायके जाना कम होता गया और सुलेखा से मिलना भी।  आज इतने दिनों बाद मिलने का मौका भी मिला तो ये जान कर मन दुखी हो उठा कि वो चाचाजी के आदर्शों से विमुख हो रही है। मैं अपनी सोच में मगन थीतभी सुलेखा उस कमरे में आईमुझे देखकर बोली, “देखो ये शेरवानी भेजी है मेरे बेटे के लिएइतने धनवान हैं पर देने का दिल नहीं हैचाहते हैं सेंत में दामाद मिल जाए।” अब मैं अपने को रोक न सकीमैंने सुलेखा का हाथ पकड़कर कहना शुरू किया, “सुलेखा ये तुम कह रही होतुम!  तुम्हें पता है न चाचाजी तुम्हें बिना दहेज के लाये थेउनका विश्वास था कि अपने स्तर पर उन सड़ी-गली परम्पराओं को तोडा जाएजो स्त्री को कमतर आंकते हैंऔर फिर चाचाजी ने कितना कुछ नहीं किया है तुम्हारे लिए और तुम उन्हीं के घर मेंउन्हीं की तस्वीर के नीचेउन्हीं के उसूलों को तोड़ रही हो।”

 

सुलेखा ने मेरा हाथ झटकते हुए कहा, “सुनोपिताजी बेवकूफ थे पर मैं नहीं हूँ।”

 

सुलेखा चली गयी पर मैं वहाँ रुक न सकी अपनी भीगती आँखों को पोछते हुए बाहर सड़क पर टहलने लगीअन्दर की घुटन मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। अपने परिवार की इकाई में ही सही पर कितना कुछ किया था चाचाजी ने स्त्रियों के लिएउन्हें आशा थी समाज के बदलने कीस्त्री पुरुष समानता कीपर आज उनकी ही बहू उन्हें बेवकूफ बता रही है। जिस स्त्री को मौका मिला समानता का वह  भी अपना समय आने पर स्त्री के पक्ष में खड़ी होने के स्थान पर उस कुरीति को अपना रही है।

 

बैंड बाजे की आवाज आने लगी।  शायद  बारात निकलने वाली थी।  मैं एक सेकंड के लिए ठिठकीफिर आगे बढ़ने लगी। मैंने मन ही मन कहा, “चाचाजी आप बेवकूफ नहीं थेआपने एक ईमानदार  कोशिश की थी समाज को बदलने कीबेवकूफ आपके वंशज निकले जिन्होंने स्वार्थ में आकर समाज परिवर्तन की धारा  को पुनः पीछे मोड़ने का प्रयास किया।” मैं गली के छोर तक आ गयी थी। तभी मुझे ध्यान आया कि अपना पर्स तो मैं वहीं छोड़ आयी हूँ।  मैंने एक बार फिर पीछे मुड़ कर देखाऔर तेजी से घर की ओर लौटने लगी।  सुलेखा ने मुझे देख कर मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “अरे! आप कहाँ चली गयीं थीचलिएबरात प्रस्थान करने वाली है।” इस बार मैंने उसका हाथ झटकते हुए कहा,  “सुलेखा डियरमैं इतनी भी बेवकूफ नहीं हूँजो यहाँ उपस्थित  रह कर एक गलत परंपरा को मौन समर्थन दूँ। मैं अपना पर्स लेने आई थीजा रही हूँ।  मेरा विरोध छोटा ही सहीपर प्रखर है।” सुलेखा के चेहरे पर हजारों चढ़ते –उतरते भावों को वैसे ही छोड़ कर मैं तेजी से आगे बढ़ने लगी।  मुझे महसूस हुआ की कुछ और कदम मेरे पीछे चल रहे हैं। कम से कम वो इतने बेवकूफ नहीं थे जो गलत बात को मौन समर्थन देते। 

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