नवगीत - मौन नहीं रहिए - राम निहोर तिवारी

 


मौन नहीं रहिए -


उजियाले की हार देखकर

मौन नहीं रहिए. 


अखबारों के खोजी-खबरी

सम्पादक चुप हैं.

जन-जीवन की व्यथा-कथा के -

अनुवादक चुप हैं.

बड़बोली सत्ता के आगे

सब के होंठ सिए. 


सबल दंभ से डर कर थर-थर

परंपरा काँपे.

मर्यादा की बेल सूखती-

जड़ अपनी नापे.

अनाचार के कशाघात को

ऐसे मत सहिए.


सरेआम छल-छद्म सियासी

नफरत घोल रहे.

पुरखों के पाले अतीत पर 

हल्ला बोल रहे 

सावधान इनसे रह अपनी 

धारा में बहिए 


घूरे के दिन फिरे, हो रही-

बगुलों की पूजा

सम्प्रति इनसे बढ़ कर 'त्यागी' 

दिखे नहीं दूजा.

करतब दिखा रहे बाजीगर 

नजरें बंद किए.


सगुन कह रहे लोक-चेतना

'रौ' में आएगी. 

उन्मादी यह रात सुबह-

घर-घर पहुँचाएगी.

बस थोडा सा और अँधेरा

जी लें पीर पिए.

1 टिप्पणी:

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