बचानी हो हुज़ूर को जो आबरू दयार की - नवीन

बचानी हो हुज़ूर को जो आबरू दयार की
तो मुलतवी नहीं करें अरज किरायेदार की
न तो किसी उरूज की न ही किसी निखार की
ये दासतान है सनम उतार के उतार की
बहुत हुआ तो ये हुआ कि हक़ पे फ़ैसला हुआ
कहाँ समझ सका कोई शिकायतें शिकार की
चमन की जान ख़ुश्बुएँ हवा से डर गयीं अगर
तो कैसे महमहाएँगी ये बेटियाँ बहार की
मरज़ मिटाने की जगह मरज़ बढाने लग गयीं
बुराइयों में मिल गयीं दवाइयाँ बुख़ार की
ज़मीन पर हरिक तरफ़ तरन्नुमों का राज है
कमाल का ख़याल हैं सदाएँ आबशार की॥
धुआँ धुआँ धुआँ धुआँ उड़ाते जा रहे हैं सब
न जाने क्या दिखायेगी अब और ये एनारकी { anarchy }
उठा-पटक के दौर में न शर्म है न लाज है
भलाइयों की तश्तरी हमीं ने छार-छार की
अज़ीब कर दिया समाँ बिगाड़ दी है कुल फ़जा
पसरती जा रही है लू मरुस्थली बयार की
न ख़ाक हूँ न चाक हूँ छड़ी न जल न डोरियाँ।
नवीन’ सच तो ये है बस कला हूँ मैं कुम्हार की॥

नवीन सी चतुर्वेदी


बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें