30 नवंबर 2014

उर्दू का ज़िक्र आते ही अक्सर मैं उछलता हूँ ऐसे - नवीन

उर्दू का ज़िक्र आते ही अक्सर मैं उछलता हूँ ऐसे
नुक़्ता रखने पर मुक्ता-माणिक मिल जायेंगे जैसे

ऐन-ग़ैन की बह्सों में शिरकत करता हूँ कुछ ऐसे
जैसे हर इक तर्क पे मुझ को मिलने वाले हों पैसे

चन्द्र-बिन्दु और अनुस्वार का अन्तर भी अब याद नहीं
नहीं जानता हँसने वाला आख़िर हन्सेगा कैसे
(हंसेगा)

ड़ ण ञ का इस्तेमाल किये इक अरसा बीत गया
दिल - दल वाले हर्फ़ मगर पढ़ लेता हूँ जैसे-तैसे

सूरदास बन कर दिन-दिन भर मीरा को पढ़ता हूँ और
मीरो-ग़ालिब बन जाता हूँ रोज शाम पौने छै से

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