दश्त में ख़ाक़ उड़ा रक्खी है - शकील जमाली

दश्त में ख़ाक उड़ा रखी है
यार ने धाक जमा रखी है

आप समझाइए मायूसी को
हमने उम्मीद लगा रखी है

कौन खता था के मर जाऊंगा
मेज़ पे अब भी दवा रखी है

मुझको दीमक नहीं लग पायेगी
जिस्म को धुप दिखा रखी है

चैन से बैठ के खा सकता हूँ
इतनी इज्ज़त तो कमा रखी है

लडखडाता हूँ मैं कमजोरी से
वो समझता है लगा रखी है

इश्क करने को तो कर सकते हो

ताक पर रस्म-ऐ-वफा रखी है

शकील जमाली

बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 22

1 टिप्पणी:

  1. वाह जमाली साहब आपकी इस गजल ने तो धाक जमा दी, बहुत बधाई आपको इस मानीखेज गजल के लिए।

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