एक तमाशे के लिये और तमाशे कितने - नवीन

ज़िन्दा रहने के लिये और बहाने कितने
एक तमाशे के लिये और तमाशे कितने

बाँह फैलाये वहाँ कब से खड़ा है महबूब
रूह बदलेगी बदन और न जाने कितने

आग पानी से बचाओ तो हवा की दहशत
ज़िन्दगी अक्स बनाये तो बनाये कितने

अपनी यादों में न पाओ तो नज़र से पूछो
और होते भी हैं यारों के ठिकाने कितने

जैसे आये हैं यहाँ वैसे ही जाना होगा 
बात सच है ये मगर बात ये माने कितने
:- नवीन सी. चतुर्वेदी



फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन
बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन
2122 1122 1122 22

तमाम ख़ुश्क दयारों को आब देता था - नवीन

तमाम ख़ुश्क दयारों को आब देता था
हमारा दिल भी कभी आसमान जैसा था
तमाम - अनेकख़ुश्क - शुष्क / सूखादयार - स्थान / क्षेत्रआब - पानी

अजीब लगती है मेहनतकशों की बदहाली
यहाँ तलक तो मुक़द्दर को हार जाना था
मेहनतकश - मेहनत / शारीरिक श्रम करने वाले , मज़दूर

नये सफ़र का हरिक मोड़ भी नया थामगर
हरेक मोड़ पे कोई सदाएँ देता था
सदा - आवाज़

बग़ैर पूछे मेरे सर में भर दिया मज़हब
मैं रोकता भी तो कैसे कि मैं तो बच्चा था

कोई भी शक़्ल उभरना मुहाल था यारो
हमारे साये के ऊपर शजर का साया था
शजर - पेड़

तमाम उम्र ख़ुद अपने पे जुल्म ढाते रहे
मुहब्बतों का असर था कि कोई नश्शा था

बड़ा सुकून मिला उस से बात कर के हमें
वो शख़्स जैसे किसी झील का किनारा था

बस एक वार में दुनिया ने कर दिये टुकड़े
मेरी तरह से मेरा इश्क़ भी निहत्था था

अलावा इस के मुझे और कुछ मलाल नहीं
वो मान जायेगा इस बात का भरोसा था

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

1212 1122 1212 22

हवा के ज़ोर पे ज़ोर अपना आज़मा कर देख - नवीन

हवा के ज़ोर पे ज़ोर अपना आज़मा कर देख
न उड़ सके तो कम-अज़-कम पतंग उड़ा कर देख
कम-अज़-कम - कम से कम 

वो कोई चाँद नहीं है जो दूर से दिख जाय
वो एक फ़िक्र हैउस को अमल में ला कर देख

इबादतों के तरफ़दार बच के चलते हैं
किसी फ़क़ीर की राहों में गुल बिछा कर देख

फिर इस जहान की मिट्टी पलीद कर देना
पर उस से पहले नई बस्तियाँ बसा कर देख

ये आदमी हैरिवाजों में घुल के रहता है
न हो यक़ीं तो समन्दर से बूँद उठा कर देख

वो इक ज़मीन जो बंजर पड़ी है मुद्दत से
वहाँ ख़ज़ाना गढ़ा है” – ख़बर उड़ा कर देख

लिबास ज़िस्म की फ़ितरत बदल नहीं सकता
नहीं तो बजते नगाड़ों के पास जा कर देख

मुहब्बतों की फ़ज़ीहत ठठा के हँसती है
किसी यतीम के सीने पे सर टिका कर देख

सिवा-ए-स्वाद मशक़्क़त के फ़ायदे भी हैं
न हो यक़ीन अगर तो गरी चबा कर देख
सिवा-ए-स्वाद - स्वाद के सिवाय , मशक़्क़त - मेहनत , गरी - नारियल के अन्दर की गरी 

तनाव सर पे चढ़ा हो तो बचपने में उतर
ख़ुद अपने हाथों से पानी को छपछपा कर देख  

:- नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ.
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22

क़र्ज़ हैवानियत उठाती है- नवीन


क़र्ज़ हैवानियत उठाती है।

क़िस्त इन्सानियत चुकाती है॥

शब के दर तक पहुँच न पाती है।
ओस दिन में ही सूख जाती है॥
हमने बस आसमान ही देखे।
नींद ज़र्रात को भी आती है॥

हम बचाते हैं लौ मुहब्बत की।
फिर यही लौ हमें जलाती है॥

एक पोखर समान है जीवन।
जिस में क़िस्मत कँवल खिलाती है॥

दिल के टुकड़े समेट लो हजरत।
तेज़-अश्कों की मौज़ आती है॥

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
2122 1212 22

ग़नीमत से गुज़ारा कर रहा हूँ - नवीन

ग़नीमत से गुज़ारा कर रहा हूँ।
मगर चर्चा है जलसा कर रहा हूँ ॥

तरक़्क़ी का ये आलम है कि पल-पल।
बदन का रंग नीला कर रहा हूँ॥

ठहरना तक नहीं सीखा अभी तक।
अज़ल से वक़्त जाया कर रहा हूँ॥

तसल्ली आज भी है फ़ासलों पर।
सराबों का ही पीछा कर रहा हूँ॥

मेरा साया मेरे बस में नहीं है।
मगर दुनिया पे दावा कर रहा हूँ॥


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


अज़ल - आदि , सराब - मृग तृष्णा 

तमन्नाओं पे हावी है तकल्लुफ़ - नवीन

सुनाना आप अपने दिल की बातें
मुझे कहने दें मेरे दिल की बातें

सुनी थीं मैंने माँ के पेट में ही
निवालों को तरसते दिल की बातें

न जुड़ जाओ अगर इन से तो कहना
ज़रा सुनिये तो टूटे दिल की बातें

तमन्नाओं पे हावी है तकल्लुफ़
चलो सुनते हैं सब के दिल की बातें

मुझे कुछ भी नहीं आता है लेकिन
समझता हूँ तुम्हारे दिल की बातें

शकर वालों को भी हसरत शकर की
कोई कैसे सुनाये दिल की बातें

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


इस जिस्म के अन्दर है बयाबाँ भी चमन भी - नवीन

वहशत है ज़माने की तो है तेरी लगन भी
इस जिस्म के अन्दर है बयाबाँ भी चमन भी
वहशत - डर / पागलपनबयाबान - जंगलसुनसान जगह

फिर मींच के पलकों को ज़रा ख़ुद में उतरना
गर तुझको सुकूँ दे न सकें 'नात-भजनभी
नात - इस्लाम में ईश्वरीय आराधना यानि भजन के लिये प्रयुक्त

ऐसा नहीं बस धरती पे ही रंज़ोअलम हैं
हर सुब्ह सिसकता है ज़रा देर गगन भी
रंज़ोअलम - दुःख-दर्द

दिल तोड़ने वाले कभी ख़ुश रह नहीं सकते
ता-उम्र तड़पते रहे बृजराज किशन भी ***

ताला सा लगा देती हैं कुछ बातें ज़ुबाँ पर

समझा न सके साहिबो सीता को लखन भी @@@


@@@ वनवास के दौरान सोने के हिरण के आखेट पर राम जाते हैं और काफ़ी देर तक लौटते नहीं हैं। तब जानकी लक्ष्मण से कहती हैं कि वह जा कर भाई की ख़ैर-ख़बर ले कर आयें। अनिष्ट की आशंका को भाँपते हुये लक्ष्मण अपनी भाभी को समझाने का प्रयत्न करते हैं, पर नारी स्वभाव के अनुसार सीता उन्हें अत्यधिक खरी-खोटी सुनाने लगती हैं [इस अत्यधिक खरी-खोटी का एहसास उन्हें अधिक होगा जिन्होंने वाल्मीकि रामायण या फिर राधेश्याम रामायण में इस प्रसंग को पढ़ा है]। शेष बातें तो जन-सामान्य को मालूम हैं ही।

*** देवकीनन्दन कृष्ण ब्रज छोड़ कर मथुरा और फिर मथुरा से द्वारिका चले गये। बरसों बाद सूर्य-ग्रहण पर कुरुक्षेत्र के ब्रह्म-सरोवर पर स्नान हेतु सह-कुटुम्ब पहुँचे [कुरुक्षेत्र के ब्रह्म सरोवर में सूर्य-ग्रहण पर स्नान करने का पौराणिक महत्व है]। वहाँ नन्द बाबा, यशोदा मैया तथा अन्य ब्रजवासी भी आये हुये थे। कृष्ण-बलदेव नन्दबाबा यशोदा मैया से ऐसे लिपट कर रो पड़े जैसे कोई बच्चा माँ-बाप से बिछड़ जाय और फिर भटकते-भटकते उसे अपने माँ-बाप मिल जाएँ। वहीं कृष्ण ने इस बात को स्वीकार किया कि ब्रज छोड़ने के बाद उन्हें एक क्षण को भी सुकून नहीं मिला।
दोस्तो ग़ज़ल में माइथोलोजी का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। अब जिस माइथोलोजी को मैं जानता हूँ उसे कोई एलियन तो नज़्म करने से रहा, सो मैं इस तरह के प्रयास करता रहता हूँ। उम्मीद करता हूँ शायद कुछ लोग इसे पसन्द भी करेंगे।
:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122


जो इतना ही गिला है तीरगी से- नवीन

जो इतना ही गिला है तीरगी से
सहर सज कर दिखा दे रौशनी से

हरा कर तो दिया दिल को जला कर
मैं चाहूँ और क्या अब आशिक़ी से

 मुझे तब्दीलियाँ कम ही करेंगी
शकर निकलेगी कितनी चाशनी से

 मिरे दर पर नहीं आती मुसीबत
मैं ख़ुश होता अगर सब की ख़ुशी से

तसल्ली की फुहारें छोड़ती है
जुड़ी हो गर तजल्ली बन्दगी से

बशर लेते हैं यूँ मंदर के फेरे

कि जैसे भागते हों सब सभी से


:- नवीन सी. चतुर्वेदी

नफ़रत बढ़ा रहे हैं मुसलसल रिवाज़-ओ-रस्म - नवीन

आधी उड़ान छोड़ के जो लौट आये थे
जन्नत के ख़्वाब हम को उन्हीं ने दिखाये थे

अम्नोसुक़ून शह्र की तक़दीर में कहाँ
इस ही जगह परिन्द कभी छटपटाये थे

कुछ देर ही निगाह मिलाते हैं लोग-बाग
दो चार बार हमने भी आँसू बहाये थे

नफ़रत बढ़ा रहे हैं मुसलसल रिवाज़-ओ-रस्म
बेकार हमने रेत में दरिया बहाये थे

हीरे-जवाहरात की महफ़िल का हो गुमान
चुन-चुन के लफ़्ज़ उस ने यूँ मिसरे सजाये थे

किरदार भी बनाती है ज़िल्लत कभी-कभी
तुलसी व कालिदास इसी ने बनाये थे

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ
मफ़ऊलु फाएलातु मुफ़ाईलु फाएलुन.

221 2121 1221 212.

कुछ तो दामनकशाँ हूँ मैं उससे - मयंक अवस्थी


जो मेरी रोशनी है ज़ाती है
दिल दिया है , उमीद बाती है
ज़ाती – व्यक्तिगत / अपनी स्वयं की


मैं वो पत्थर हूँ जिस में मुद्दत से
साँस आती है - साँस जाती है

कुछ तो दामनकशाँ हूँ मैं उससे
और कुछ ज़िन्दगी लजाती है
दामनकशाँ - दामन बचाने वाला
 
एक घुड़की जो दी हवाओं ने
लौ चराग़ों की थरथराती है

चीथड़ा हो गई कोई इस्मत
इश्तिहारों के काम आती है
इस्मत – अस्मत / स्त्री के पतिव्रत के सन्दर्भ में

सर पे चढती है धूल पाँओं की
जब हवा हौसला बढाती है

इतनी राहें मुझे बुलाती हैं
जुस्तजू राह भूल जाती है
जुस्तजू – तलाश / खोज की इच्छा / quest

मेरी तदबीर आखिरश थक कर
पाँव तक़दीर के दबाती है
तदबीर – कोशिश / प्रयास

ज़िन्दगी तेरी क़त्लगाहों में
मौत अब लोरियाँ सुनाती है
क़त्लगाह – वह स्थान जहाँ वध किया जाता है / वध-स्थल

मयंक अवस्थी
रिजर्व बैंक वरिष्ठ अधिकारी, [सम्प्रति - कानपुर]
[08765213905]

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन 
2122 1212 22

SP2/2/14 दूध पिलाती मातु से, पति ने माँगा प्यार - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन



नमस्कार

वर्तमान आयोजन की समापन पोस्ट में आप सभी का सहृदय स्वागत है। जिन लोगों ने मञ्च की मर्यादा को बनाये रखते हुये रचनाधर्मियों का निरन्तर उत्साह-वर्धन किया उन सभी का विशेष आभार। 

दरअसल हमारे घर जब कोई पहलेपहल आता है तो हमारा फर्ज़ बनता है कि न सिर्फ़ हम उस का तहेदिल से ख़ैरमक़्दम करें बल्कि उस पहली भेंट में हम उस आगन्तुक यानि अपने गेस्ट को ही वरीयता दें, उस पर अपने आप को या अपनी पोजीशन को या अपनी विद्वत्ता [?] को न थोपें। यही बात मञ्च के सन्दर्भ में भी लागू होती है, परन्तु सच्चे गुणी लोग ही इस बात को जानते हैं। तो दोस्तो पिछली पोस्ट से इस समापन पोस्ट के बीच के गेप के दो कारण रहे – पहला तो यह कि हमारे धर्मेन्द्र भाई के घर कुछ समय पूर्व पुत्र-रत्न का आगमन हुआ है सो वह दोहों के लिये कम समय निकाल पाये ठीक वैसे ही जैसे साल भर न पढ़ने वाला विद्यार्थी एक्जाम आने पर एक दम से हड़बड़ा कर उठ बैठता है और पढ़ाई करने जुट जाता है, वैसे ही; और दूसरा पिछले दिनों मेरी व्यस्तता। ख़ैर अब हम दौनों समापन पोस्ट के साथ आप के दरबार में उपस्थित हैं। पहले दोहों को पढ़ते हैं :-

हर लो सारे पुण्य पर, यह वर दो भगवान
“बिटिया के मुख पे रहे, जीवन भर मुस्कान”

नयन, अधर से चल रहे, दृष्टि-शब्द के तीर
संयम थर-थर काँपता, भली करें रघुवीर

आँखों से आँखें लड़ीं, हुआ जिगर का खून
मन मूरख बन्दी बना, अजब प्रेम-कानून

कार्यालय में आ गई, जबसे गोरी एक
सज धज कर आने लगे, “सन-सत्तावन मेक”

याँ बादल-पर्वत भिड़े, वाँ पानी-चट्टान
शक्ति प्रदर्शन में गई, मजलूमों की जान

उथल-पुथल करता रहा, दुष्ट-कुकर्मी ताप
दोषी कहलाते रहे, पानी, हिम अरु भाप

विशेष दोहा:

दूध पिलाती मातु से, पति ने माँगा प्यार
गुस्से में बोली - "तनिक, संयम रख भरतार"


बिटिया वाले पहले दोहे से ताप वाले आख़िरी दोहे तक धर्मेन्द्र भाई जी ने कमाल किया है भाई कमाल। पर सन-सत्तावन मेक वाले दोहे को पढ़ कर लगता है कि अब इन्हें अपना तख़ल्लुस सज्जन से बदल कर कुछ और कर लेना चाहिये। धरम प्रा जी मुझे इस आयोजन में राजेन्द्र स्वर्णकार जी की कमी बहुत खलती है, आप ने थोड़ा सा ही सही पर उस कमी को पूरा करने का प्रयास किया इस 'सन सत्तावन मेक' के माध्यम से। राजेन्द्र भाई आप की शिकायत पूरी तरह से दूर नहीं कर पाया हूँ, पर उस रास्ते पर चल तो पड़ा हूँ। हम लोग एक बार फिर से मञ्च के पुराने दिनों को वापस ले आयेंगे, पर यह सब आप सभी के बग़ैर न हो सकेगा।

विशेष दोहा पर धर्मेन्द्र भाई का प्रयास सार्थक और सटीक है। काव्य में दृश्य उपस्थित हो, वह दृशय सहज ग्राह्य हो और मानकों का यथा-सम्भव अनुपालन करता हो; तब उसे सटीक के नज़दीक माना जाता है।  मुझे धर्मेन्द्र जी का यह विशेष दोहा सटीक के काफ़ी क़रीब प्रतीत होता है। 'दूध पिलाती मातु' - वात्सल्य रस, 'से पति ने माँगा प्यार' - शृंगार रस और 'गुस्से से बोली, तनिक संयम रख भरतार' - रौद्र रस। सरल शब्दों में कहें तो कवि ने एक ऐसा आसान दृश्य हमारे सम्मुख रख दिया है जो हम लोगों की रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी / स्मृति के हिस्से जैसा है और आसानी से हम उसे ग्रहण भी कर पा रहे हैं। विद्वतजन उपरोक्त तीन बातों को ध्यान में रखते हुये अवश्य ही इस विलक्षण दोहे की तह में जा कर मीमांसा करें, पर हाँ छिद्रान्वेषण नहीं..............चूँकि छिद्रान्वेषणों के चलते ही मञ्च के कई पुराने साथी किनारा कर गये हैं। वह ज्ञान जो हम से हमारा आनन्द छीन ले - हमारे किस काम का?? मञ्च ने अब तक किसी को न तो ब्लॉक किया है और न ही कमेण्ट्स को मोडरेट किया है, आशा करता हूँ आगे भी यह सब करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

भाई सौरभ पाण्डेय जी के सुझाव के अनुसार हम अगली पोस्ट में आलोचना और चन्द्र बिन्दु पर चर्चा करेंगे। तब तक आप धरम प्रा जी के दोहों का आनन्द लीजिये और अपने सुविचारों को व्यक्त कीजिये।

प्रणाम