कबीर के दोहे

तिनका कबहुँ न निंदिये, पाँव तले भलि होय ।
कबहूँ उड़ आँखन पड़े, पीर घनेरी होय ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा नामरी, कह गए दास कबीर ॥

रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥

उठा बगूला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरि खड़े जब माँगे तब देय॥

1 टिप्पणी:

  1. उट्ठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
    तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

    इस दोहे में बगुला की जगह बगूला रहे तो अर्थ निखर कर अ रहा है, भाईजी.
    उठा बगूला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास.. .

    सादर

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणी करने के लिए 3 विकल्प हैं.
1. गूगल खाते के साथ - इसके लिए आप को इस विकल्प को चुनने के बाद अपने लॉग इन आय डी पास वर्ड के साथ लॉग इन कर के टिप्पणी करने पर टिप्पणी के साथ आप का नाम और फोटो भी दिखाई पड़ेगा.
2. अनाम (एनोनिमस) - इस विकल्प का चयन करने पर आप की टिप्पणी बिना नाम और फोटो के साथ प्रकाशित हो जायेगी. आप चाहें तो टिप्पणी के अन्त में अपना नाम लिख सकते हैं.
3. नाम / URL - इस विकल्प के चयन करने पर आप से आप का नाम पूछा जायेगा. आप अपना नाम लिख दें (URL अनिवार्य नहीं है) उस के बाद टिप्पणी लिख कर पोस्ट (प्रकाशित) कर दें. आपका लिखा हुआ आपके नाम के साथ दिखाई पड़ेगा.

विविध भारतीय भाषाओं / बोलियों की विभिन्न विधाओं की सेवा के लिए हो रहे इस उपक्रम में आपका सहयोग वांछित है. सादर.