ग़ज़ल - शाम ए हिज्र, पुरवाई, और फिर ये तन्हाई - रेखा किंगर 'रौशनी'

 

शाम ए हिज्र,  पुरवाईऔर फिर ये तन्हाई 

जान ओ दिल पे बन आई और फिर ये तन्हाई

 

वक़्त ने ली अँगड़ाई, और फिर ये तन्हाई

हो न जाये रुस्वाई, और फिर ये तन्हाई

 

दरबदर फिराती है तेरी जुस्तजू तौबा

साथ दे न बीनाई और फिर ये तन्हाई

 

दिल तड़पने लगता है, दर्द बढ़ने लगता है,

तिश्नगी कहाँ लाई और फिर ये तन्हाई

 

दर्द ए दिल के घेरे में, इस जहाँ के मेले में,

कौन तेरा सौदाई? और फिर ये तन्हाई

 

कैसी तीरगी छाई "रौशनी" के धोखे में

ज़िन्दगी तमाशाई और फिर ये तन्हाई

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