कविता - भोर - अनिता सुरभि

 


संवेदनाओं के पोरों से

अंधेरे को पीछे धकेल

आँखें मलती किरणों को 

अपने अन्तर्तम में सहेज

सुनहरा दिन

आसमान की साँकल खोल

धीरे-धीरे धरा पर

उतरता है, तो

पूरा आँगन

सुनहरी रौशनी से

भर जाता है,

धूल के कण

इधर-उधर भागने

लगते हैं।

कोने में लटके

मकड़ी के जालों में

खलबली सी मच जाती है।

 

पेड़ों पर सोए पक्षी

अपने पंखों से सुस्ती

झाड़ कर फड़फड़ाने लगते हैं।

अलसाई झील

अठखेलियाँ करती

मछलियों को देख

तरोताज़ा हो जाती है।

 

जैसे

प्रकृति धनक के

सात रंगों से

धरती के पोर-पोर पर लिख रही हो

भोर हो गई…


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