नवगीत - चुप रहे तुम - सीमा अग्रवाल

 

 

 चुप रहे तुम

वक़्त था जब बोलने का

अब तुम्हारी

चीख का हम क्या करेंगे

 

कल तुम्हारे स्वार्थ सारे

सध रहे थे चुप्पियों से

थे ज़रूरी प्रश्न जितने

लग रहे थे चुटकियों से

आज जब तुम स्वयं ही

बन प्रश्न नत मस्तक खड़े हो

उत्तरों की देह दागी

जा चुकी है बरछियों से

 

चाहते हो लौट आएँ

फिर वही दिन पर बताओ

आज के संदर्भ में अब

उस गयी तारीख़ का हम क्या करेंगे

 

झूठ मंचों पर सजे थे

सत्य केवल थे उपेक्षित

दोष मढ़ कर हर सही पर

ग़लत सारे थे समर्थित

तब अपेक्षित था नही

निर्लिप्त रहनापर रहे तुम

कर लिया था स्यात्  तुमने

मौन रह ख़ुद को सुरक्षित

 

सुन्न कर सम्वेदनाएँ

हो गए अभ्यस्त कड़वे घूँट के अब

हम क़सम से

फिर रसीली ईख का हम क्या करेंगे

 

जान कर अनभिज्ञ रहना

शब्द हों पर कुछ न कहना

आँख हो कर भी स्वयं के

लिए ख़ुद अंधत्व गहना

दोष है यहदोष को भी

दोष कहने से बचे यदि

है ज़रूरी तो नही प्रत्यक्ष

हिस्सेदार रहना

 

यह घड़ी परिणाम की है

व्यर्थ होगा हर जतन ही

संभलने या बदलने का

अब सयानी सीख का हम क्या करेंगे 

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