कविता - चकोर - रेखा बब्बल

 


क्यों माँ

क्या बातें कर रहे थे

पापा,चाचा और दादी ?

क्या जन्म लेने से पहले ही

कर रहे थे,

मुझे मार डालने की तैयारी ?

 

अँहं,चौंको मत माँ

कल रात

जब दीवार से कान लगाए

तुम सुन रही थी उनकी बात;

तब

मैं भी तो थी तुम्हारे साथ !

 

क्या जो वो चाहते हैं

तुम हो जाने दोगी?

गोद में आने से पहले ही

अपनी चकोर को

खो जाने दोगी ?

 

ना,आंसू मत बहाओ माँ

क्योंकि

इन आंसुओं को पोंछोगी

तभी तो

मुझे बचा पाने की सोचोगी !

 

डबडबायी आँखों में

तैर गयी

जीवन की मुस्कान,

अब चाहे जो हो

जान पर खेलकर भी

बचाऊँगी मैं

अपनी चकोर की जान !

 

रिश्ते ही तो टूटेंगे

अपने ही तो छूटेंगे,

पर तुझसे ज़्यादा

कौन होगा मेरा अपना ;

तु तो है

मेरी ही साँसों से उपजी

मेरा सुंदर सा सपना  !!

 

तेरी ख़ातिर तो

सबकुछ सह लूँगी

ज़रूरत पड़ी तो

उल्टी गंगा में भी बह लूँगी  !

 

लेकर चलूँगी

तुझे उस ओर

जहां होती हो

स्वछंद किलकारी की

एक नई भोर  ;

 

तू देखना

तेरी माँ की ये कोशिश

लाखों माँओं को

पकड़ाएगी

हिम्मत की एक अटूट डोर ;

फिर जन्म लेने से पहले

कभी किसी कोख में

मरने न पाएगी

अब कोई चकोर  !!

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