फोटो एलबम के पन्ने पलटते-पलटते एक पुरानी, धुँधली सी तस्वीर उभर आई। देखते ही आवाज़ आई, “नाना जी, ये घर हमारा ही है न? बँटवारे से पहले वाला?”
नाना जी, जो
अब तक चुपचाप कुर्सी पर बैठे थे, धीरे-धीरे उठे और तस्वीर को ग़ौर से देखने
लगे। उनकी उँगलियाँ तस्वीर की सतह पर ऐसे फिसलीं, मानो दीवारों को छूने
की कोशिश कर रही हों।
“हाँ बेटा, हमारा
ही था। संगमरमर की रेलिंग,
आँगन में शीशम का घना पेड़, गुलाब की क्यारियाँ, लाल
ईंट की दीवारें… एक ज़माने में ये सब हमारा था।”
आवाज़ में उत्सुकता थी, “तो
सबकुछ वहाँ छोड़कर आना कितना मुश्किल रहा होगा, है न?”
नाना जी हल्की मुस्कान के
साथ बोले, “हाँ बेटा। घर छूट गया,
मिट्टी छूट गई, लोग छूट गए… पर यादें कभी
नहीं छूटीं। यादें ही तो हैं, जो अब तक साथ हैं।”
कुछ देर तक सन्नाटा रहा। फिर
वही आवाज़ गूँजी,
“तो कभी वापस जाने का मन नहीं किया? एक
बार देखने का भी नहीं?”
नाना जी की आँखें एक पल को
चमकीं, लेकिन फिर बुझ गईं। उन्होंने गहरी साँस ली। “मन? मन तो करता है कि
उड़कर वहाँ पहुँच जाऊँ। लेकिन जो रास्ते घर तक जाते थे, अब
वही अजनबी बनकर खड़े होंगे। लौट भी जाऊँ तो क्या पहचान पाऊँगा उस देहरी को, जिसने
मुझे कब का भुला दिया होगा?”
हाथ में पकड़ी तस्वीर पर
उँगलियाँ चलीं,
फिर हिचकते हुए सवाल आया, “पर नाना जी, आपने
तो यहाँ भी इतना आलीशान बंगला बना लिया, सबकुछ है हमारे पास, फिर
वहाँ ऐसा क्या था जो यहाँ नहीं?”
नाना जी की उँगलियाँ तस्वीर
के कोनों को सहलाने लगीं। आँखें किसी अदृश्य स्मृति में खो गईं। एक पल ठहरे, फिर
धीमे से बोले,
“बस,
वहाँ मैं पूरा था!”
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