बदन की आग दिखाई गई थी साज़िश से - मयंक अवस्थी

 


बदन की आग दिखाई गई थी साज़िश से ।

बदन में आग लगा दी गई थी साज़िश से ॥

 

हम उसको धर्म की आँधी समझ रहे थे मगर ।

वो  धूल आँख में झोंकी  गई थी साज़िश से ॥

 

मिलेगी राह तो मुर्दे भी उठ के दौड़ेंगे ।

वो कब्र इसलिए खोदी गई थी साज़िश से ॥

 

उस एक बेल ने पानी पे कर लिया कब्ज़ा ।

जो बेल ताल में डाली गई थी साज़िश से ॥

 

नदी को पार कराने का आसरा दे कर ।

भँवर में नाव भी मोड़ी गई थी साज़िश से ॥

 

मचल-मचल के चराग़ों से जा लिपटती थी ।

हवा दयार में भेजी गई थी साज़िश से ॥

 

चरस जो दूर तलक लहलहा रही है यहाँ ।

ये ख़ुद  नहीं उगी,  बोई गई थी साज़िश से ॥

 

हमारे ख़्वाब तो बेचे ही ताजिरों ने मगर ।

हमारी नींद भी बेची गई थी साज़िश से ॥

 

मयंक अवस्थी

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