अंतिम आलिंगन के आगोश में प्रवेश - गणेश कनाटे


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अंतिम आलिंगन के आगोश में प्रवेश
मेरे प्राणतत्त्व की थकान
अब थक चुकी है, पूर्णतः

मुश्किल है अब
पलकों को उलटकर देखना
सपनों की आंखों में
जो बेहद डरी डरी है हकीकत देखकर

मुश्किल है अब
कानों में प्राण रखना और सुनना
वो आदिम चीखें, चीत्कार
जो उपस्थित है अब भी हवाओं में

मुश्किल है अब
देखना प्राणवान उंगलियों को
जिनसे झरते हैं रंग सतरंगी
और बनाते हैं एक चित्र -
आदम और हव्वा की वेदना का

मुश्किल है अब
साक्षीभाव से देखना
अपने ही शुक्राणुओं को
जीवन का बोझ ढोते हुए...
बड़ा ही मुश्किल है....

मैं और मेरा प्राणतत्त्व अब खड़े हैं थकान के इस अंतिम छोर पर
तुम भी तो थक चुकी हो इस सफर में और खड़ी हो यहां मेरे पास

चल, अब हम छोड़ देते है सारी फिक्र
- फिक्र इस दुनिया के वीभत्स होने की
- फिक्र इस दुनिया के विषम होने की
- फिक्र ये दुनिया बदलेगी या नहीं इसकी

चल ओढ़ लेते हैं एक रजाई
और करते हैं प्रवेश
हमारे अंतिम आलिंगन के आगोश में!


गणेश कनाटे

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