कवितायें - पूजा भाटिया

पुरुष मन
  

दशरथ की पीर का अनुमान
किसे न था ?
कौशल्या के मन का भान
किसे न था?
राम के बनवास का त्रास
किसे न दिखा?
सीता की वेदना
किसने न महसूस की ?
भरत का घाव
किसने न भोगा ?
हनुमान का भक्ति भाव
किस से अनछुआ रहा?
उर्मिला का विरह क्रंदन
किस से छुपा रहा?
यहाँ तक की चंद विराट ह्रदय लोगो ने
मंथरा और कैकई को भी
समझा या समझने का प्रयत्न किया
सबने सब महसूस किया
अपनी-अपनी सीमा तक
क्या अनछुआ रह गया रामायण में?
क्या किसी ने लक्ष्मण के अथाह मन को समझा?
क्यों अपना संसार मोह छोड़
वो चल दिया राम संग?
उर्मिला को विरह विछोह उपहार में दे?
क्या पाना ध्येय था उसका?
क्या भान था उसे राम के भगवन होने का?
क्या चौदह सालों में एक पल भी
विरह न सहा उसने?
क्यूँ नकार दिया हमने पुरुष में
छिपे स्त्री मन को?
जो तदपा भी होगा कभी
अपनी उर्मी की याद में?
क्यों अनछुआ,अनकहा रह गया
लक्ष्मण का मन?
क्या इस लिए की लक्ष्मण पुरुष हैं?
क्या पुरुष नहीं होते भावुक?
क्या उन्हें नहीं सताती विरह-वेदना?
सोचिये.....
सोचिये..........क्यों की ....
प्रश्न सोचनीय तो है..



शब्दों के शृंगार का उत्सव

शब्द ……
आज कल साथ नहीं देते मेरा
नहीं उतरते......
लाख चाहने पर भी
कागज़ पर
और कभी-कभी.……
यूं ही
एक ख़याल के साथ
लगन कर
गुंथ जाते हैं
माला की तरह
मैं उत्सव मनाती हूँ
शब्दों के श्रृंगार का
और …….
लोग कहते हैं कविता हो गई 

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