शुभ-दीपावली |
सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
एवं
प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएँ
आज की दिवाली स्पेशल पोस्ट में मंच के सनेहियों के लिये एक विशेष तोहफ़ा
है – दिवाली स्पेशल पोस्ट प्रस्तुत कर रहे हैं साहित्यानुरागी भाई श्री मयंक अवस्थी
जी। पहले रचनाधर्मियों के दोहे और फिर उन पर मयंक जी की विशिष्ट टिप्पणियाँ, तो आइये आनन्द लेते हैं इस दिवाली पोस्ट का
मयंक अवस्थी |
जैसे इस फोटो में मयंक जी किसी
दृश्य को क़ैद करते हुये दिखाई पड़ रहे हैं, बस यही नज़रिया अपनाते हैं आप किसी रचना को पढ़ते वक़्त। उस रचना [कविता-गीत-छन्द और ग़ज़ल भी] की तमाम अच्छाइयों को पाठकों के सामने लाने का शौक़ है
आप को। तो आइये शुरुआत करते हैं इस दिवाली पोस्ट की:-
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दिवाली स्पेशल पोस्ट - मयंक अवस्थी
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नमस्कार
और आप सभी को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ। मुझे दोहा कहना बेहद
मुश्किल कार्य लगता है लेकिन जिस सहजता और अधिकार से यहाँ दीपावली के
उपलक्ष्य में कहे गये दोहों में गागर में सागर भर दिया गया है वह चम्त्कृत करने
वाला है –मैने सिर्फ पाठक
की हैसियत से इन दोहों को पढ़ा और जो पाया, सादर निवेदन कर रहा हूँ --
राजेन्द्र स्वर्णकार - राजस्थानी
दीवाली निरीह-निराश्रित-निर्धन के नज़रिये से
दोरा-स्सोरा काटल्यां , म्है आडा दिन
नाथ !
दीयाळी तो आवतां… होवै बाथमबाथ !!
भावार्थ :-
देव ! आम दिन तो हम जैसे-तैसे काट लेते हैं ,
(लेकिन) दीवाली तो आते ही गुत्थमगुथ हो जाती है ।
(साफ़-सफ़ाई तथा अन्य परिश्रम और व्यय का अतिरिक्त बोझ बढ़ने के संदर्भ
में)
हे लिछमी मा ! स्यात तूं बैवै आंख्यां मींच !
भगतू रह्’यो अडीकतो , सेठ लेयग्यो खींच
!!
भावार्थ :-
लक्ष्मी मैया ! आप शायद नयन मूंदे हुए ही विचरण करती हैं ।
(तभी तो) निर्धन भक्त तुम्हारी प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं ,
(और) धनवान लोग तुम्हें बलात् खींच कर अपने घर ले जाते हैं ।
दीयाळी रा दिवटियां ! थां’री के औकात ?
धुख-धुख’ गाळां जूण म्है ,सिळग-सिळग’
दिन-रात !!
भावार्थ :-
दीवाली के दीपकों ! (हमारे समक्ष प्रतिस्पर्धा की) तुम्हारी क्या
सामर्थ्य है ?
(तुम एक रात जल कर दर्प करते हो…)
हम पूरा जीवन ही पल-पल जलते-सुलगते-धुखते हुए गला-गंवा-बिता देते हैं
।
राजेन्द्र
जी दोहों के भी स्वर्णकार हैं –जिसे मिडास टच कहते हैं वो
उनके कलम में है – राजस्थानी भाषा
चूँकि दग्ध वर्णो का अधिक इस्तेमाल करती है इसलिये
इसमें यथार्थ का समावेश जैसा कि उन्होंने पहले दोहे दोरा-स्सोरा.....
मे किया है और जैसी बेबसी दूसरे दोहे में पिरोई है तथा जैसा फल्सफा अंतिम दोहे में कहा है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम
होगी......
सौरभ पाण्डेय - भोजपुरी
जम-दीया आ सूप से भइल दलिद्दर दूर ।
पुलक गइल घर-देहरी, जगर-मगर भरपूर ॥
जम-दीया - यम के नाम का दीप ; आ - और ;
सूप - बाँस की फट्टियों से निर्मित अनाज फटकने हेतु प्रयुक्त ;भइल - हुआ ; दलिद्दर - दरिद्रता ; पुलक गइल - हर्षित हुआ ;
तुलसी माई साधि दऽ, पितरन के मरजाद।
नेह-छोह के सीत में, कोठ रहे आबाद ॥
माई - माता ; साधि दऽ - साध दो, व्यवस्थित
कर दो ; पितरन के - पितरों का ; मरजाद
- मर्यादा, सीमायें, (यहाँ ’अपेक्षाओं’ को साधने के संदर्भ में लिया गया है) ;
नेह-छोह - स्नेह-दुलार ; सीत - ओस ; कोठ - बाँस और वंश का उद्गम
कूहा तान दुआर पर, मावस
ओदे भोर ।
मनल दिवाली राति भर, दियरी पोछसु लोर ॥
कूहा - कुहासा ; तान - तानना ; दुआर - द्वार, घर के सामने, बाहर
का ; मावस - अमावस ; ओदना - नम करना,
तर करना, भिगोना ; दियरी
- मिट्ट्छोटा दीया, पोछसु - पोछती है ; लोर - आँसू
सौरभ
जी को साधुवाद – इन तीन दोहों ने जो चित्र खींचे हैं वो भोजपुरी ज़बान ही नहीं परम्परा और परिवेश का भी समर्थ प्रतिनिधित्व करते हैं—ये मात्र दोहे भर नहीं बल्कि एक
क्षेत्रीय परिवेश के सांस्कृतिक प्रतिनिधि भी हैं –अंतिम
दोहे में पर्याप्त वेदना भी है –इस विधा में
सम्प्रेषणीयता की जो सामर्थ्य है उसका एक सशक्त उदाहरण
सौरभ जी के दोहे हैं
महेंद्र वर्मा - छत्तीसगढ़ी
देवारी के रात मा, दिया करै उजियार,
करिया मुंह ला तोप के, भागत हे
अंधियार।
अभिप्राय- दीवाली की रात्रि में दीपक प्रकाश फैला रहे हैं और अंधेरा
अपने
काले चेहरे को छिपा कर भाग रहा है।
अंगना परछी मा दिया, बरगे ओरी-ओर,
रिगबिग रिगबिग करत हे, गांव गली अउ
खोर।
अभिप्राय- आंगन और बरामदे में पंक्तिबद्ध दीपक जल गए हैं। दरवाजे और
गलियों सहित पूरा गांव झिलमिल-झिलमिल कर रहा है।
नोनी मांगे छुरछुरी, बाबू नौ राकेट,
जेब टमड़ पापा कहय, अब्बड़ बाढ़े रेट।
अभिप्राय- बेटी फुलझड़ी मांग रही है और बेटा राकेट। पिता अपनी जेब
टटोलते
हुए कह रहे हैं कि पटाखों के दाम बहुत बढ़ गए हैं।
महेन्द्र
जी ने छत्तीसगढी जो शब्दचित्र भेजे हैं इनमें उस क्षेत्र विशेष की वर्तमान प्रगति का पसमंज़र में आलेख भी छुपा है। यह सच है कि अपने अतीत की तुलना में छत्तीसगढ में अँधियारा भाग रहा है – दीपक झिलमिल करने लगे हैं भले ही
देदीप्यमान अभी न हुये हों; और वहाँ की नई पीढी उत्सव की उमंग के आगोश में है।
धर्मेन्द्र कुमार सज्जन - अवधी
कुटिया कै दियवा कहै, लौ बा सबै
समान
महलन कै दियवन करैं, काहे के अभिमान
तन मन जरिगा तेल के, आवा सबके काम
दीपक बाती के भवा, सगरे जग में नाम
तन जरिके काजर भवा, मन जरि भवा प्रकाश
तेलवा जइसन हे प्रभो, हमहूँ होइत
काश!
धर्मेन्द्र साहब का मैं
पुराना प्रशंसक हूँ –आपने दीपक , बाती तेल को इनकी स्वीकार्य सरहदों के पार के अर्थ इतनी खूबसूरती से पहनाये हैं
कि इनके कलम को नमन करने का मन हो रहा है। महलों के
दीपकों से कुटिया के दीपक साम्यवादी स्वर में बात कर
रहे हैं; और परमपिता की सत्ता में सभी जीवात्मायें बराबर हैं इसका उद्घोष कर रहे हैं। बहुत खूब !! अश्जार की
जड़ों की भाँति जीवन के मूल स्रोत पसमंज़र में ही रहते
हैं इसलिये जला कौन और नाम किसका हुआ यह बिम्ब भी मोहक
आया है – और तीसरे दोहे ने वाकई कबीर की याद ज़िन्दा कर दी है धर्मेन्द्र जी आपको शत शत नमन।
ऋता शेखर मधु
आँधी कुछ ऐसी चली बुझने लगे चिराग
प्रभु कुछ तो ऐसा करो,जगमग हों
अनुराग
सतरंगी तारे उड़े, चमक गया आकाश
काली कातिक रात में, फैले दीप- प्रकाश
दीप-अवलि की ज्योति से, तम का हुआ
विनाश
अंतर्मन उद्दीप्त हो, फैले प्रेम-
प्रकाश
ऋता जी
के दोहे दोहा कहने की उनकी उत्कट साहित्यिक अभिलाषा और इस अभिलाषा के सबब उपजे साहित्यिक विभव की बानगी हैं उन्होंने बिम्बों को कुशलतापूर्वक नहीं तो सफलता पूर्वक सन्दर्भों से बाँधा है इसमें कोई शक नहीं –उनको बधाई !!!
श्याम गुप्त - ब्रजभाषा
लक्ष्मी गणपति पूजिये, पावन पर्व अनूप,
बाढ़हि विद्या बुद्धि धन, मानुष हित
अनुरूप |
जरिवौ सो जरिवौ जरे, जारै जग अंधियार,
जड जंगम जग जगि उठे, होय जगत उजियार |
हिया अँधेरो मिटि रहै, जागै
अंतर जोत ,
हिलि-मिलि दीपक बारिए, सब जग होय
उदोत |
श्याम
गुप्त जी साहित्य के संघर्षरत योद्धा हैं और यहाँ पर इस आयोजन के गौरव में
उन्होंने खासी अभिवृद्धि की है -- "जड जंगम जग जगि उठे, होय जगत उजियार" और "हिया अंधेरौ मिटि रहै, जागै अंतर जोत", जैसी पंक्तियों का आध्यात्मिक
विभव और साहित्यिक सौन्दर्य अति श्रेष्ठ है – उनको हार्दिक
शुभकामनायें।
संजीव वर्मा 'सलिल'
मन देहरी ने वर लिये, जगमग
दोहा-दीप.
तन ड्योढ़ी पर धर दिये, गुपचुप आँगन
लीप..
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में
मौत.
रपट न थाने में हुई, ज्योति हुई क्यों फौत??
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की
आस..
दीप जला, जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
दीप बुझा, चुप फेंकना, कर्म
क्रूर-अक्रूर..
आचार्य संजीव जी का आभार
–जैसा यशस्वी नाम है उनका वैसा ही सौरभ बिखेरने वाला स्रजन भी है उनका – पहला दोहा साहित्यकार की
दीर्घकालीन साहित्यिक तपस्या के सबब उपजा है मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप.—दूसरा दोहा सामाजिक विभीषिका का स्वर मुखर करता
है – जो भी कहकशायें हैं ये आफताब के पसीने से जन्मी हैं –इसी के जैसा विचार –कि कुटिया में निर्मिति और
राजमहल में मौत !!! –बहुत दूर की
तख्य्युल की परवाज है ये – तीसरा दोहा शुद्ध अध्यात्म है और
चौथा उत्सव मना रहा है आचार्य सलिल जी दीपावली की आपको
असीमित शुभकामनायें –
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मन का अंधियारा मिटे , चहुंदिशि फैले
प्यार .
दीप-पर्व हो नित्य ही , कुछ ऐसा कर
यार .
सुख की फुलझड़ियाँ जलें ,सब में भरें
उजास .
पीड़ा और अभाव का , कभी न हो अहसास .
गली गली पसरे हुए ,रावण के ही पाँव .
दीप पर्व पर राम सा ,बने समूचा गाँव
.
भाई
त्रिलोक सिंह ठुकरेला जी ने बहुत सहज भाव से प्रकाश बिन्दुओं का स्रजन किया है
उत्सव का मुंतज़िर साहियकार का मन अच्छी पंक्तियाँ कह गया और गली गली पसरे हुए ,रावण के ही पाँव .एक सर्थक आह्वाहन भी है।
आशा सक्सेना
भले हाथ हैं तंग पर, मन में है त्यौहार
दीप मालिकाएं सजीं, ठौर-ठौर घर-द्वार
महँगाई के वार से, सजल सभी के नैन
स्वागत है 'श्री' आप का, यद्यपि मन बेचैन
आशा
दीदी ने सिद्ध किया है कि साहित्य समाज का दर्पण है – जो ववर्तमान का ज्वलंत विषय है “ मँहगाई” उसकी जकड़ से त्यौहार मनाने का उत्साह और त्यौहार मनाने की विवशता दोनो ही निकलना चाहते हैं – यहाँ साहित्य समाज का दर्पण है दोनो दोहे
सुन्दर हैं – आशा दीदी को सादर धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिये।
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
उजलापन यह कह रहा,मन में भर आलोक
खुशियाँ बिखरेंगी सतत,जगमग होगा लोक.
दीपक नगमे गा रहे, मस्ती रहे बिखेर
सबके हिस्से है खुशी, हो सकती है
देर,
आता है हर साल ही, दीपों का त्यौहार
दीपों से ले प्रेरणा, मान कभी मत
हार,
धीरेन्द्र
भाई के दोहों में शुभकामना सन्देश , आशा ,और आशा पर विश्वास निहित है – यह पर्व तमसोमा ज्योतिर्गमय और अन्धकार पर प्रकाश की विजय का त्यौहार है –उन्होंने इस धारणा को सम्बल दिया है –उनका अभिवादन
सत्यनारायण सिंह - अवधी
हर घर दियना से सजा, तोरन सजा दुवार।
खुशियां बांटै आय गा, दीवाली
त्यौहार।।
जग सोहत है दीप से, तरइन से आकास।
मुदित होत मन मीत से, पाय दियां
परकास।।
दियां जाग, बाती जगी, जग गा सोवा भाग।
सजना छबि नयना बसी, मन जागा अनुराग।।
सत्यनारायण जी दीपोत्सव को प्रेमोत्सव के रूप में देखते हैं
पहले दोहे में दीवाली के आगाज़ के साथ शेष दो दोहों में
उन्होंने ज्योति को प्रेम शिखा के रूप में देखा है और
दोहो की परम्परा से प्राप्त भाषा को स्वाकृति दी है –आपका अभिनन्दन सत्यनाराण जी।
अरुण कुमार निगम - छत्तीसगढ़ी
अँधियारी हारय सदा , राज करय उजियार
देवारी मा तयँ दिया, मया-पिरित के
बार ||
नान नान नोनी मनन, तरि नरि नाना गायँ
सुआ-गीत मा नाच के, सबके मन हरसायँ ||
जुगुर-बुगुर दियना जरिस, सुटुर-सुटुर दिन रेंग
जग्गू घर-मा फड़ जमिस, आज जुआ के
नेंग ||
(देवारी=दीवाली, तयँ=तुम, पिरित=प्रीत,
नान नान=छोटी छोटी, नोनी=लड़कियाँ,
“तरि नरि नाना”- छत्तीसगढ़ी के
पारम्परिक सुआ गीत की प्रमुख पंक्तियाँ, जुगुर-बुगुर=जगमग
जगमग, दियना=दिया / दीपक, जरिस=जले,
सुटुर-सुटुर=जाने की एक अदा, दिन रेंग=चल दिए,
फड़ जमिस=जुआ खेलने के लिए बैठक लगना, नेंग=रिवाज)
अरुण
निगम साहब का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता है – दीवाली का
अध्यात्म, बालोत्साह, और
द्यूतक्रीड़ा –यह तीन शब्दचित्र छत्तीसगढ को शायद सैकडों सरकारी विज्ञापनो से अधिक सामर्थ्य के साथ दिखा पा रहे हैं – शायद छत्तीसगढ की प्रगति इसे राज्य का दर्ज़ा
मिलने के बाद संक्रमण काल में है इसलिये पाश्चात्य
संस्कृति का हमला इसके साहित्यिक उद्भव पर अभी आघात नहीं
कर पाया है – बंगला , तमिल मलयालम
गुजराती जैसे सम्रद्ध क्षेत्रीय साहित्य में भी यह
शक्ति नहीं दिखाई देती –जितनी ताकत छत्तीसगढ के दोहो मे दिखाई दी है – इस बोली का भविष्य निश्चित
रूप से उज्ज्वल है – इस राज्य को
और इस बोली पर राज्य करने वाले अरुण जी को नमन।
उमाशंकर मिश्रा
धानों की ये बालियाँ, प्रगट करें
उदगार
बाली पक सोना भई,जगमग है त्यौहार
पर्व अमीरों का बने, बम बारुदी शोर
दर्प हवेली का रहा कुटिया को झकझोर
आँगन आँगन लक्ष्मी निज पग देय सजाय
नन्हा दीपक सूर्य सी आभा दे बिखराय
उमाशंकर
जी आपने मोहक दोहे कहे इनकी भावभूमि अन्य दोहों से अलग और आकर्षक है साहित्यकार ने दीवाली के प्राकृतिक , भावनात्मक
और वसुधैव कुटुम्बकम रूपों के चित्र खींचे है – इस चेतना और इस भावना और इस अभिव्यक्ति का हार्दिक
स्वागत है – दोहों पर आपको दाद !!
आप सभी का सेवक
नवीन सी. चतुर्वेदी
ब्रजभाषा - मथुरा देहात [प्रौपर मथुरा नहीं]
ल्हौरी लीपै चौंतरा, बीच कि [की] चौक पुरात
बड़ी बहू सँग डोकरी, हलुआ-खीर बनात
ल्हौरी - छोटी
डोकरी - यहाँ बड़ी उम्र वाली सास के लिये प्रयुक्त किया गया है।
घर-दर्बज्ज्न पे रखौ, चामर-फूल
बिखेर
सब घर लछमी जाउतें, कम सूँ कम इक बेर
दर्बज्जन पे - दरवाजों पर
चामर फूल - अक्षत पूष्प [सुख-शांति प्रतीक]
जाउतें - जाती हैं
इक बेर - एक बार / एक समय
पाँइन मोजा-पायजो, द्वै-फुट लम्बी लाज
फटफट पे धौरन चली, दीवारी के काज
बचपन [70s-80s] की स्मृतियों का दृश्य है, अब शायद ऐसा न होता हो। मथुरा के बाज़ारों में देहात से काफ़ी लोग दिवाली
ख़रीद के लिये आते थे, सायकिल, मोटर सायकिल [फटफट] पर और कभी कभी लूना टाइप मोपेड्स पर भी। पीछे उन की ज़नानी
होती थीं, माँ=बहन-बीबी कोई भी। ख़ास बात ये कि वे स्त्रियाँ
पैरों में मोज़े पहनती थीं, उन मोज़ों पर पायजेब और फिर [ज़ियादातर मर्दानी] सेंडल्स। लाज यानि घूँघट गज भर का होना अनिवार्य था। उसी
दृश्य को बाँधने का प्रयत्न किया है। गाँव के गबरू जवान को 'धौरे'
कहने का रिवाज़ था तो हम उन की जोरुओं को 'धौरन'
कहते थे।
........
और अब बात मथुरा / ब्रज के उस किरदार की कर ली जाय जिसने कच्चे
धागों से इस एक छोटे से साहित्यिक संसार को बाँध रखा है
– यानि नवीन भाई की बात !! पहले दोहे में छोटी बहू चौंतरा
[चबूतरा] लीप रही है, मँझली चौक
पुरा रही है और बड़ी सास के साथ खाना बना रही है, एक अच्छा
पारिवारिक चित्र। दूसरे दोहे में - पुरुष-पुरातन की वधू [माता] लक्ष्मी मनुष्य मात्र की अभीप्सा और प्रतीक्षा दोनो ही हैं इसलिये यही कामना कि हर घर एक बार ज़रूर जाती है – में अभिव्यक्त हुई है। यह भावना
सदा जीवित रहे। अंतिम दोहे पर साधुवाद जो कि व्याख्या
भी चाहेगा कि यह चित्र कहाँ का है; जहाँ स्त्रियाँ
समस्त परम्पराओं / वर्जनाओं का भार वहन करते हुये भी जीवन के दैनंदिक कार्यों में
शामिल हैं।
नवीन
भाई बड़े वृक्ष की जड़े गहरी होती हैं अपनी मिट्टी में बहुत अन्दर तक जाने वाली – आप मुम्बई में रहते हैं
और आपमें इतना
सारा 'गाँव' बसा हुआ है। दोहे कलम से नहीं, दिल से निकले हैं। यह वृक्ष
जिसकी जड़ें
मुम्बई में रहते हुये मथुरा तक गईं है,
साहित्य को अपने सौरभ से भर दे, यही कामना है। आपकी
भूमिका साहित्यकार भर की नहीं है, बल्कि आपकी
भूमिका साहित्य के उत्प्रेरक , निर्देशक,
समीक्षक और व्यवस्थापक / प्रबन्धक सभी की है क्योंकि आपकी सिरिश्त में ये सारे
अनासिर हैं – अब
देखना है कि आप किस मुकाम तक मेरे शब्दों को ले जाते
हैं।
आप सभी का शत शत अभिनन्दन – मयंक
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ठाले-बैठे
मंच को दिवाली के दोहों से सजाने के लिये आप सभी का पुन: पुन: आभार। इस पोस्ट के
लिये समय बहुत कम मिला, पर उतने समय में भी जो कुछ प्रस्तुत हो सका, पर्याप्त से अधिक है। दोहों को अपनी मूल्यवान टिप्पणियों से नवाज़ने के
लिये साहित्यानुरागी भाई श्री मयंक अवस्थी जी का सहृदय आभार। भाई जी आप की
टिप्पणियों ने हम सभी में अगले आयोजनों के लिये असीम ऊर्जा सृजित कर दी है।
सभी
पाठकों से विशेष और विनम्र अनुरोध है कि 'शुद्ध-साहित्य'
के 'क्षरण-काल' में
छंदों को कलेज़े से लगाने वाले तथा अपने घर की भाषा / बोलियों को जीवित रखने वाले
रचनाधर्मियों का उत्साह वर्धन अवश्य करें। ये बात अरुण कुमार निगम जी के लिये नहीं
चूँकि उन से तो 40+ दोहों की आशा रखी जा सकती है। बतौर
टिप्पणी!!!! आप क्या समझे?
आप
सभी को सपरिवार प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ, और हाँ चलते-चलते एक सोरठा भी पढ़वा दूँ.......
मावस का 'तम-पाश', हम कब तक सहते भला
जगर-मगर आकाश, इक दिन तो
कर ही दिया
आइये हम सभी आशाओं के दीप जलाएँ, अंधकार
मिटाएँ, मिठाइयाँ खाएँ-खिलाएँ, बड़े-बुजुर्गों
का आशीर्वाद पाएँ और प्रसन्न-चित्त हो कर प्रकाश-पर्व दीपावली का पावन त्यौहार
मनाएँ
ॐ
जवाब देंहटाएंलिछमी नित आशीष दै, गणपति दै वरदान !
सुरसत-किरपा सूं बधै सदा आपरौ मान !!
धन त्रयोदशी ! रूप चतुर्दशी ! दीवाली !
गोवर्धन पूजा ! भाई दूज ! की मंगलकामनाएं !
दीपावली का स्वागत गान करते इन दोहों के सम्माननीय रचनाकार साथियों को दीपपर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंनवीन जी को विशेष बधाई ।
waah..bahut acche lage sare dohe....
जवाब देंहटाएंतन जरिके काजर भवा, मन जरि भवा प्रकाश
जवाब देंहटाएंतेलवा जइसन हे प्रभो, हमहूँ होइत काश!
सुन्दर सुन्दर दोहे ...अति सुन्दर प्रस्तुति...दीपावली की शुभकामनाएं ...
जवाब देंहटाएंरंग-बिरंगी झलरियाँ, गौखन लुप-झुप होत ,
बिजुरी के जुग में दिखै,कित दीया की जोत |
धूम-धड़ाकौ होत है, गली नगर घर गाम,
रॉकिट-चरखी चलि रहे,जगर-मगर हर ठाम |
झलरियाँ = बिजली के बल्बों की झालरें
गौखन = घरों की बालकनी
लुप-झुप = क्रमश:जलना-बुझना
दोहे बहुत अच्छे लगे |यह अच्छा लगा की कठिन शब्दों के अर्थ
जवाब देंहटाएंभी दिए |
आशा
आदरणीय नवीन जी, मनमोहने मयंक
जवाब देंहटाएंदीवाली के पर्व पर, लाए स्पेशल अंक ||
राजस्थानि भोजपुरी , ब्रज मथुरा देहात
अवधि अरु छत्तीसगढी,दोहों की बरसात ||
वाह आज तो पूरा पैकेज ही मिल गया
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को नमन...मजा आ गया अलग अलग भाषाएँ पढ़ कर :-)
सभी भाषाओँ में दोहे बहुत अच्छे लगे...दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंसुन्दर दोहे ...दीपावली की शुभकामनाएं .
जवाब देंहटाएंनान नान नोनी मनन, तरि नरि नाना गायँ
जवाब देंहटाएंसुआ-गीत मा नाच के, सबके मन हरसायँ ||
सभी दोहे बहुत अच्छे लगे...दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!
RECENT POST:....आई दिवाली,,,100 वीं पोस्ट,
किसिम-किसिम उद्गार हैं, संयत भाषा रूप
जवाब देंहटाएंपद प्रस्तुति अद्भुत छटा, अहा, भाव अपरूप !
भाई नवीन जी, अभिनव विचार सम्मत इस सार्थक प्रयोग पर हार्दिक अभिनन्दन व सादर बधाइयाँ.
सभी प्रतिभागियों को मेरा सादर प्रणाम.
दीपावली की शुभकामनाएँ.. .
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
एक अनुरोध : प्रतिभागियों की तस्वीर की कमी तनिक खल रही है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (11-11-2012) के चर्चा मंच-1060 (मुहब्बत का सूरज) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
सभी आदरणीय रचनाकारों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!!!!
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंआदरणीय श्री नवीनजी का मैं आभारी हूँ जिन्होंने हमें अपनी बोलचाल की भाषा में दोहे सृजन करने का सुअवसर प्रदान किया है,
आदरणीय, साहित्यानुरागी भाई मयंक जी की साहित्यिक विवेचनात्मक टिप्पणियाँ जो निश्चित ही हर मन को उत्साहित करेगी अतएव उनके यथार्थ विवेचना के लिए मैं उनका आभार व्यक्त करता हूँ.
आ. नवीनजी एवं आ. भाई मयंक जी तथा उनके परिवारजनों को दीपावली एवं नूतन वर्ष की हार्दिक व मंगल शुभकामनाओं सहित समस्त आदरणीय रचनाकारों का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ. मंच से जुड़े समस्त साहित्य रसिकों एवं उनके परिवार जनों को दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ साथ नूतन वर्ष की मंगल कामनाएं
मयंक जी की विस्तृत टिप्पणियों ने इस पोस्ट को एक नई उँचाई प्रदान की है। बहुत बहुत शुक्रिया मयंक जी, आप जैसा साहित्यकार हौसला अफ़जाई करे तो कौन न लिखने लग जाय।
जवाब देंहटाएंसभी दोहाकारों को इन शानदार दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई।
सब को दीपावली की अनंत शुभकामनाएँ।
दोहों का दिवाली विशेषांक बहुत सुंदर लगा ... आभार
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंदोहों की दिवाली पर दावत दियो ,कैसा मन हर्षाय ....
किसिम-किसिम उद्गार हैं, संयत भाषा रूप
जवाब देंहटाएंपद प्रस्तुति अद्भुत छटा, अहा, भाव अपरूप !
---ये भाव अपरूप ! का यहाँ क्या अर्थ निकलता है सौरभ जी....मेरे विचार में तो अपरूप = सभी दोहों के रूप भाव में त्रुटि है ....एसा भाव लगता है ....जैसे अप-संस्कृति...अप-भाव
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ!
कल 12/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
दीवाली का सुन्दरतम उपहार..
जवाब देंहटाएं---भारतीय-भाव अनेकता में एकता का एक अत्युत्तम उदाहरण है यह प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएं---दिया, दीया, दियारा, दियारां, दियां, दीपक,दीप,दीयाली,देवारी ,दियना ,दियवा ,दियरी ...अर्थात--ब्रज, ठेठ-ग्रामीण ब्रज, मराठी, राजस्थाननी, अवधी, भोजपुरी , छत्तीष गढ़ी,खड़ीबोली किसी भी स्थानीय, क्षेत्रीय भारतीय भाषा में हो सब समझ में आता है ...भारतीय भाव सम्प्रेषण होता है ....
" बहुरि रंग की फुरिझरीं, बरसें धरि बहु भाव |
भाव-तत्तु है एकसौ, याही माखन भाव ||
----इस सुन्दर एवं कालजयी प्रस्तुति हेतु नवीन जी एवं मयंक जी बधाई के पात्र हैं...
और एक जानकारी ----
जवाब देंहटाएंतन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
---क्या बाती और वर्तिका ...समानार्थक हैं या भिन्न भिन्न ....मेरे विचार से समानार्थक हैं...अतः पिष्ट-पेषण दोष है...
आपको दीपावली की शुभकामनाएं| ग्रीटिंग देखने के लिए कलिक करें |
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट : तीन लोग आप का मोबाईल नंबर मांग रहे थे, लेकिन !
दीपावली की गिफ्ट:-
जवाब देंहटाएंमिट्टी की दीवार पर , पीत छुही का रंग
गोबर लीपा आंगना , खपरे मस्त मलंग |
तुलसी चौरा लीपती,नव-वधु गुनगुन गाय
मनोकामना कर रही,किलकारी झट आय |
बैठ परछिया बाजवट , दादा बाँटत जाय
मिली पटाखा फुलझरी, पोते सब हरषाय |
मिट्टी का चूल्हा हँसा , सँवरा आज शरीर
धूँआ चख-चख भागता, बटलोही की खीर |
चिमटा फुँकनी करछुलें,चमचम चमकें खूब
गुझिया खुरमी नाचतीं , तेल कढ़ाही डूब |
फुलकाँसे की थालियाँ ,लोटे और गिलास
दीवाली पर बाँटते, स्निग्ध मुग्ध मृदुहास |
मिट्टी के दीपक जले , सुंदर एक कतार
गाँव समूचा आज तो, लगा एक परिवार |
शुभ दीपावली
कमेंट्स में भी इतने सुंदर सुंदर दोहे आ रहे हैं कि उन्हें भी इस पोस्ट का हिस्सा बनाने की इच्छा हो रही है
जवाब देंहटाएंदीवाली के रोज़ भी , आया नहीं सुहाग !
जवाब देंहटाएंअश्कों से ही रात भर , जलते रहे चराग़ !!
ज्यूँ ही हवा चराग़ के , आयी ज़रा समीप !
फ़ैल गयी फिर रौशनी ,जले दीप से दीप !!
बिखरे पत्ते ताश के , भरे हुए हैं जाम !
दीवाली की आड़ में ,कैसे कैसे काम !!
जगमग आतिशबाजियां , रौशन है आकाश !
देख सितारे ढो रहे , अंधियारे की लाश !!
चालें हैं बाज़ार की , धनतेरस क्या ईद !
त्योहारों के नाम पर , होती जेब शहीद !!
अरबों का सोना बिका, हैरत में बाज़ार !
कहाँ मुल्क में मुफ़लिसी , पूछ रही सरकार !!
मचल रही हैं ख्वाहिशें , बुला रहा बाज़ार !
गए साल का तो अभी , उतरा नहीं उधार !!
विजेंद्र शर्मा
Vijendra.vijen@gmail.com
DIG HQ BSF , BIKANER
सभी दोहे कमाल के है..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़ियाँ...
आप सभी को सहपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ..
:-)
मागधी(मगही)-बिहार की क्षेत्रीय भाषा
जवाब देंहटाएंअन्हार हलई सगरो, दिया देलिओ बार
आवअ हे माइ लछमी, हमनी के दुआर
आसरा देखत देखत, हो गेलई ह भोर
लछमी जी चल गइइलन,कइलन न कोइ सोर
//ये भाव अपरूप ! का यहाँ क्या अर्थ निकलता है सौरभ जी....मेरे विचार में तो अपरूप = सभी दोहों के रूप भाव में त्रुटि है ....एसा भाव लगता है ....जैसे अप-संस्कृति...अप-भाव //
जवाब देंहटाएंआदरणीय डॉ. श्याम गुप्तजी, मैं मूलतः विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ. इस संज्ञा को मैं अपनी धमनियों में आज भी जीवित, प्रवाहित महसूस करता हूँ. आप भी सनदानुकूल चिकित्सक हैं. इस आलोक में ’अपरूप’ को पुनः देखें का मेरा सादर आग्रह है.
’वि’ का ही उपसर्ग लें. यह ’विशिष्टि’ या ’प्रकृष्टि’ का धारक तो होता ही है, ’शून्य’ या ’न होने’ का भी. हम यदि किसी एक ही मंतव्य का परावर्तन देखने का हठ कर लें तो उलझ नहीं जायेंगे, आदरणीय ?
--तो विरूप में ...वि उपसर्ग= बिना होगा या विशिष्ट ...जैसे विकृति .....क्या विशिष्ट को अपशिष्ट या विशेष को अपशेष कहाजा सकता है ...
जवाब देंहटाएं-- भाई ..विज्ञान में भी भाषा साहित्य से ही तो आती है...
---विज्ञान में ..वह अपर-रूप = अन्य रूप ( तत्वों के) .. होता है.....
---- जब शब्दों के अर्थ-भावों को ठीक प्रकार से जाना नहीं जाता तभी भाव-सम्प्रेषण की उलझन होती है ...उलझन को सुलझाना ही तो विज्ञान है....
जवाब देंहटाएंवि - without, apart, away, opposite, intensive, different
अप-(खालीं ) अपकर्ष, अपमान;
अप-(विरुद्ध ) अपकार, अपजय.
वि-(विशेष) विख्यात, विनंती, विवाद
वि-(अभाव) विफल, विसंगति
पच्छिम-पच्छिम चलने की लत.. नहीं-नहीं.. रोग का उपचार क्या होता है, नवीन भाईजी ?
जवाब देंहटाएंसातों स्वर्ग सुख ? नाः.
अपवर्ग का सुख ? नहीं-नहीं.
अवश्य-अवश्य ही देवानुग्रह से लभ्य महापुरुष-संश्रय और सत्संग की गरिमामय संगति.
आपका सादर धन्यवाद, नवीन भाई. हम सस्वर सत्संग की महिमा गायें.
सादर.
वाह !!.. बिजेंद्र जी ..क्या ही सुन्दर आधुनिक दोहे हें ...बधाई....
जवाब देंहटाएं---हाँ 'अंधियारे की लाश' कुछ जम नहीं रही...
चिमटा फुँकनी करछुलें,चमचम चमकें खूब
जवाब देंहटाएंगुझिया खुरमी नाचतीं , तेल कढ़ाही डूब |
--क्या बात है अरुण जी ...अति-सुन्दर...
इस पोस्ट को पर्व का उपहार बनाने में सहायक प्रति एक साहित्यानुरागी का बहुत-बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के सभी दोहे मैंने भी पढे हैं, उन की कमियाँ मुझ से छुपी नहीं हैं। परंतु हमने इस पोस्ट को एक पर्व के रूप में लिया, और जिन व्यक्तियों ने इसे पर्व रूप में ही लिया उन का विशेष आभार। त्यौहार, त्यौहार होता है और उस त्यौहार में हम लोग खुशियों को ही अधिक महत्व देते हैं।
सौरभ जी द्वारा प्रयुक्त शब्द 'अपरूप' का अर्थ सलिल जी से समझ कर संतुष्टि मिली। जिन्हें डाउट हो वो यहाँ इस पोस्ट को विस्तार देने की बजाय सलिल जी से कनफर्म कर लें या शब्द कोष की सहायता ले लें।
'उर्मिल-वर्तिका' में 'उर्मिल' शब्द अधिक महत्वपूर्ण है।
इन दो दोहों के अलावा के दोहों में भी कहीं-कहीं त्रुटियाँ अवश्य हैं, पर यहाँ इस पर्व की पोस्ट पर उन सब की चर्चा उचित न होगी। ऐसी बातें हम लोग आपस में फोन या मेल के द्वारा भी कर सकते हैं।
आप सभी का पुन: पुन: आभार। साहित्य के हितैषियों का मंच पर सदैव स्वागत है, आप का स्नेह बनाए रखें।
कुछ भी करते समय हमें यह ध्यान अवश्य रखना है कि हमारी हरकतों के कारण हिन्दी साहित्य से फिर से जुड़ने के इच्छुक लोग डरने न लग जाएँ।
नमन।
नवीन जी!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम।
आपके चाहे अनुसार दो बिन्दुओं पर कुछ जानकारी प्रस्तुत है।
1.
किसिम-किसिम उद्गार हैं, संयत भाषा रूप
पद प्रस्तुति अद्भुत छटा, अहा, भाव अपरूप !
अपरूप- स्त्रीलिंग, (एलोट्रोपी अंगरेजी) जब एक ही तत्व के दो या अधिक रूप इस प्रका रपये जाते हैं की उनके भौतिक गुण भिन्न हों किन्तु रासायनिक गुणों में कोइ अंतर न हो तब वे एक दूसरे के अपरूप कहलाते हैं तथा इस विशेषता को अपरूपता कहते हैं। जैसे कार्बन तत्व के अपरूप हैं लकड़ी का कोयला (चारकोल) तथा हीरा। इनके भौतिक गुणों में अत्यधिक अंतर है किन्तु दोनों ही वायु में प्रज्वलन के उपरांत कार्बन डाई ओक्साइड का निर्माण करते हैं।
- बृहत् हिंदी कोष, संपादक लिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दी लाला श्रीवास्तव, प्रकाशक ज्ञानमंडल वाराणसी, पृष्ठ 63.
सौरभ जी! उक्त के प्रकाश में आपके द्वारा किया गया प्रयोग मुझे बिलकुल सही प्रतीत हुआ है।
2.
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
यहाँ पिष्टपेषण दोष नहीं है। पिष्टपेषण - पुल्लिंग, पिसे हुए को पीसना, एक ही कार्य को बार-बार करना, निरर्थक श्रम करना। - उक्त, पृष्ठ 690.
यथा: दृश्य मनोरम मंजुल सुन्दर अथवा सुध न रही, बेहोश थे, कर न रहे थे बात।
उक्त दोहे में बाती के घटने-बढ़ने और श्वास के तेज-मंद होने तथा आत्मा और वर्तिका के ऊपर उठने को इंगित किया गया है।
दोष तो अन्य प्रविष्टियों में अनेक हैं किन्तु हमारा लक्ष्य छिद्रान्वेषण अथवा परदोष दर्शन नहीं होना चाहिए। रचनाकार को गलत कहने के स्थान पर शालीनतापूर्वक उसका मत पूछा जाना चाहिए। एक ओर तो भाषा या छन्द के नियमों की बात करने पर पिछले आयोजन में रचनाकार के स्वातंत्र्य और यथावत प्रस्तुतीकरण की दुहाई दी गयी दूसरी ओर अब जहाँ त्रुटि न हो वहाँ भी त्रुटि दिखाने और फिर उस को सही कहने की हठधर्मी... मैंने इसीलिये इस मंच में प्रकाशित सामग्री पर प्रतिक्रिया लगभग बंद कर दी है। अब रचना भेजने पर भी सोचना होगा।
बहुत बढ़िया संग्रह
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्यवर ’सलिल’जी,
जवाब देंहटाएंआपके उदार और सहर्ष अनुमोदन पर सादर धन्यवाद.
आपने ’अपरूप’ की वैज्ञानिक परिभाषा उद्धृत कर मेरे कहे को स्वर और मेरी टिप्पणी-रचना को मान दिया है. इसी तथ्य को इन्हीं पन्नो पर मैं संकेतों में कह चुका हूँ.
आपका सादर आभार.
नवीनभाईजी, शास्त्रीय छंदों पर आप द्वारा हो रहा आश्वस्तिकारक प्रयास आज के उन रचनाकारों को भी प्रयासरत होने के लिये उत्प्रेरित करता है जो छंद ’गये ज़माने की चीज़’ सुनते हुए ही बड़े हुए हैं.
माननीय, ’सार-सार गहि रखे, थोथा देय उड़ाय’ पर अमल करते हुए आप सगर्व बढ़ें.
हम सभी आपकी कार्यविधि में सहयोगी हों.
सादर
दीपावली पर सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगी. क्षेत्रीय भाषा पढकर अच्छा लगा. बहुत बहुत शुभकामनाएँ.
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