व्यंग्य - कर लेना काम है सरकार का - कमलेश पाण्डेय

टैक्स को कर कहा गया है। यही करदाता के करों से किसी कर्ता के हाथों में आकर उसे कुछ करने की प्रेरणा और शक्ति देता है। कर सभी देते हैंवो भी जिनकी कमर कर के बोझ से टूटी हुई होती हैमगर कर्ता गिने चुने ही होते हैं जिन्हें करों की राशि से संपन्न होने वाले काजों से अच्छा कट प्राप्त होता है। कर चाहे कड़ाई से वसूला जाता होउससे संपन्न होने वाले काज से करवसूलक को यश की प्राप्ति होती है। अधिकतर कर्मठ कल्याणकर्ताओं के कर कमल हो जाया करते हैं। 

 

शायर करों के व्यूह में घिरा किसी तरह खुद को बचाए रखने में कामयाब हुआ था कि फिर एक बजट आ गया और कर के शर फिर उसे छेदने लगे। उसे याद आया कि दिल बड़े काम की चीज़ है। टूट जाय तो भी। जब पुल टूट रहे थे तब दिल ही ने याद दिलाया था कि कैसे एक दिन सब कुछ टूट जाता है। उस रोज़ जब संसद भवन की छत टपकी तो फिर अपना दिया टैक्स याद आया। दिल की जगह वही कर यानि टैक्स और दिलदार की जगह सरकार (छंद की मज़बूरी) रख दिया तो देखा वही हाल- ओ- हवाल है।

 

दिल को समझाया कि - कर लेना काम है सरकार कायही नियम है इस संसार का..

 

दिल नाराज़ होकर उलाहने देने लगा - कर तुझे दिया था (कुछ) करने कोतूने कर को पचाके रख लिया...

 

नाम लिए बिना वह कर संग्राहक की ओर इशारा कर रोता रहा....ले गई कर .. (खाली स्थान की पूर्ति करें) ..कीदिवाला मुझे कर दिया....

 

 

आखिरी चीत्कार तो दर्दनाक था....कर का भंवर चढ़े बुखारदोहरी मार सहाेतिहरी मार सहो रे... हू हू हू...

 

शायर दिल से खेलता है तो ग़मों के साथ आशिक़ी भी करता है। दिल की दुर्गत देख कर उसे अपने शेरों में गुँथे ग़म से भी टैक्स की बू आने लगी।

 

उसे साफ़ नज़र आया कि....कर बढ़े आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह।

तुम छुपा लो कुछ पैसे मेरी आहों की तरह।

 

...और ये भी कि

 

करों ने बांट लिया है मुझे यूं आपस में

के जैसे मैं कोई लूटा हुआ ख़ज़ाना था।

 

एक करदाता जोड़े के उद्गार...

 

ये तेरा कर ये मेरा कर दोनों को जोड़ दें अगर

इससे तो अच्छा मांग लेंवो तेरा सर व मेरा सर।

 

फिर शायर को मर मिटने के मिडिल क्लासी जज़्बे के साथ चंद आहें सुनाई दीं.....कर चुकाने के लिए मैं तो जिए जाऊंगा... देश के नाम पे दे दे के मैं मिट जाऊंगा... 

 

कर के नाम एक लम्बी कराह के साथ शायर ने इस महफ़िल को खत्म किया

 


ग़ज़ल - अजीब दिन हैं कि लगता है रात चल रही है - आफ़ताब हुसैन

 

 

अजीब दिन हैं कि लगता है रात चल रही है

जो हो चुकी है वही वारदात चल रही है 

 

दवाम-ए-वस्ल, हद-ए-मर्ग पर जो हो तो हो

कि ज़िंदगी तो बहुत बे-सबात चल रही है

 

हज़ार हर्फ़ गिरह हो के रह गए दिल में

कलाम ख़त्म हुआ और बात चल रही है

 

हवा-ए-मौसम-ए-जाँ तेरे दम-क़दम से है

मैं चल रहा हूँ कि तू मेरे साथ चल रही है

 

रुके जो दिल तो ज़माने की साँस रुक जाए

सो चल रहा है तो ये काइनात चल रही है

 

क़दम उठाते नहीं हैं कि डगमगाते हैं हम

हमारे सर पे वो तेग़-ए-सिरात चल रही है

 

चलो हुई तो है कुछ चहल-पहल सीने में भी

जनाज़ा जा रहा है या बरात चल रही है

 

गुज़र के आया हूँ इक शाम-ए-मर्ग रंग से मैं

अब एक सुबह-ए-क़यामत से बात चल रही है

 

रवाँ-दवाँ हूँ क़दम से क़दम मिलाए हुए

कि साथ-साथ रह-ए-मुशकिलात चल रही है


नवगीत - शर्त है पर - सीमा अग्रवाल


हम  लहर पर आज ही

दीपक सिराना छोड़ देंगे 

शर्त है, पर,

तुम तमस से

आँख डाले आँख में

बातें करोगे

 

नीर के हों फ़ैसले जब

आग के दरबार में

मौन के अतिरिक्त तब

कुछ और चारा है कहाँ

 

बाग़ के क़ानून हों जब

पतझडों के हाथ में

तब दुआओं के सिवा

कोई हमारा है कहाँ

 

हम भटक कर चौखटों पर

सर झुकाना छोड़ देंगे

शर्त है, पर,

तुम अनय के दंभ मर्दक बन

जयति के स्वर रचोगे

 

साधनाएँ साध्य से

ज़्यादा बड़ी होने लगीं

साधकों के कद हुए हैं

साधना से भी बड़े

 

विशद मीमांसा

कुकर्मों की सहेजी जा रहीं

पर सुकर्मी भाष्य सारे

हाशिए पर हैं पड़े

 

भीतियों की भीत पर

पत्थर सजाना छोड़ देंगे

शर्त है, पर,

तुम अभय के मंत्र

अंतर में हमारे फूँक दोगे

 

पीर का व्यवसाय कर अब

काल जीता है यहाँ

सांत्वना भुगतान के बिन

अब कहीं मिलती नहीं

 

देवता छोटे बड़े

हो कर खड़े हैं पंक्ति में

हो गए आशीष भी

सस्ते  कहीं महँगे कहीं

 

हम फ़लाना या ढिकाना

हर ठिकाना छोड़ देंगें

शर्त है, पर,

तुम अमिट विश्वास बन कर

रक्त में अविरल बहोगे 

व्यंग्य - सच्चे देशभक्त - अर्चना चतुर्वेदी

हम भारतीय लोग दिल से बड़े ही प्यारे होते हैं और बड़े ही एडजस्टिंग टाइपहम हर त्यौहार हर माहौल में खुद को सेट कर लेते हैं | जैसे वेलेंटाइन डे और करवा चौथ पर हम सोहनी महिवाल और शिरी फरहाद को भी कोम्प्लेक्स दे सकते हैं | मदर्स डे और फादर्स डे पर हर तरफ श्रवण कुमार की खेती लहलहाने लगती है | ठीक उसी तरह 26 जनवरी और पंद्रह अगस्त आते ही हम सच्चे भारतीय बन जाते हैं और अपनी देशभक्ति का खुल कर प्रदर्शन करते हैं | डीपी और प्रोफाइल बदल कर झंडा लगा लेंगे ,रेड लाईट से खरीद कर झंडा गाड़ी में रखेंगे और देशभक्ति के गीत सुनेंगेभले ही दो दिन बाद ही देश का झण्डा सड़क पर फेंक दे पर हम में देशभक्ति कूट कूट कर भरी हुई है ।

 

असल में हम वही लोग हैं जो पिक्चर हाल में राष्ट्रीय गान बजे तो पिनपिनाते हैंउसके विरोध में पोस्ट लिखते हैं पर हम सच्चे देशभक्त हैं |हम अपने देश को इत्ता प्यार करते हैं कि अपने देश की कमियाँ और बुराई खुल कर करना अपनी शान समझते हैं | हम तो इतने ईमानदार हैं कि अपने धर्म की बुराई खोद खोद कर निकाल लेते हैं ,वक्त पड़ने पर इन्सान को जाति और धर्म के नाम पर बाँट लेते हैं पर हम सच्चे देशभक्त हैं | हम भ्रष्टाचार का खुल कर विरोध करते हैं... भले ही अपना काम कराने के लिए अफसर को चाय पानी दिया हो वही जो टेबुल के नीचे से दिया जाता है पर हम भ्रष्टाचारियों को खूब गाली देते हैं आखिर सच्चे देशभक्त जो हैं | हम अपनी देशभक्ति पूरी ईमानदारी से निभाते हैंनेताओं को खूब गरियाते हैं,कमियां खोद खोद कर गिनाते हैं और घर से निकल कर वोट डालने नहीं जातेभाई आखिरकार देशभक्त लोग हैं हमभारत पाकिस्तान का मैच हो तो हम अपने देश की जीत का जश्न ऐसे मनाते हैं मानो युद्ध में विजय प्राप्त कर ली होहम वही सच्चे देशभक्त हैं जो देश विरोधी नारे देने वाले को हीरो बना देते हैंहर चैनलहर कार्यक्रम की शोभा बना देते हैं | हम तो इतने बड़े देशभक्त हैं कि आतंकवादी को फांसी हो जाये तो भी विरोध करने से ना चूकें पर हम सच्चे देशभक्त हैं पार्ट टाइम ही सही .....चलो फिर से देशभक्त बने और सच्चे देशभक्त की तरह आज स्वतंत्रता दिवस मनाएं ...जयहिंद

ग़ज़ल - जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया - नवीन जोशी 'नवा'


 

जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया

वहाँ हमारी ज़बाँ ने सुख़न उतार दिया

 

न जाने अब के ये कैसी बहार आई है

गुलों के जिस्मों से जिस ने चमन उतार दिया

 

उसी ने हम से छुपाई थी अपनी 'उर्यानी

वो जिस के वास्ते हम ने बदन उतार दिया

 

लिबास-ए-‘इश्क़ पहनने की ऐसी क्या ज़िद थी

जो दोस्ती का हसीं पैरहन उतार दिया

 

बिना बताए हमें इक ख़याल ने पहना

बिना लिहाज़ किए दफ़'अतन उतार दिया

 

हमें भी सर पे चढ़ाया था फ़ितरतन सब ने

हमें भी सब की तरह 'आदतन उतार दिया

 

हर एक लाश हमें बे-कफ़न नज़र आई

हमारी लाश से हम ने कफ़न उतार दिया


कविता - अब तुम मर क्यों नहीं जाते दद्दा - सन्ध्या यादव


"बुढ़ऊ कमरा छेके बैइठे हैं "

बेटे -बहुरिया के ये संस्कारी

आत्म -सम्वाद दिन में पचास बार

सुनने और पोते -पोतियों को 

"मेरा कमरा " के नाम पर

लड़ने-झगड़ने के बाल सुलभ

आशावादीस्वप्निल वार्तालाप को

सुन दद्दा की ऐंठी गर्दन

तकिये पर थोड़ी और सख़्त

हो जाती है ...

 

कमरे की बदबू थोड़ी और

गहरी हो जाती है

दवाइयों का स्वाद किसी किसी रोज़

ज्यादा कड़वा लगता है

दाल के पानी में घोटायी गयी रोटी

गले में अटकी रह जाती है

फोन पर होने वाली बातें

बरछी सी सीने में चुभती हैं

पर जहाँ लहू न टपके वो ज़ख़्म

ज़ख़्म कहाँ कहलाता है ...

 

पेंशन की रकम बैसाखी तो है

पर लुंज-पुंज शरीर की ताकत नहीं

बैंक में रखे पैसे सिर्फ़ एक दस्तख़त और

मृत्यु प्रमाणपत्र का इंतजार करते

"ता ता थैया "

करते मुँह बिराते हैं

रिश्ते-नाते गाहे-बगाहे जब सहानुभूति दिखाते हैं

लगता है जीते-जी मृत्यु के बाद का शांति पाठ

सस्वर सामने बैठ गाते हैं...

 

फ्रेम में कैद पत्नी की तस्वीर

अंगूठा दिखाती मंद मंद मुस्काती है

लगता है "सुनते हैं" की आवाज़ लगाती है

"अब आ भी जाओ" की गुहार मीठे स्वर में

लजाते हुए बार-बार दोहराती है...

 

कभी -कभार दफ़्तर से आधी छुट्टी ले

घर पर बिना बताये, झूठे बहाने

गढ़ने का अभिनय कर

सिरहाने बैठ बेटी जब

माथा सहलाती आँसू बहाती है

लगता है मुझको ऐसा, दिखता भी मुझको ऐसा

मेरे पैताने बैठ हाथ जोड़ जैसे गिड़गिड़ाती है

"दद्दा अब तुम मर क्यों नहीं जाते दद्दा ?"

सॉनेट - हम तुम्हारी बात सुनना चाहते हैं - नकुल गौतम



छू नहीं पाये कभी गेसू तुम्हारे

दस्तरस थी फूल की बस डायरी तक

बात होठों तक नहीं पहुँची हमारे

इश्क सिमटा रह गया बस शायरी तक

 

आरज़ू दिल की बहुत मासूम सी थी

दोस्तों में नाम शामिल हो तुम्हारे 

हो कोई तक़लीफ़ या घड़ियाँ खुशी की

दिल तुम्हारा बे झिझक हमको पुकारे

 

तय नहीं कर पाये हम इतनी भी दूरी

और आखर भी तो साहिर हो न पाये

हो नहीं पाई कभी भी बात पूरी

आह! एहसासात ज़ाहिर हो न पाये

 

अब नया किरदार चुनना चाहते हैं

हम तुम्हारी बात सुनना चाहते हैं

  

तज़मीन - अश्विनी उम्मीद

 


तुम यही बोलोगे – मुश्किल है सफ़र – मालूम है 

और दिखाओगे हमें रस्ते का डर – मालूम है

जान लो तुम भी मगर, हमको डगर मालूम है

“हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है

जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा” 

 

मूल शेर – बशीर बद्र साहब का है