पृष्ठ

15 अगस्त 2020

प्रशंसा एक रोग है - रत्नेश मिश्रा

प्रशंसा एक रोग है, करने वाला भी रोगी, करवाने वाला भी रोगी। दुर्योग से यह रोग हर दौर में सत्ता- प्रतिषठान के केंद्र में रहा है। पहले राजदरबारों में दरबारी लोग होते थे, कवि होते थे जो राजा की प्रशंसा में गीत रचते थे, गाते थे, राजा खुश होता था और ऐसे लोगों को अशर्फियों और धन-दौलत से नवाजता था।

 

राजसत्ता बदल गई, लोकशाही का समय आया लेकिन न तो सत्ता का मूल चरित्र बदला और न ही खुशामद के रास्ते लाभ उठाने वाले लोगों का। अपनी सुविधा के लिए आप मौका और दस्तूर के हिसाब से 'प्रशंसा' शब्द को 'चापलूसी'  से रिप्लेस कर सकते हैं। आलोचनात्मक टिप्पणी करना तो जैसे दु्श्मनी को दावत देना हो गया है।

 

अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा उपहार है। यह आजादी हमें जिम्मेदार लोगों से प्रश्न करने का हक देती है। स्वस्थ लोकतंत्र में 'सवाल' और 'आलोचना' एक औषधि की तरह है। इससे सरकार और जिम्मेदार लोगों पर अंकुश रहता है। स्वस्थ आलोचना उन्हें सतर्क और सावधान रहना सिखाती है। लेकिन इन सभी का अगर दुरुपयोग होने लगे तो चीजें बद से बदतर भी होने लगती हैं।

 

मुंशी प्रेमचंद ने अपने एक लेख 'जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान' में समझाते हुए लिखा कि-  अगर दया, करुणा, प्रशंसा और भक्ति का दुरुपयोग किया जाने लगे, तो वह दुर्गुण हो जायेंगे। अंधी दया अपने पात्र को पुरुषार्थ-हीन बना देती है, अंधी करुणा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भक्ति धूर्त।  इसी निबंध में प्रेमचंद यह भी समझाते हैं कि- निंदा, क्रोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिए, तो संसार नरक हो जायेगा।

 

यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है। यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है। निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय।

 

कहते हैं प्रशंसा के घाव बड़े गहरे होते हैं, लेकिन यह लोग कहते भर हैं, अब इसका कोई मतलब नहीं रह गया है आजकल। पूरे कुएं में भांग पड़ी है, 'आत्ममुग्धता' इस दौर की सबसे बड़ी पूंजी है। प्रशंसा अब घाव नहीं करती, आपके सोचने के तरीके को बदल देती है। दिमाग में 'स्टीरियो टाइप' का निर्माण करती है। प्रशंसा, आलोचना, सवाल और टिप्पणी के संदर्भ में जो भूमिका मैं बना रहा हूं, उसके केंद्र में आज का मीडिया है।  

 

प्रशंसा जब किसी 'माध्यम' में हो और हद से ज्यादा हो तो समझ लीजिए जान बूझकर एक छवि गढ़ने की कोशिश की जा रही है। इसमें और भी कई चीजें शामिल हैं मसलन यह सब किस एजेंडे के तहत किया जाता है। संचार सिद्धांतों में शामिल 'एजेंडा सेटिंग थ्योरी' मीडिया के ऐसे चरित्र की पड़ताल करती है। इसके तहत खबरों के क्रम को व्यक्ति, समूह अथवा राजनीतिक दलों के हितों के अनुसार खास एजेंडे के तहत सेट किया जाता है। न कि न्यूज सेंस के आधार पर।

 

जिस एजेंडे को आगे बढ़ाना होता है उससे संबंधित खबरों पर मीडिया फोकस करता है, क्रम में उसे सबसे आगे रखता है और जिस खबर को महत्व नहीं देना है उसे या तो सबसे पीछे रखता है या कई बार रखता ही नहीं। 'एजेंडा सेटिंग थ्यौरी' के अनुसार जिन ख़बरों को क्रम में पीछे रखा जाता है अथवा उनकी प्रस्तुति को कमजोर किया जाता है, टारगेट ऑडियंस के मानस पटल पर उनकी प्रभावोत्पादकता कम हो जाती है।

 

दुनिया के सबसे घातक लड़ाकू विमानों में शुमार राफेल की पहली खेप बुधवार को आखिरकार भारत पहुंच गई। यह खुशी की बात है कि राफेल के भारतीय सेना में शामिल होने से देश की सुरक्षा चाक-चौबंद होगी, हमारी सेना और मजबूत होगी। 

 

यह रूटीन काम था, विमान का सौदा हो चुका था, उसे भारत आना ही था। लेकिन विमान की लैंडिंग से संबंधित खबर को सनसनी बनाकर उत्तेजनापूर्ण ढंग से पेश करना, भारतीय टीवी मीडिया की अगंभीर छवि को उजागर करता है।  ऐसा करना उन परिस्थितियों में जायज होता जब राफेल लड़ाकू विमान भारत में ही बने होते।

'सवाल' भारतीय मीडिया से गायब हो रहे हैं।  

 

देश कई तरह के संकट से जूझ रहा है। कोरोना संक्रमण के चलते अर्थव्यवस्था के धराशायी होने के चलते युवाओं के रोजगार छिन रहे हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत मीडिया में कुछ और है जमीन पर कुछ और। बिहार कोरोना से बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था और बाढ़ की दोहरी मार झेल रहा है। असम में भी बाढ़ की भयानक स्थिति है। ये सभी मुद्दे मीडिया के केंद्र में होने चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है। ये मुद्दे व्यवस्था जनित विसंगतियों को उजागर करेंगे, सरकार को सचेत करेंगे, इससे सरकारी मशीनरी में सक्रियता आएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।  

 

टीवी पर बहसों के नाम जहर उगला जा रहा है। दलगत राजनीति में अपनी विचारधारा के अनुरूप एक-दूसरे की आलोचना करना तो एक हद तक जायज भी है लेकिन अब आलोचना की जगहें खत्म हो चुकी हैं। लोग पक्ष-विपक्ष न होकर एक दूसरे के दुश्मन हो चुके हैं।  टीआरपी के लिए टीवी पर रोज युद्ध जैसी स्थितियां जानबूझकर निर्मित की जाती हैं। यहां तक कि लोगों ने टीवी पर एक-दूसरे को मां-बहन की गालियां देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।  

 

मीडिया के कवरेज में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं।  मीडिया समाज केंद्रित न होकर व्यक्ति-केंद्रित होता जा रहा है। कुछ नाटकीयता और अतिरंजना के साथ कार्यक्रम परोस कर दर्शकों को लुभाने की कोशिशें बदस्तूर जारी हैं। यह सही है कि मीडिया समाज का चौथा स्तम्भ होने के साथ- साथ एक व्यवसाय भी है, इसलिए उसे अपने व्यावसायिक हितों के अनुरूप भी काम करना होता है लेकिन वर्तमान में मीडिया का जो रूप है हमारे सामने है, वह विभत्स है।

 

खबरों को रोचक बनाने के सकारात्मक उपायों का आजमाया जाना गलत नहीं है लेकिन उसे विभत्स बनाकर, उसमें उत्तेजना और अमर्यादित भाषा का प्रयोग न केवल निंदनीय है बल्कि आपराधिक भी है। 

 

रत्नेश मिश्रा

(अमर उजाला काव्य कैफ़े)

1 टिप्पणी: