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10 अक्तूबर 2010

ब्रजभाषा - दुर्मिल सवैया - अनुप्रास अलंकार

बिरहाकुल बीथि-बजारन बीच बढ़े बहुधा बिन बात किए|
मन में मनमोहन मूरत मंजुल, मादकता मधु-राग हिए|
पहचान पुरातन प्रीतम प्रीत, परी पगलाय प्रवीन प्रिए|
सजनी सब सुंदर साज़-सिँगार सहेज सजी सजना के लिए||

10 टिप्‍पणियां:

  1. बाकरपुर के बाकरगंज में बनवारीलाल बनिया बास करता था। चाचा ने चाची को चांदी की चम्मच से चटनी चटायी थी। यह सब आठवीं कक्षा मे नवीन जी पढे थे,लेकिन आपके द्वारा प्रतिपादित छंद भी इसी तरह का है,बहुत अच्छा लिखा है.

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  2. वाह गुरुदेव, आपने हमें हँसा दिया|

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  3. प्रिय बंधुवर नवीन चतुर्वेदी जी
    नमस्कार !

    आप छंदबद्ध काव्य सृजन में प्रयास रत हैं , यह बहुत सुखकर है ।
    अनुप्रास की छटा देखते ही बनती है ।
    हां , प्रत्येक चरण में चौबीस वर्ण हैं ,यह सवैया का कौनसा रूप है , कुछ प्रकाश डालते तो …

    बधाई और शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  4. राजेंद्र भाई, नमस्कार| छंदों के प्रति आप का रुझान रुचिकर लगा| कई सालों बाद यह सवैया लिखा है| इस में ८ सगण होते हैं| सलगा * ८ | आपने भारतेंदु हरीशचंद्र जी का वह सवैया पढ़ा होगा:

    सखि आयो वसंत रितून को कन्त चहूँ दिसि फुल रही सरसों|

    बस उसी तरह का सवैया है ये| शायद इसे सुंदरी सवैया कहते हैं| यदि त्रुटि हो, तो कृपया मुझे ज़रूर बताएँ| स्नेह बनाए रखिएगा|

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  5. अनुप्रास में सवैया पढ़कर हर्श मिश्रित विस्मय हुआ कि आज भी रस, छंद और अलंकारों में लिखने वाले आप जैसे कुछ लोग हिंदी की सेवा में लगे हैं, वरना आजकल तो गद्य जैसी रचना को ही कविता कहने का चलन है।

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  6. महेंद्र जी, हम भी समय की धारा के साथ हैं भाई| गीत, ग़ज़ल, कविता के साथ छंद भी लिख रहे हैं| आपकी बहुमूल्य टिप्पणी की लिए बहुत बहुत धन्यवाद महेंद्र भाई| स्नेह बनाए रखिएगा|

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  7. राजेंद्र जी डा. सरोज गुप्ता जी ने बताया कि ये द्रुमिल सवियया है|

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  8. अबहीं पुलकीं रस-बूँद पड़ीं हम मुग्ध हुए मन ही मन में..

    भाई नवीनजी, आपकी तपस सदृश सतत यात्रा सफलीभूत हो.
    बड़ा अच्छा लगता है आपकी ड्यौढ़ी पर चुपके से आना, समस्त शुभेच्छाओं के साथ.

    -- सौरभ पाण्डॆय, नैनी, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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