23 मार्च 2016

साहित्यम होली विशेषांक २०१६

प्रणाम।

पर्वों के गुलिस्तान हिन्दुस्तान के मस्त-मस्त उत्सव होलिकोत्सव की सभी साहित्यानुरागियों को अनेक शुभ-कामनाएँ। होली का पावन पर्व जन सामान्य के जीवन में ख़ुशियों की बरसात कर दे। मार्च महीने में सभी की आमदनी डबल हो जाये। मोदी जी घर-घर जा कर सब को छह महीने का राशन मुफ़्त में अपने हाथों से दे कर आएँ। रितिक रौशन और कंगना रनौत घर-घर जा कर अपने हाथों से सभी के गालों पर गुलाल मलें। होली के बाद पूरे हफ़्ते भर की पेड लीव मिले ताकि हम सब अपनों के साथ होली का पूरा-पूरा आनन्द लूट सकें। आइये साहित्यम के होली विशेषांक को पढ़ते हुये हम लोग भी वर्च्युयल होली का आनन्द लूटने का प्रयास करें।


नज़्म – होली नई बहार का पैग़ाम लाई है – मुज़फ़्फ़र हनफ़ी


गुलशन पे रंग व नूर की बदली सी छाई है।
पौधों को है ख़ुमार, हवा पी के आई है।
फूलों को देखिये तो अजब दिलरुबाई है।
          रंगीनियों से आज मेरी आशनाई है।
          होली नई बाहर का पैग़ाम लाई है॥

काँटों को भी उबेर लजाती हुई कली।
उड़ता हुआ गुलाब हवा में गली-गली।
हर सिम्त नाचती हुई मस्तों की मण्डली।
          मीठी गुग़ल्लेज़ात है, नगमासराई है।
          होली नई बाहर का पैग़ाम लाई है॥

हँसते हैं यार लोग हसीनों के हाल पर।
काजल लगा है कान में, सिन्दूर गाल पर।
दस-बीस का हुजूम मिठाई के थाल पर।
          टेसू की बाल्टी पे भी ज़ोर-आज़माई है।
          होली नई बाहर का पैग़ाम लाई है॥

रानाईयों की बात गुले-तर से पूछिये।
मस्ती का हाल बादा-ओ-साग़र से पूछिये।
कैसा था सीले रंग मुज़फ़्फ़र से पूछिये।
          अशआर कह रहे हैं कि होली मनाई है।
          होली नई बाहर का पैग़ाम लाई है॥

 [सौजन्य - श्री फ़ीरोज़ मुजफ़्फ़र]


व्यंग्य – अर्चना चतुर्वेदी



नारायण ...नारायण  नारद जी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में विष्णुपुरी में प्रवेश किया | विष्णु भगवान आराम फरमा रहे थे और लक्ष्मी जी एज यूजुअल उनकी चरण सेवा कर रही थी | नारदजी ने उन्हें प्रणाम किया ,प्रभु बोले, “ पधारिये मुनिवर बड़े दिन बाद आये | नारद जी बोले, “ क्या करें प्रभु आज कल हर जगह ट्रेफिक जाम रहता है, इसलिए भ्रमण में भी समय ज्यादा लगता है| लोन आसानी से मिल जाता है, सो हर छोटे बड़े देवी देवता ने भी अपना वाहन ले लिया है | अब तो स्वर्ग में भी पार्किंग की जगह नहीं मिलती” नारद जी ने एक ही साँस में अपनी सारी परेशानियां बयान कर डाली ,फिर थोडा रूककर बोले “पर प्रभु आज तो में आपसे किसी खास मुद्दे पर बात करने आया हूँ |”

अरे बोलिए मुनिवर” प्रभु बोले

प्रभु हमें आपसे शिकायत है’ नारद जी शिकायती लहजे में बोले|

अरे मुनिवर क्या हुआ खुलकर बोलिए हम आपकी शिकायत दूर कर देंगे’ प्रभु ने मुस्कुराते हुए कहा |

प्रभु आपने कितने वर्षों से भारत भ्रमण नहीं किया है, भारत भूमि पर आपके कितने ही तीर्थ स्थल हैं |कितने तो आपके अलग अलग अवतार में जन्मस्थान भी हैं | सारे पृथ्वी वासी इतना पैसा खर्च करके तीर्थयात्रा करते हैं क्योंकि वो मानते हैं कि वहां आपका वास है | पर आप तो वर्षों से वहां गये ही नहीं | आपके भक्त आपके दर्शन के लिए कितने कष्ट उठाते हैं जरा चलकर देखिये तो सही” नारद जी ने अपनी परेशानी बताई |

क्या हुआ मुनिवर ?आप विस्तार से बताइए ,

नहीं हम कुछ नहीं बताएँगे आपको स्वयं चलना होगा नारद जी बालक की तरह ठुनके।

हम अपनी दिव्य दृष्टि से यही से भ्रमण कर लेते हैं” ,प्रभु बोले |तभी लक्ष्मी जी बोली “प्रभु आप बहुत आलसी हो गये हैं , कहीं जाना ही नहीं चाहते ,देखिये तो तोंद भी निकल आई है बैठे बैठे ,जब मुनिवर इतना अनुनय कर रहे हैं तो चले जाइये न | आपका तो कहीं जाने का मन ही नहीं करता, कितने समय से तो हमें भी कहीं घुमाने नहीं ले गये|

विष्णु जी हँस कर बोले देवी नाराज क्यों होती हो,चलिए आप भी साथ ही चलिए | कहिये मुनिवर कहाँ चलना है ?

प्रभु हम भारत भ्रमण करेंगे पर पहले हम बृज से शुरू करेंगे जहाँ आपने कृष्ण अवतार लिया |

लक्ष्मी जी तुनककर बोली “नहीं हमें नहीं चलना है ,भारत भूमि महिलाओं के लिए सेफ नहीं है और हम तो लक्ष्मी हैं बिना जेवर के नहीं जा सकते और वहां तो कोई महिला चेन भी नहीं पहन सकती वो भी लूट लेते हैं |ना बाबा ना आप ही जाइये

अरे बाप रे आपको इतनी सारी जानकारी किसने दी भारत भूमि के बारे में” भगवान बोले |

हमें हमारी सहेलियों ने बताया” वो अक्सर भ्रमण के लिए पृथ्वी लोक पर जाती रहती हैं |

तभी नारद जी हाथ जोड़कर बोले “माते आप कह तो ठीक रही हैं ,पर हम मथुरा वृन्दावन चल रहे हैं जहाँ प्रभु ने कृष्ण अवतार लिया था और तभी प्रभु ने वहां की महिलाओं को आत्मरक्षा के गुर भी सिखा दिए थे | वहां की महिलाएं ऐसे लट्ठ चलाती हैं कि पुरुष भी डरते हैं और हम दोनों भी हैं आपके साथ फिर डरना कैसा ?

प्रभु आप दोनों साधारण मनुष्य का भेष धारण कर लीजिए और अपनी आँखों पर ऐनक जरुर लगा लीजियेगा” नारद जी ने भगवान से कहा |

भगवान और लक्ष्मी जी तैयार हो गये और बोले “मुनिवर हम अपनी यात्रा प्रारंभ कहाँ से करेंगे?

प्रभु हम सर्वप्रथम मथुरा चलेंगे और वहाँ हम स्टेशन से प्रवेश करेंगे जिससे यात्रियों की सही स्थति आपको समझ आये | नारद जी ने खुद को बुजुर्ग में परिवर्तित किया और पलक झपकते ही तीनों स्टेशन की भीड़ भाड़ में घुस गये धक्का मुक्की करते हुए जैसे ही तीनों बाहर आये उन्हें ऑटो और रिक्शे वालों ने घेर लिया | जहाँ लोग सही सही पैसे तय करने के लिए बहस कर रहे थे | वहां रिक्शे वाले बाहरी यात्रियों को दूनादून पैसे मांग कर परेशान कर रहे थे |

लक्ष्मी जी परेशान हो उठी और वोली “प्रभु यहाँ तो कितनी गंदगी है और रिक्शेवाले भी सबको परेशान कर रहे हैं यहाँ की सरकार कुछ नहीं करती |”

प्रभु बेचारे खुद परेशान थे क्या जबाब देते और नारद जी दोनों को देखकर मन ही मन मुस्का रहे थे | फिर धीरे से बोले देवी हम यहाँ से अदृश्य होकर सीधे होली गेट पहुँचते हैं |वहीं से पैदल आगे की यात्रा करेंगे और द्वारिकाधीश मंदिर चलेंगे |

अब तीनों होलीगेट पर पहुंचे तो वहां का नजारा देखकर परेशान हो गये नाला रुका था, सीवर का गन्दा पानी टखने तक बह रहा था जगह जगह कूडे के ढेर लगे थे |

हे प्रभु हम नर्क में नहीं आ गये गलती से” लक्ष्मी जी बोली।

“अरे नहीं देवी यहाँ तो ये नजारा अक्सर होता है सफाई कर्मचारी हड़ताल पर होंगे” नारद जी ने जानकरी दी  |

अब ये हड़ताल बेचारे प्रभु की समझ से बाहर थी | क्योंकि देवलोक में कोई देवता हड़ताल नहीं करता, ये सब सुविधाए सिर्फ हमारे पृथ्वीलोक पर इसी देश में ही उपलब्ध हैं | पर भगवान एकदम शांत थे और लक्ष्मी जी अपनी साड़ी  ऊपर उठा कर उचक उचक कर चलने का प्रयास करने लगी | जैसे तैसे वो लोग कुछ आगे बढे थे कि शोर सुनाई दिया

“हट जइयो ,हट जइयो”

तीनों भीड़ की रेलमपेल में एक दुकान पर चढ़ गये | देखा तो पता लगा कि एक सांड भागा भागा आ रहा है और उसके पीछे पीछे लोग दौड़ रहे थे| इस नज़ारे को देख कर  बेचारी लक्ष्मी जी घबरा गई थी | बाजार में गंदगी भी बहुत थी सो वो प्रभु के साथ रिक्शे पर सवार हो आगे चली दूसरे रिक्शे में नारद जी सवार हो गये | पूरा बाजार और रास्ता गंदगी का ढेर लग रहा था | लोग भगवान का नाम लेते हुए नाक ढँक कर चल रहे थे |लक्ष्मी जी भी बदबू से परेशान थी कुछ ही देर में वो लोग विश्राम घाट पहुंचे जहाँ उन्हें यमुना जी के दर्शन करने थे पर ये क्या ? उन्हें बहुत सारे लोगों ने घेर लिया वो लोग उनसे पूजा करने की और शहर घुमाने की दान पुन्य की बात कर रहे थे नारद जी ने बताया कि ये यहाँ के पंडा लोग हैं | ये पंडे पुरोहित हर त्रीर्थस्थान पर मिल जायेंगे| अभी वो लोग उस भीड़ से पीछा छुड़ाने का प्रयास कर ही रहे थे कि कुछ लोग चिल्लाये चश्मा उतार लो बन्दर ले जायेंगे | जैसे तैसे सीडियां उतर कर यमुना जी की पूजा करने पहुंचे पर यमुना का हाल देखकर भगवान की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | इतनी गंदगी, इतनी बदबू प्लास्टिक की थेलियां कूड़ा करकट देखकर तीनों उदास हो उठे थे अभी इस दुःख से उबर भी नहीं पाए थे कि तभी किसी का प्रसाद का डिब्बा बन्दर ले उड़े और मिठाई की छीनाझपटी में सारे बन्दर आपस में लड़ने लगे शांत माहौल मिनटों में बदल गया | वहां से अपनी जान बचा कर तीनों द्वारिकाधीश मंदिर पहुंचे जो वहां से निकट ही था | मंदिर के पास दूसरे पंडे इंतजार कर रहे थे उनसे जान छुडा कर जैसे तैसे तीनों मंदिर में पहुंचे | मंदिर साफ़ सुथरा था ,राजाधिराज को खूब सजाया गया था तीनों खुश थे प्रभु का शृंगार देख कर उन्हें लगा कम से कम यहाँ तो प्रभु की सेवा हो रही है |पर वहां प्रसाद पाने के लिए प्रभु को भी रुपये देने पड़े | दर्शन करके जैसे ही नीचे आये और अपनी चप्पल खोजी तो पता लगा उन्हें कोई उड़ा ले जा चुका था और मंदिर के | अब तो लक्ष्मी जी बहुत ही दुखी हो गई और बोली

“प्रभु मथुरा को तो तीन लोक से न्यारी कहा जाता है पर मथुरा की ऐसी दशा देखकर तो हमारा मन बहुत दुखी हो चुका है | लोगों की आपमें श्रद्धा तो देखिये इतनी परेशानियों के वावजूद यहाँ आपके दर्शन को आते हैं |”

प्रभु चुपचाप आकर एक रिक्शे में बैठ गये और जन्म भूमि की और चलपड़े लक्ष्मी जी और नारद जी भी चल पड़े | पर जन्म भूमि के हालात तो और भी बदतर थी जगह जगह भीड़ गंदगी ,मीट की दुकान और तो और प्रभु तो मानो आज भी जेल में बंद थे उनके दर्शन की टिकट लग रही थी | ऐसा लगा मानो बेचारे भगवान भी परेशान होकर अपने भगवान को याद कर रहे थे | जन्म भूमि के दर्शन करके नारद जी ने प्रभु से कहा

प्रभु अब आप कही आराम करेंगे या हम वृन्दावन चलें? प्रभु कुछ बोलते उससे पहले लक्ष्मी जी बोली

“प्रभु पहले हमें अपने लिए चरण पादुका लेनी होंगी | हम थक भी गये हैं पर यहाँ हमें आराम के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई दे रहा ,हर जगह भीड़ है |

नारद जी बोले “देवी हम ऑटो लेकर या माया से वृन्दावन चलते हैं वहीं निधिवन में आराम भी कर लेंगे।“

तीनों वृन्दावन के लिए निकल पड़े | रास्ता साफसुथरा था सड़के भी अच्छी थी लेकिन जैसे ही वृन्दावन पहुंचे वही भीड़ भाड़ और गंदगी | रास्ते में आश्रम पड़ा जहाँ अनेक बीमार विधवाएं बहुत बुरे हालात में थी उन्हें देखकर लक्ष्मी जी उदास हो गई और बोली

“ये सब इतनी वृद्ध और क्षीणकाय हैं कैसे अपने काम काज करती होंगी? कौन इनका ध्यान रखता होगा ? ये यहाँ क्यों रह रही हैं ?

नारद जी बोले, “देवी इन्हें इनके परिवार ने यहाँ भेजा है ईश्वर की खोज में | ये सभी विधवा हैं | और भजन पूजन करके अपना पेट पालती है |

हे भगवान कितना गलत तरीका है क्या घर बैठ कर प्रभु का ध्यान नहीं हो सकता क्या ? प्रभु आपसे एक विनती है आप इनका उद्धार जरुर करियेगा”

लक्ष्मी जी बोली पर ये क्या प्रभु की आँखों में आंसू प्रभु का ह्रदय भी द्रवित हो चुका था | वो तीनों बिना कुछ कहे चल पड़े बाँके-बिहारी मन्दिर की तरफ़ और तभी नारद जी का चश्मा बन्दर उतार कर ले गया और वो परेशान इधर उधर देख रहे थे लक्ष्मी जी हँस पड़ी तभी कुछ लोग चिल्लाये अरे बन्दर को प”प्पू छाप” बिस्कुट खिलाओ चश्मा छोड़ देगा | फिर चला पप्पू छाप बिस्कुट का दौर जो दो रूपये का था और बन्दर महाराज  १० रुपये डकार चुके तब चश्मा फेंका पर तब तक चशमे को तोड़ मरोडकर मोर बना दिया था | बाद में पता चला कि बन्दर रोज किसी का चश्मा उड़ा लेते हैं और अपना पेट भर लेते हैं कुछ लोगों का बिजनेस चल पड़ा है कुछ इस लाइन के एक्सपर्ट हो गये हैं यानि पप्पू चाप खिलाकर चश्मा छुडाने में यानि बन्दर भी खुश और मनुष्य भी | लक्ष्मी जी और प्रभु इस नज़ारे को देख खुश थे |अब वो लोग बांके बिहारी की तरफ चले पर उस गली में इतनी भीड़ थी की वो लोग धक्कामुक्की करते हुए भीड़ के रेले के साथ ही मंदिर पहुँच गये पर मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई मंदिर के अंदर पहुँच दर्शन करना इससे बड़ी चुनौती थी पर तीनों ने हिम्मत दिखाई और अंदर पहुँच गये पर अंदर जाकर भी मानसिक दर्शन से ही काम चलाना पड़ा | अब प्रभु के इशारे पर तीनों अपनी माया यानि प्रभु शक्ति से सीधे निधिवन के पास पहुंचे और निधिवन में प्रवेश किया |वहां की शान्ति और भक्तिमय वातावरण में पहुँच कर प्रभु और देवी बहुत प्रशन्न हुए और वही बगीचे में आराम फरमाने लगे | जहाँ पूरे शहर भाग दौड़में किसी भक्त ने प्रभु की तरफ देखा तक नहीं वहां इस समय बन्दर और पक्षी प्रभु को देखकर झूम रहे थे | तभी नारद जी ने प्रभु से पूछा

“प्रभु मथुरा वृन्दावन कैसा लगा ? क्या आप अब गोवर्धन और बरसाने भी चलेगे ? प्रभु बोले मुनिवर तुमने बृज में लाकर हमारी आँखे खोल दी पर हमारा ह्दय बहुत दुखी है इस विश्व प्रसिद्द तीर्थ का ये हाल देख कर, वाकई आज के भक्तों की तपस्या हमारे उन भक्तों से कठिन है जो बैठ कर वर्षों तप में लीन रहते थे | अब हम वापिस चलेंगे पर बहुत जल्द आयेंगे |एक बात और शहर की हालात सुधरना तो यहाँ की सरकार का काम है मगर हम वादा करते हैं जो हमारी भक्ति के लिए इतने कष्ट उठा रहे हैं उन्हें हम मुक्ति देंगे और जो उन्हें इतना कष्ट सहने को मजबूर कर रहे हैं अपना काम सही तरह नहीं कर रहे उन्हें सजा जरुर देंगे और स्वर्ग में उनका प्रवेश वर्जित ..................नारद जी और लक्ष्मी जी मुस्कुराते हुए विष्णुपुरी की और चल दिए |


व्यंग्य - होली रे होली - अर्चना चतुर्वेदी

होली रंगों का त्यौहार है, सब आपस में रंग गुलाल लगाते हैं | होली पर गुझिया और तरह तरह के पकवान बनते हैं | होली पर भांग और ठंडाई बनती है किसी किसी के घर कांजी का पानी भी बनता है होली सबका त्यौहार है | अरे छोडो जी ....जे तो पुराने ज़माने में होता था ..........अब ना मनती ऐसी होली | न ही अब ये आम आदमी का त्यौहार है ये तो कुछ खास लोगों का ही त्यौहार है जैसे नव विवाहितों का जिनके दिल में होली के नाम से ही रंगभरे गुब्बारे फूटते हैं और खुद को राधा कृष्ण समझ एक दूसरे में मगन हो जाते हैं उसके आलावा सबसे ज्यादा ये त्यौहार हास्य कवियों का है , देखो भाई पूरे साल तो इन हास्य कवियों और व्यंग्य कारों को कोई पूछता नहीं है पर होली का सीजन आते ही इनकी पूछ और भाव दोनों ही बढ़ जाते हैं यानि जैसे गर्मियों में कूलर एसी और सर्दियों गीजर और हीटर के भाव बढते हैं कुछ कुछ उसी टाइप में |जो कवि पूरे साल आपके पीछे पड़े रहेंगे कि एक प्रोग्राम दिलवा दो वो होली सीजन में आपसे ऐसे बात करेंगे मानो एश्वर्या राय के ससुर ये ही हों | रेट भी दो हजार से सीधे बीस हजार पर पहुँच जायेंगे | इस वक्त यानि होली के आस पास किसी छोटे से छोटे हास्य कवि को भी पकड़ नही सकते सब के सब प्री बुक्ड होंगे और व्यंग्यकार होली विशेषांको के लिए माल तैयार करने में, इस वक्त हास्य व्यंग्य की  मांग इतनी अधिक होती है कि पुराना और बेकार माल भी खप जाता है, जैसे दीवाली पर मिलावटी खोया खप जाता है उसी तरह होली पर सब चल जाता है |हास्य व्यंग्यकारो के अलावा जिसका ये त्यौहार है वो है चर्म रोग विशेषग्य यानि स्किन स्पेशलिस्ट अरे भई जिस देश में खाने पीने के सामान में मिलावट होती है वहाँ के रंगों का क्या हाल होगा ? और जब मिलावट होगी तो त्वचा का क्या हाल होगा जब त्वचा खराब होगी तो त्वचा का डाक्टर ही काम आएगा तो हुआ न उन्ही का त्यौहार | वैसे तो भांग और शराब के ठेके वाले भी चाँदी काटते हैं यानी खूब कमाई भले लोग नाली मैं औंधे मुहं गिरे पर होली पर नशा तो जरुरी होता है अजी रिवाज जो है जैसे दिवाली पर जुआ खेलने का वैसे ही होली पर नशा करने का | और अंत में होली उन सभी देवरों का त्यौहार है जिनके लिए होली का मतलब किसी भी भाभी के गालों पर गुलाल लगाने के बहाने स्पर्श सुख लेने से है |


यादों के मेघ : होली दृष्टांकन – पूर्णिमा राय


फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला एवं हर्षोल्लास और रंगों की मादकता का उत्सव होली एक प्रमुख भारतीय त्योहार है। वासंती छटा बिखराता बसंत-दूत होली में अपने चिर यौवन पर होता है। होलिका दहन एवं होली पूजन और रंग खुमारी का विशेष आकर्षण समाहित करने वाला ये पर्व प्रत्येक वर्ग के लोगों को प्रिय है। आसुरी वृत्ति के विनाश और सात्विक भावनाओं का समर्थक होली का पर्व भक्त प्रहलाद की श्रेष्ठता और हिरण्यकशिपु संग होलिका के दहन का प्रतीक है।.....

         गुलाल उड़े
       महकती फिजाएं
          भीगे बदन।

प्रकृति के विभिन्न सौन्दर्यात्मक रूपों.....  जल,अग्नि,वायु,पृथ्वी,आकाश का विलक्षण  दिग्दर्शन होली में दिखाई देता है।पानी की विभिन्न बौछारें नन्हें मुन्नों और युवाओं के हाथ में पकड़ी हुई पिचकारी और गुब्बारों से निकलकर तरंगित होती हैं और मन को आह्लादित करती हैं।आज के दिन पृथ्वी का खिला हुआ आंगन प्रेम ,उल्लास,सौहार्द एवं मिलवर्तन को जीवित कर देता है। अपने परंपरित रुप में यह पर्व भारत में कौमुदी महोत्सव के नाम से मनाया जाता था। ऋषि मुनियों की धारणा के अनुसार राग रंग से भरा होली पर्व ऋतु परिवर्तन को दर्शाता है। धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महत्व को व्यक्त करने वाला एवं भारतीय जनमानस के व्यक्तित्व का अवलोकन करवाने वाला पर्व होली साहित्य,सभ्यताऔर संस्कृति में समय-समय पर हुए बदलाव को भी इंगित करता है। जहाँ पुरातन समय में मनाए जाने वाली ब्रज और अवध की होली का महत्व आज भी अक्षुण्ण है, वहीं सामयिकता में होली खेलने के रूझान में हुए परिवर्तन की झलक भी साफ दिखाई देती है। लोकगीतों में  मर्यादा पुरुषोतम राम और कृष्ण की छवि को केन्द्र में रखकर सृजन किया गया है।ब्रज की होली को हम आज भी भुला नहीं सकते।

      लाये भर पिचकारी
         आगे है राधा
       पीछे लीलाधारी।

भारतीय साहित्य में विशद रुप में ब्रज की होली प्रसंग प्राप्य है।अवध की होली के प्रसंग बहुत कम उपलब्ध हैं .. राम और उनके भाइयों का होली प्रसंग पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है और मन उस दृश्य के आनंद में सरोबार हो जाता है।... यथा___________

"ओ केकरे हाथ ढोलक भल सोहै, केकरे हाथे मंजीरा।
 राम के हाथ ढोलक भल सोहै, लछिमन हाथे मंजीरा।
 ए केकरे हाथ कनक पिचकारी, ए केकरे हाथे अबीरा।
 ए भरत के हाथ कनक पिचकारी शत्रुघ्न हाथे अबीरा।
 अवध माँ होली खेलैं रघुवीरा।....."

काश !आज भी त्रेतायुग वाला भाइयों का प्रेम दिखाई देता।आज भाई-भाई के खून की होली खेलकर मन को राहत दे रहा है।सुकून दूसरों का चैन खोकर कभी नही मिलता। आज रंग फीके और बेमानी हो गये लगते हैं ......

              गुलाल नहीं
         बिक रहा होली में
            दुश्मनी बढ़ी।

आज लोग अगर उसी भ्रातृत्व भावना को अपनाएं तो आज भी रामराज्य स्थापित हो सकता है।। अवधी लोकगीतो में राम मिथिलापुर में भी होली खेल रहे हैं, तब मिथिलापुर की एक चतुर स्त्री अपनी सहेलियों से राम के साथ होली खेलने को उतावली नजर आती है।

आज भी होली पर बीती बातें याद आती हैं ।  नारियों का आपसी प्रेम कहाँ लुप्त हो गया।कोई नही जानता।अब वह समय कहाँ ,जब औरतें भी टोलियाँ बनाकर होली खेलती थी ।सरयू नदी के तट पर राम और सीता के होली खेलने का प्रसंग इतिहास प्रसिद्ध है,भूले से भी भुलाए नही जा सकता। आज भी याद है वे दिन जब बिना डर के सब मिलकर होली खेलते थे। लोग जबरदस्ती अपने  रिश्तेदारों ,पड़ोसियों ,दोस्तों के साथ सांझ ढले तक बाहर हो-हल्ला करते थे ,हुड़दंग मचाते थे और पता भी नही चलता था कब और किधर से पानी एवं रंग मिश्रित भरा गुब्बारा देह को लगता था और एक दम से चीख निकल जाती थी।छत पर पानी से भरी बाल्टी ले जाना और चौखट पर आने वाले पर गिरा देना..कितनी प्रसन्नता होती थी।नहा-धोकर बैठना और अचानक रंग गुलाल लिये धमा-चौकड़ी  आ जाती और फिर रंग लगा जाती। कभी छिप जाना,कभी मम्मी-मम्मी चिल्लाना, कभी छत पर जाकर दरवाजा बंद कर देना...फिर वैसे ही रंग लगे हुए मुँह मीठा करवाना,खाना खिलाना...सच कितना मन भाता था...आज भी वे पल स्मरण कर मन रोमांचित हो जाता।तब कोई किसी का बुरा नहीं मानता था। वे यादें आज भी जीवित हैं ,पर खो गया ....स्नेह,समर्पण ,सौहार्द, मिलवर्तन,रंगों की सजीवता,विश्वास और आस्था,......
         
         यादों के मेघ
       तड़पायें होली में
        अखियाँ गीली।।

डॉ.पूर्णिमा राय,(98721-11070)
 शिक्षिका एवं लेखिका
    अमृतसर।(पंजाब)

*****

[साहित्यम के नियमित पाठक कमलेश पाण्डेय जी से भली-भाँति परिचित हैं। साहित्यम के गद्य-विभाग के व्यंग्यालेख इन ही के सौजन्य से हम सभी तक पहुँचते हैं। इन्हों ने साहित्यम के अंकों को ले कर सदैव तत्परता दिखलाई है और अपना यथेष्ट योगदान भी दिया है। हम सभी इन के बहुत-बहुत आभारी हैं। आइये देखते हैं इस बार कमलेश भाई के पिटारे में से क्या-क्या निकलता है। ]

होली है!

हँसते हो कि......बरसाना से बिनोद मिश्र.

बकलम कमलेश पाण्डेय जी –

दोस्तों, होली के साथ हास्य का रिश्ता कब तय हुआ, मुझे नहीं मालूम. इसे तो रंग, तरंग, हुड़दंग और भीगे हुए अंग-प्रत्यंग की तुकों से जोड़ा जाता रहा है. मुझे लगता है कि इसी लय में आदमी मिजाज़ से मलंग हो जाए तो होली का सच्चा लुत्फ़ ले सकता है. इस लिहाज़ से होली का हँसी से रिश्ता जुड़ता है, क्योंकि मलंग मन ही जी खोल कर हंस पाता है. इसी लिए साहित्य ने इस मर्म को पहचान कर होली के मौके पर हास्य-व्यंग्य का सेवन ठंढई और गुझिया की तरह ही अनिवार्य कर दिया.

इस होली आपकी पत्रिका साहित्यम को इसी ऑक्सीजन से दुबारा खडी करने की कोशिश में पेश हैं कुछ चुनी हुई हास्य-व्यंग्य रचनाएं.

पहली रचना हिंदी व्यंग्य के सबसे सशक्त हस्ताक्षर डा. ज्ञान चतुर्वेदी की अद्भुत रचना “शादी नृत्य निर्देशिका”है , जिसमें हँसते-हँसते आप कब एक मार्मिक व्यंग्य-बोध से गुजरने लगते हैं पता भी नहीं चलता. होली की सांस्कृतिक व्यंजना के व्यंजनों का एक पूरा दस्तरख्वान है ये रचना.

जाने-माने व्यंग्यकार सुभाष चंदर अपने सहज हास्य-बोध का प्रयोग कर बेहतरीन हास्य कथाओं और उपन्यासों को रचते हैं. हिंदी में हास्य कथा बहुत कम लिखी जाती रही है. सुभाषजी इस कमी को पूरा करने की कोशिश में जुटे रहे हैं. एक विशुद्ध हास्य रस से लिपटी गुझिया का मज़ा देती एक कहानी उनकी कलम से.

आलोक पुराणिक आधुनिक हास्य-व्यंग्य के प्रतिनिधि लेखक हैं. किसी भी घटना पर ग़ज़ब के विट और तुरंत-प्रतिक्रया से जन्मी उनकी लघु रचनाएं इस दौर में सार्वजनिक मीडिया के हर मंच पर छाई रहती हैं. एक चटाखेदार व्यंग्य व्यंजन उनकी ओर से  भी.

डा. निर्मल गुप्त एक संजीदा व्यंग्यकार हैं. उनके अंदाज़ में तीखी मिर्च की तेज़ी रहती है. होली के राजनीतिक माहौल पर तीखे, चरपरे जुमलों से भरे उनके आलेख को दही बड़े पर छिडके मसाले के स्वाद के साथ पढ़ें.

बन्दा भी एक सामयिक प्रसंग पर अपना ताज़ा व्यंग्य लेकर आया है. खट्टा-मीठा, कड़वा यानि सारे मिले-जुले स्वाद वाली चाट जैसा. चख कर देखें.

इस साल की शुरुआत से ही आजादी, देश-भक्ति जैसे कुछ ऐसे मुद्दे चर्चा में रहे जिनके बारे में छह दशकों के बाद देश को यों लगने लगा था कि वे निबट चुके हैं. व्यक्तिगत तौर पर देखें तो अपनी आज़ादी के प्रति सशंकित रहने का अधिकार हर स्त्री-पुरुष को है. पर फिलहाल होली का मौका है सो सारी कुंठाएं, भ्रम, संशय वगैरह ताक पर रख कर जी खोल कर हँसे. हम आपके साथ हैं:


हाँ...ये हुई न हँसी ...फ़ोटो सौजन्य- बिनोद मिश्र.


शादी नृत्य निर्देशिका डा. ज्ञान चतुर्वेदी



आपकी कमर में लोच हो न हो - परंतु यदि आपमें पर्याप्त बेशर्मी, बहुत सारी ढीठता, शर्माने को ठेंगे पर रखने की दृढ़ मानसिकता  तथा पैदाइशी दुस्साहस हो तो आप किसी भी बरात में नाच सकते हैं . यदि  पेट में दारू पर्याप्त हो, बल्कि पर्याप्त से भी अधिक पड़ी हो तब कहना ही क्या. यदि पैंट ढीली न हो और बेल्ट के ऐन मौक़े पर खुल जाने का भय न हो तब तो आप सबको पीट सकते हैं. यदि गठिया न हो, हो भी तो घुटने में न हो, घुटने में हो तो कम-से-कम दोनों घुटनों में न हो, तब तो आप शादी में नाचते हुए क़हर बरपाकर सकते हैं और ऐसे खुल कर हाथ-पांव फेंक सकते हैं कि बैंडवालों से लगा कर घोड़ा तक देख कर चकित रह जाये. यदि आप दूल्हे के दोस्त हों तब तो आपको अधिकार रहेगा कि आप  डांस करते-करते घोड़े की टांगों में घुस जायें. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता  है कि आदमी एक बार हिम्मत भर कर ले तो फिर वह शादियों बरातों तथा ऐसी  ही दीगर पार्टियों में सफल नर्तक सिद्ध हो सकता है। आजकल शह्र में शादियों का सीज़न चल रहा है और लोग बाग़ नाच रहे हैं , पर आपकी परेशानी यह है कि आपको शर्म आती है और चाहते हुए भी आप नाच  नहीं पाते बल्कि आपको आश्चर्य होता है कि कैसे कोई शख़्स सड़क पर यों अपना तमाशा बना सकता है. जबकि सही बात यह है कि आप भी वैसा ही नाचना  चाहते हैं परन्तु शर्म के मारे मरे जा रहे हैं. अब तो आप बरातों में जाने तक से घबराने लगे हैं क्यों कि लोग बिना चेतावनी दिये आपका हाथ पकड़कर बीच में  घसीट लेते हैं और फिर आपके आसपास टेढ़े-मेढ़े होते हुए मटकने लगते हैं. इस प्रकार वे आपको अपने साथ नाचने की प्रेरणा देने का असफल प्रयास करते हैं । नाचेंगे तो खैर क्या आप प्रायः खिसियाते हुए एक-सवा ठुमका लगा कर हाथ छुड़ा कर घेरे से निकल भागते हैं और भीड़ में गुम होते होते भी आपको लगता रहता है कि हंसी उड़ाती और लानतें भेजती भीड़ आपके पीछे आ रही है। आप घोड़े तक से आंखें नहीं मिला पाते...और ऐसे मौक़े पर आपको लगता है कि आपको भी नृत्य सीख लेना चाहिये था। जवानी बेकार ही निकल गयी और बुढ़ापा ख़राब हुआ जा रहा है। शादी-ब्याह में नाच न पाने का मलाल आपको कचोटता रहता है और आपकी अंतरात्मा आपको जूता मारने के लिये घूमती रहती है... पर आप परेशान  न हों । आज मैं आपको बरातों में तथा शादी-ब्याह आदि जैसे अन्य अवसरों पर  कैसे नाचना चाहिये- यह सिखाऊँगा।

शादी में नाचना ऐसा कठिन नहीं है। आपको यह बड़ा कठिन लग रहा है क्योंकि नृत्य के विषय में आम धारणा यह रही आती है कि यह पतली कमर से तअल्लुक़ रखनेवाली कला है। नृत्यांगनाओं तथा नर्तकों की कमर चित्राकारों तथा मूर्तिकारों ने सदियों से पतली ही बनायी है- यही बात आपको परेशान कर रही है। कमर आपकी पतली क्या है ही नहीं। पेट बाहर की दिशा में ऐसे निकला जा रहा है मानो अब लौट कर वापस ही नहीं आयेगा बल्कि आपको पेट बाहर निकल कर धरती के गुरुत्वाकर्षण केन्द्र की तरफ़ लटक कर धूल में लोटने के चक्कर में नज़र आता है और कमर पर कैसे-तो-भी अटकी बेल्ट पर गीले कपड़े-सा लटक रहा है। कहने का तात्पर्य कुल यह कि आपकी कमर मोटी बल्कि फैली बल्कि ख़ासी  फैली या कहिये कि हृदयविदारक किस्म की चीज़ है। पर इन छोटी-मोटी बाधाओं के कारण शादी में नाच नहीं पायेंगे- ऐसा सोच कर दिल छोटा मत करिये. निराश न हों । शरमाते तो ख़ैर आप हैं ही नहीं। शरमाते तो आज पेट की यह हालत न होती कि आपकी तोंद को देख कर यों लग रहा है मानो कि क्षितिज के उस पार से न  जाने कौन उसे पुकार रहा है जो वह तेज़ी से उस तरफ़ बढ़ी जा रही है। वैसे भी शरमाने वालों का बरात में नाचनेवालों के बीच कोई स्थान नहीं है। शादी में शरमाने का अधिकार बस दुल्हन का है- जो आप हैं नहीं। माना कि आप चर्बी के मानसरोवर में डुबकते-उतराते मोटे राजहंस हैं, आपके गाल लटक रहे हैं और हिलते-डुलते हैं तो चर्बी की एक लहर-सी ऊपर से नीचे तक शरीर के चौड़े तट पर उठती-गिरती है-परंतु मात्र इन्हीं कारणों से आप किसी शादी में नृत्य नहीं कर सकते- ऐसा अभी तक भारतीय दंड संहिता की किसी भी धारा में शामिल नहीं किया गया है। किया जाना चाहिये- यह हम भी मानते हैं और मान लें कि ऐसा कोई क़ानून बन भी जाये- तो भी डरना क्या। आखि़र गांधी जी ने भी अंग्रेज़ों का नमक क़ानून तोड़ा था कि नहीं - सो आप शरमाइये मत। उस मोटी महिला पर नज़र डालिये। कैसी पछाड़ें खाती हुई नाच रही है। बस आप भी उतर जाइये। सो आप तैयार नहीं - चलिये।

मान लीजिये कि वह शुभ अवसर आ गया है कि जब बैंडवाले गाल फुला कर पींपनी फूंक रहे हैं, ढोल बज रहे हैं, बरात बीच सड़क पर जा रही है और देश की आम जनता घरों की छतों से या स्कूटर पर आते-जाते या कार की खिड़की से या सड़क के किनारे की नाली के दोनों तरफ़ पांव धरे हुए आपको आशा की  दृष्टि से निहार रही है, उसे आप पर पूर्ण विश्वास है कि आप भी नाचेंगे। काफ़ी लोग तो दूल्हे के घोड़े के आगे पहले ही ऐसा तड़पते हुए उलट-पलट कर मटक  रहे हैं, मानों किसी ने बरछी घोंप दी हो, वो तो घोड़ा धैर्यशील प्राणी होता है, वरना अभी तक किसी को काट लेता। कभी किसी कुत्ते के सामने ऐसा उजबक नाच कर दिखलाइये...खैर। तथ्य यह है कि सभी नाच रहे हैं और आप शरमाये हुए भीड़ में छिपे जा रहे हैं । शरमाइये मत- यह मैं पचासवीं बार कह रहा हूं। और सौ बार और  कहूंगा। आप तो ऐसा तो करिये कि घेरे के बीच उतरिये और हिलना शुरू कर दीजिये,  यहां हिलना ही नृत्य है। चलिये, आप उतरे तो। बहुत बढि़या, अब आप थोड़ी देर  यों ही मटकिये और किसी अदृश्य रस्सी पर कूदते रहिये, ठीक! अब आप थरथरना  शुरू कीजिये, कैसे करें? यार! यह तो हद हो गयी। आप ज़रा-सा थरथरा नहीं सकते!  कभी मलेरिया नहीं हुआ क्या आपको? तो बस वैसे ही। जोर-ज़ोर से थरथराइये। ऊपर से लेकर नीचे तक हिलिये। फिर हिलते ही रहिये। बीच-बीच में टांगों को ऐसे ज़ोर से तथा ऐसे अचानक किसी भी अप्रत्याशित दिशा में फेंकिये कि जैसे पैंट में काली चीटियां घुस गयी हों ...। या ऐसा करिये आप तो कि कुछ देर तक लगातार ही हाथ-पांव फेंकते रहिये, जैसे कुछ बहुत छोटे बच्चे किसी चीज़ की ज़िद करते हुए ज़मीन पर लोट कर हाथ-पांव फेंकते हैं न, ठीक वैसे ही, और बच्चा तो तभी तक फेंकता है कि जब तक वह दो थप्पड़ न खा जाये, आपको तो उसका भी डर नहीं। आप तो दिल खोल कर फेंकते रहिये। डर यह है कि आप कहीं बगल वाले की लात न खा जायें, क्यों  कि वह भी आपकी तरह  हाथ-पांव मार रहा है। चारों तरफ़ दे-दनादन मची हुई है और जगह ज़रा-सी है। संकरे समधियाना निभाना है। छोटी-सी जगह में ही सारा नृत्य कौशल बघार देना  है। शादी में नाचना इस लिहाज़ से कठिन कार्य है। ‘डांस फ्लोर’ छोटा-सा है और भरतनाट्यम से लगा कर कबड्डी डांसर तक इसी एक फ्लोर पर एक साथ शो दे रहे हैं। फिर बीच-बीच में दर्शक भी घूम-फिर रहे हैं । गोबर, पेशाब, गड्ढे, कंकड़,  टूटी हुई ईंटें, गिट्टियां , चिकनी मिट्, कांच के टुकड़े, नाली का पानी, बजरी - न  जाने क्या-क्या बिखरा हुआ है सड़क पर और इन सबके ऊपर निस्पृह भाव से नाचते हुए आप...। जब तक आदमी स्वयं के शरीर में पाकीज़ा की मीना कुमारी  तथा शोले की हेमा मालिनी की आत्मा को उतरा न महसूस कर ले, तब तक वह  वैसा नहीं नाच सकता, जैसा इस टूटी सड़क पर जाती बरात में नाचा जा रहा है। इस हाहाकार के बीच नाचना कुंडलिनी साधने जैसी कठिन विद्या है, पर आप चिंता न करें । आपसे नाचा नहीं जा रहा है।

परेशान न हों। ऐसा नहीं है शादी में नाचने का यही एक तरीक़ा है। नृत्य की शैलियों का तो आपको पता ही है कि कितनी तरह की और कितनी सारी होती हैं । भरतनाट्यम से चलो, तो ठुमकते हुए कुचिपुड़ी तक नाचते चले जाओ। फिर शादी के नाच का तो और भी मज़ा है। अपनी शैलियां है इसकी। मान लो कि मलेरिया आपको पसंद न आया हो, तो मिर्गी के दौरे को पकड़ लीजिये। भयंकर शोर से हाथ-पांव फेंकते हुए ऐसे टेढ़े- मेढ़े होइये और होते ही जाइये कि लोग जूता सुंघाने को मचल उठें । एक और शैली ख़ासी लोकप्रिय है शादी के नर्तकों के बीच। इसमें आपको करना यह होता है कि कमर मटकाते हुए नीचे की दिशा में घुटने मोड़ते जाइये और ऐसे मोड़ते जाइये कि लगे कि पृथ्वी का  गुरुत्वाकर्षण केन्द्र आपको आमतौर पर और आपके पिछवाड़े को विशेष तौर पर अपनी तरफ़ खींच रहा है। मटकते हुए नीचे को आइये और मटकते हुए ही फिर ऊपर आने की कोशिश कीजिये। ऊपर  आते हुए यदि हाथों से ऐसा कर सकें, मानों  रस्से पर चढ़ रहे हैं, तब आपकी इस उजबक हरकत में एक ‘एथनिक टच’ आ  जायेगा, जिसकी इन दिनों बड़ी मार्केट वैल्यू है। वैसे, नृत्य में ‘एथनिक टच’ लाने का सर्वोत्तम तरीक़ा यह है कि आप रूमाल  को दांतों मे फंसा कर दोनों हाथों के बीच खींच कर बीन जैसा बना लें, और फिर इस ‘बीन’ को मुंह में लिये-लिये, घुटनों पर आधा झुके हुए, हवा में बैठे-लेटे तथा  खड़े के बीच की किसी मुद्रा में हिलते हुए, कमर मटकाते हुए बीन बजाना शुरू कर दें। बैडवाले मन डोले, तन डोले की धुन बजाने ही लगेंगे। इस बीन डांस में थोड़ी दिक्क़त यह होती है कि इसे किसी के आसपास घूम-घूम कर बजाना होता है। सो किसी को पकड़ लीजिये और रूमाल को बीन-सा हिलाते हुए नाचिये, ध्यान रहे कि किसी बुजुर्गवार के आसपास घूमते हुए बीन डांस करने की गलती न हो। पता नहीं कि मूल कारण कहां है, परन्तु यह देखा गया है कि बुज़ुर्ग लोग शादी  में किसी भी तरह के नृत्य के विरुद्ध होते हैं । वे नाच-गाना बर्दाश्त नहीं करते या लंबे वैवाहिक जीवन के कष्टों से गुज़र चुके होने के कारण शादी पर मनाई जा रही ख़ुशी के खिलाफ़ होते है, या शायद सपेरों को पसंद नहीं करते, या मात्र कब्ज़ियत के कारण चिड़चिड़ाये रहते हैं -कहने का तात्पर्य यह है कि कारण जो भी हो, पर वे ऐसे नाच-गाने के प्रायः विरुद्ध होते हैं और नृत्यरत आपको लतिया  सकते हैं । ख़ास तौर पर नागिन डांस करते हुए बुजुर्गों से तनिक दूर ही रहना उचित होगा क्योंकि इस डांस में आपके घुटने आधे मुड़े हुए है, पिछवाड़ा लात को आमंत्रण-सा  देता-सा पीछे की तरफ़ निकला आ रहा होता है। हाथ बीन को साधने में व्यस्त  होते हैं- यह स्थिति एकाएक वार होने की हालत में सुरक्षित नहीं मानी जा सकती। हमारे एक मामा जी ने ठीक ऐसे ही पोजीशन में बीन डांस करते हुए छोटे भाई को पीछे से वो करारी लात जमाई थी कि वह बीन समेत घुटनों के बल घिसटता  हुआ उन बुज़ुर्ग की टांगों के बीच घुस गया था जो गैस-बत्ती सिर पर धर कर बरात के साथ-साथ चल रहे थे और स्वयं भी इस नाच-गाने के उतने ही ख़िलाफ़ थे। पर उनकी नाराज़गी का कारण दूसरा था। आधे भरे पेट और कमज़ोर टांगों पर खड़े होकर कभी सिर पर गैस-बत्ती धरिये और फ़िर घंटों यह नाच-गाना झेलिये तो सारा कुछ आपको इतना अश्लील व घटिया लगने लगेगा कि आप भी शादी में नाचने वालों को लतियाना चाहेंगे।

एक और शादी-नृत्य होता है, न हो तो वही कीजिये न! इसमें मूल मुद्दा कमर  को मटकाना होता है। क्या कहा? कमर नहीं है! पेट तो है। कमर से हमारा तात्पर्य यहां शरीर के उस हिस्से से है, जिस पर आपने बिस्तरबंद या होल्डाल की भावना  के साथ बेल्ट या नाड़ा क़स रखा है। अब यह जो या जैसा है, हम इसे कमर कहेंगे। आप इसे ही आगे-पीछे हिलाना शुरू कर दीजिये। तीन बार आगे फिर तीन बार  पीछे या चार बार कर लीजिये, यदि आगे की दिशा में कमर हिलाते हुए अश्लील इशारे भी साथ-साथ साध सकें तो आप बॉक्स ऑफिस हिट मसाला सिद्ध होने वाले हैं। अब दो बार दायें, दो बार बायें, या तीन बार कर लीजिये। फिर वही और पीछे...बस...यही करते रहिये। घूम-घूम कर करिये, चारों तरफ़ करिये, घुस कर करिये। आसपास करिये। बस इतना देख लीजिये कि बेल्ट मजबूती से बंधी हो तथा पेंट की सिलायी पीछे की तरफ़ अतिरिक्त मज़बूत हो। मटकते हुए यह भी ध्यान  रखिये कि कहीं कोई आपके आसपास हाथ-पांव फेंकता हुआ मिर्गी-डांस विशेषज्ञ तो साधनारत नहीं है-ऐसा हो, तो पीछे की दिशा में गति करते हुए उसकी आगे की दिशा में लहराती लात का ध्यान रखिये। यदि आपसे यह सब न सध सके, तब आप फिर हमेशा का आज़माया नुस्ख़ा ही इस्तेमाल कर लें, जो कभी फ़ेल नहीं होता, आप अपने दोनों हाथ कंधे से ऊपर उठा लीजिये, अपनी दोनों तर्जनियों को आसमान की दिशा में कर लीजिये और फिर एक टांग कूल्हे तक मोड़ते हुए सामने वहां तक उठाइये कि जहां से आगे जाने पर या तो वह जड़ से उखड़ जायेगी या फिर आप फिसल का मुंह के बल ज़मीन पर आ जायेंगे। अब आप दोनों हाथ उठाये, एक टांग पर खड़े हों और तर्जनियों को यूं उठाये मानो आसमान में छेद करने का इरादा ठाने हों । अब आप उसी एक टांग  पर टिड्डे जैसा यहां वहां उछलने लगिये और उछलते हुए बीच-बीच में ‘बल्ले-बल्ले’  ‘बल्ले-बल्ले’ चिल्लाइये, कुछ देर तक यही चलने दीजिये। पर एक टांग पर थक गये होंगे न, चलिये, फिर दोनों टांगों पर आ जाइये, हाथों को ऊपर से नीचे लाते हुए सामने कर लीजिये, उंगलियां आसमान में गड़ाये रखिये और अब दोनों टांगों पर ऐसे उछलना शुरू कर दीजिये मानो किसी ने आपको गरम तवे पर बिठा दिया हो...और हां, ‘बल्ले-बल्ले’ को भूलिये मत। वह चलने दीजिये...इतना करते ही बरात में साथ चलने वाले समझ जायेंगे कि आप भांगड़ा जैसा कुछ करने पर उतारू हैं और आप से दूर रहना ही श्रेयस्कर होगा। बल्कि वे लोग भी बीच-बीच में ‘बल्ले-बल्ले’ की चीत्कार करके आपके अपराध में चवन्नी भर साझेदार बनने का  प्रयास करेंगे... वास्तव में हमारे देश में दो तरह के भांगड़ा नर्तक हैं, एक वे- जो भांगड़ा सीख कर नाचते हैं और दूसरे वे जिनका स्वयं का अपना एक अदद भांगड़  होता है। ज़ाहिर है, आप दूसरी श्रेणी से तअल्लुक़ रखते हैं । टांग उठाने, तर्जनी दिखाने को ही आपने भांगड़ा माना तथा जाना है। फिर अपना ‘बल्ले-बल्ले’ तो है ही। इसे बीच-बीच में ज़ुरूर बोलते रहिये ताकि सबको समझ में आ सके कि आप क्या कर रहे हैं, वरना कोई आपको जूता सुंघानेकी कोशिश भी कर सकता है। कुछ छोटी-मोटी बातें और। आप जो भी नृत्य शैली अपनायें। इन बातों का और ख़्याल रखें तो सफल और निष्णात शादी डांसर बन जायेंगे। एक बात तो यह कि आजकल बरात के फ़ोटो खींचने का मारक शौक़ पूरे शबाब पर चल रहा है। वीडियो कैमरे वाला तार लटकाये साथ-साथ भागता चलता  है। सही नाचनेवाला कैमरे का ध्यान धरके नाचता है। आप भी कैमरे का ध्यान धरिये। उसी के आसपास कमर आंदोलित करिये। कैमरे के लैंस के सामने से इतनी तेज़ी से आते-जाते रहिये कि किसी और शरीफ़ आदमी की फ़ोटो ही न खिंच सके। लोगों को धकेलिये। मटकते हुए लातें चलाइये। कैमरे पर आप तो चढ़ जाइये। आदमी के मन में लगन और पेट में अद्धी पड़ी हो, तो फिर कोई उसे कैमरे की पूरी मेमोरी लूटने से रोक नहीं सकता। कैमरे के पीछे ऐसे लग जाइये, जैसे महीवाल  सोहनी के पीछे लग गया था बस ख़याल रहे कि तारों से बच कर चलियेगा। वीडियो कैमरे के तार आसपास ही से जा रहे होते हैं। इनमें टांगें न उलझा  लीजियेगा, आदमी को धूल चाटते कितनी देर लगती है! एक और बात। जैसे-जैसे दुल्हन का घर पास आता दिखायी दे। आप ऐसा विकट नाचिये कि बरात आगे न बढ़ने पाये। पूरी सड़क को खंगाल डालिये। घूम-घूम कर ऐसा जबर नृत्य कीजिये कि घोड़े को निकलने की गैल न मिले। फसूकर निकालते हुए  नाचिये। बुजुर्गों को अपने साथ खींच कर नाचिये। घनन-घनन कीजिये। सनन-सनन  होइये। घोड़े की टांगों में आइये। यहां से वहां तेज़ी से जाइये। एक टांग पर कूदिये.... तात्पर्य यह कि हाहाकार मचा दीजिये, पर बरात को रोक लीजिये। पर याद रखिये कि घोड़े की टाप मज़बूत होती है और लीद फिसलन भरी। फिर आपके पेट में जो मुफ़्त की पड़ी है, उसका भी ख़याल रखिये। वैसे भी, मुफ्त की मिल रही हो तो आप तब तक पीते हैं, जब तक कि आपकी जान के लाले न पड़ जायें पर  इन बातों को दूसरे कोण से देखें तो यही चीजें आपकी मदद भी कर रही हैं। दारू के बिना बीच सड़क पर वैसा नंगापन करना कठिन है, जैसा आप मज़े लेकर तथा गर्वपूवर्क कर रहे हैं और लीद इत्यादि की पिफसलन का सहारा न होता तो आप  बिजली की-सी चपलता से पूरी सड़क पर भाग-भाग कर कैसे नाचते? परिस्थितियां आपके साथ हैं । दुल्हन केघर का दरवाज़ा सामने आ रहा है। लड़की के बाप के पेट में घबराहट तथा बेचैनी भरी मरोड़-सी उठ रही है। घराती हाथ जोड़ रहे हैं कि अब नाच-गाना निबटा कर दूल्हे को दरवाज़े तक पहुंचा दिया जाये। बस यही मौक़ा है, जब आप लड़की वालों पर ज़ाहिर कर सकते हैं कि आप कितने नंगे हैं ताकि बाद में वे पूरी शादी के दौरान  दूल्हे के पश्चात आपकी ही सबसे अधिक क़द्र करेंगे और याद रखें कि इस शख़्स की पूरी सेवा-टहल होती  रहे- यह स्साला कुछ भी कर सकता है. यह करना है, तो लड़की के दरवाज़े पर ऐसा चरम नाचिये कि स्थिति तनावपूर्ण व नियंत्रण के बाहर हो जाये। लोग आपकी तपस्या भंग करने का प्रयास करेंगे। वे घोड़े वाले को इशारा करेंगे। आपको ‘बेटा –बेटा’ कह कर पटायेंगे। आप से नृत्य समाप्त करने के लिये हाथ जोड़ेंगे। पर आप मानिये ही मत। अवसर ख़ुशी का है। सो, कोई भी आपको दो लातें मार कर, सड़क पर पटक कर, आपके कपड़े फाड़कर, चार जूते नहीं मार सकता- और आपका तो सबको पता ही है कि इतने से कम में आप कभी, किसी भी जगह से हार मान कर हटे नहीं हैं । बातें तो और भी बताने की हैं, पर हमारा सोच वैज्ञानिक किस्म का है। भौतिकी  का एक सिद्धांत है कि पानी अपना लेवल ख़ुद खोज लेता है। आप एक बार उतर भर जायें शादी में नृत्य करने, शेष बातें आप अपने आप सीख जायेंगे-यह भौतिकी का सिद्धांत हो, न हो, पर आपकी प्रतिभा के अनुरूप है। और आपकी प्रतिभा का सबको पता है ही कि यह कोई सिद्धांत नहीं मानती।



बजरंगी लल्ला की बारात – सुभाष चन्दर


गांव में बारात की तैयारियां पूरे जोरों पर थी। बिंदा चाचा कल की बनी दाढ़ी को चिम्मन नाई से दुबारा खुरचवा रहे थे तो मास्टर तोताराम अपने सफेद सूट के साथ मैच मिलाने के लिए अपने काले जूतों पर खड़िया पोत रहे थे। जुम्मन मियां के बालों की मेहंदी सूखने वाली थी, सो अब दाढ़ी रंगाई का काम चल रहा था। बलेसर के ताऊ पगड़ी को सांचे में बिठाने के प्रयास में खुद बैठे जा रहे थे। किस्सा कोताह ये कि बारात में जाने वाला हर व्यक्ति मुस्तैदी से अपनी तैयारी में लगा था।
दूल्हे राजा उर्फ बजरंगी लाल गुप्ता वल्द लाला रामदीन हलवाई की तैयारियां भी काफी हद तक पूरी हो चुकी थी। पीले रंग की कमीज, हरे रंग की पैंट और उसके नीचे चमचमाते काले बूढ में बजरंगी पूरे फिट-फाट लग रहे थे। कुल जमा आधा कटोरी कड़वे तेल ने बालों के साथ चेहरा भी चमका दिया था।
बजरंगी की अम्मा ने अपने लल्ला को ऊपर से नीचे तक देखा, न्यौछावर हो आईं। पर तभी याद आया कि लल्ला ने आंखों में काज़ल तो डाला ही नहीं, सो बड़ी बहू को गरियाती भीतर को भागीं। दीये की बाती का जला काज़ल लाईं और बड़ी उदारता से लल्ला की आंखों को कटीला बना दिया। फिर एक काज़ल का दिठौना घर दिया लल्ला के माथे पर। कहीं छोरे कू नजर लग गई तोऽ...।
सारी तैयारी से संतुष्ट होने के बाद सोलह बरस की कमसिन उमरिया वाले लाला पुत्र बजरंगी ने खुद को आईने में निहारा। हिस्स की सीटी मारी और यार-दोस्तों के साथ चल दिए बारात की बस की तरफ।
यूं बारात प्रस्थान का समय बारह बजे दोपहर का था, पर बल्लभपुर था ही कितनी दूर। कुल जमा सत्ताइस कोस। यूं गए और यूं पहुंचे। वहां स्वागत का समय भी चार बजे का था। इतना देर में तो बस मीठापुर से बल्लभपुर के चार चक्कर लगा देती। नाई धनपत फिर भी घर-घर में आवाज़ लगाता फिर रहा था-अजी, चलो परधान जी, जुल्फे बाद में काढ़ लीजौ... अबे बलबीरेऽ... चल भैया देरी होय रयी है। काका जल्दी बैल बांध के आय जाओ... बस आय गई है...। पर सबको पता था बल्लभपुर है ही कित्ती दूर।
सब लोग टैम पर आ गए और ठीक चार बजकर पचपन मिनट पर बस ने अपना पहला हॉर्न दे दिया। हॉर्न सुनते ही बिन्नू ने हाजत रफा की। कुल्ली ने वैद्य जी से मरोड़ों की दवा ले ली, देसरी ने बच्चों की पिटाई का कोटा पूरा किया। बुंदू घर पर बीड़ी का बंडल-माचिस भूल आया था, ले आया। छिद्छा पंडित ने अपना हुक्का मंगवा लिया। किस्सा कोताह ये कि ठीक बारह हॉर्न और ड्राइवर जी की चालीस गालियों के बाद बस जो थी, वह चल दी। कहना न होगा कि अब तक दिन छिप चुका था।
बस भी लाला ने काफी दरियादिली के साथ बुक की थी। लड़की वालों से सगाई में ही बस किराए के आठ हजार वसूल लिए थे, उसके तिहाई पैसों में ही इस शानदार बस का इंतजाम हो गया था। बस वाकई शानदार थी, जंग लगी बढ़िया बाडी। उस पर कीचड़ और गोबर की मधुबनी पेंटिंगें, टूटी खिड़कियों और नुची-फटी सीटों के अलावा बस की एक और क्वालिटी थी, वह थी उसकी संगीतमयी ध्वनि। सच तो यह था कि इस संगीतमयी बस में हॉर्न को छोड़कर सब कुछ बच उठता था कई बार... बल्कि गड्ढों से गुजरने पर तो हॉर्न भी बज उठता था। बाकी संगीत का काम बारातियों ने संभाल रखा था। वे हर धक्की पर उछलते, अपनी सिर से बैंड बजाने की ध्वनि निकालते, फिर बस और ड्राइवर की वंदना गाते। यानी सफर बढ़िया और कुछ-कुछ रोमांचक किस्म का चल रहा था।
पूरे आधे घंटे में पांच किलोमीटर की लंबी दूरी तय करने के बाद बस झटके से रुकी। ड्राइवर साब मूंछों पर ताव देते हुए सड़क बनाने वालों के साथ रिश्तेदारी जोड़ते उतरे। थोड़ी देर बाद वापस आकर उन्होंने घोषणा की कि बस का टायर पंचर हो गया है, जो घंटे भर में ठीक होगा। इस बीच जो यात्री नाश्ता वगैरह करना चाहें, पेशाब-पानी को जाएं, हो आएं, वरना ब आगे नहीं रुकेगी। नाश्ता भला कौन करता? बारात में जाने के लिए तो दो दिन से मीठा छोड़ रखा था, सुबह भी एकाध टिक्कड़ हलक में डाल लिया था, ज़्यादा खाते तो बारात में क्या खाते। सो, बारातियों ने पेट में उछल-कूद मचाते चूहों को बारात के भोजन के लड्डुओं का आश्वासन दिया और चुपचाप बस में बैठे रहे।
ठीक सवा घंटे बाद बस ठीक होकर रवाना हो गई और सत्ताइस कोस के इस लंबे सफर में सिर्फ सात बार रुकी। उसके रुकने के कारण हर बार जुदा थे। एक बार उसके एक अगले टायर में पंचर हुआ तो दूसरी बार पिछले टायर में। एक बार वायर टूटा तो एक बार तेल खत्म हुआ। एक बार तो देसी शराब के ठेके के पास बस ऐसी खराब हुई कि ड्राइवर की समझ में खुद ही कुछ नहीं आया। हारकर उसने कंडक्टर से सलाह की, फिर वे दोनों नीचे उतर गए। उनके पीछे-पीछे की बारात के कई लोग और अंतध्र्यान हो गए। कहना न होगा कि आधा घंटे के बाद जब वे लौटे तो बस स्टार्ट करने का फार्मूला निकाल लाए थे।
इस प्रकार छोटे-मोटे व्यवधानों को पार करती हुई, बस रात के ठीक बारह बजे लल्ला की होने वाली ससुराल में पहुंच गई, अलबत्ता बारात पहुंचने का समय सिर्फ चार बजे था। बारातियों ने खाली पेट जितनी भी चैन की सांसे खींची जा सकती थीं, जमकर खींच ली और जनवासे की ओर प्रस्थान किए। गांव में घुसते ही मीठापुर वासियों की अपना बारातीपन याद आने लगा। लड़के के बाप ने तोंद फुलाकर मूंछों पर हाथ फेरा। लड़के के चाचा ने अपना गालियों का अभ्यास दुरुस्त किया। बजरंगी के भैया ने धौल माने की प्रक्रिया का शुभारंभ अपने बेटे से किया। बारातियों ने उलाहनों की अंगीठी गर्म करनी शुरू कर दी और इन पर घरातियों को संेकने की तैयारी करने लगे। इन सारी तैयारियों के साथ सभी यौद्धा जनवासे में प्रविष्ट हुए।
जनवासे का दृश्य काफी मनोहारी किस्म का था। एक घेर में चालीस-पचास खटियां करीने से बिछी थीं। उनके ऊपर चादरें, चादरों के ऊपर धूल और मिट्टी की नक्काशी से फूल बने हुए थे। तकियों को देखकर लगता था कि उनमें चार-पांच मोटे चूहे कैद कर दिए गए हों। जनवासे के बीचोंबीच एक बढ़िया लालटेन की व्यवस्था थी। उसी के नजदीक खनिज लवणों से भरपूर पानी की बाल्टी विद्यमान थी, जिसका जलपान फिलहाल कीट-भुनगों की फौज कर रही थी। यानी व्यवस्था चकाचक थी। स्वागत के लिए द्वार पर ही एक खरसैला कुत्ता बैठा था, जिसने अपनी परंपरा के अनुसार भौंककर बारातियों का स्वागत भी किया।
यह सब देखकर दूल्हे मियां के पिताश्री यानी लाला रामदीन हलवाई की तबीयत काफी खुश हुई। इसी खुशी के अतिरेक में उसने घरातियों को तकरीबन चार दर्जन गालियां निकाली। बारातियों ने अपनी खुशी का इजहार चादरें फाड़कर तकियों को रौंदकर, खाटों के बान काटकर किया। मरभुक्खों के गांव में आ गए स्साले, भूखे-नंगों को बारात के स्वागत की तमीज नहीं है... वगैरह-वगैरह का वाचन भी चलता रहा।
इन सब सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच ही लाला न बिचैलिये को हड़काया, उसे ताकीद दी कि वह लड़की वालों के घर जाए। उन्हें फी बाराती के हिसाब से दस गालियां सुनाए और आखिर में धमकी दे आए कि यदि बारात की खातिरदारी में कमी रह गई तो बारात अभी वापस चली जाएगी। बारातियों ने भी मिले सुर मेरा तुम्हारावाली तर्ज में लाला की बात को आगे बढ़ाया।
बिचैलिये के प्रस्थान करते ही लाला, लड़की वालों की मां-बहनों के साथ मौखिक संबंध स्थापित करने, बाराती भुनभुनो और बच्चे लोग रोने आदि के कार्यक्रम में व्यस्त हो गए। कुछेक जागरूक बाराती थोड़ी नई-सी लगने वाली चादरों को अपने झोलों में जगह देने के काम में जुट गए। पानी का लोटा चिम्मन नाई के हिस्से में आया और उनके मटमैले थैले में जाकर अंतध्र्यान हो गया। बीनू के हिस्से में एक तकिए का गिलाफ आया और बेचारे बुंदू को तो दीवार पर लगे दो कलैंडरों से ही काम चलाना पड़ा। सभी अपनी-अपनी तरह काम में जुटे रहे।
थोड़ी देर में चार-पांच लंबे-तड़गें लाठीधारी जनवासे में पधारे, बिचैलिया जी उनके पीछे-पीछे थे। लाला ने बाराती गरिमा का निर्वाह करते हुए गालियों से उनका स्वागत किया। कहा, ‘‘कहां मरभुक्खों में अपने बेटे की शादी तय कर बैठा। स्साले कमीनों को बारातियों की आव-भगत का भी सलीका नहीं है। इससे तो अच्छा है कि बारात वापस ले जाई जाए।‘‘ लाला ने बारातियों से इस बाबत स्वीकृति चाही, बारातियों ने भी बारात वापस ले जाएंगे, ले जाके रहेंगेके नारों का उद्घोष कर दिया।
तभी घरातियों में से एक मुच्छड़ लाठी समेत आगे आया। बोला, ‘‘लड़के का बाप कौन है?‘‘ लाला जी ने छाती निकालकर, मूंछों पर ताव देकर कहा, ‘‘हम हैं।‘‘ मुच्छड़ बोला, ‘‘अच्छा-अच्छा तो आप हो। अब जरा मंह खोलो।‘‘ लाला चैंका, ‘‘क्यों?‘‘ मुच्छड़ मुस्कराकर बोला, ‘‘कुछ नहीं, जरा मुंह का नाप लेना है, लड्डू बनवाने हैं...।‘‘ कहते-कहते उसने लाठी का पीतल लगा सिरा लाला के मुंह में घुसेड़ दिया। लाला बहंतेरा ऐं-ऐं, क्या करते होका जाप करता पीछे हटा, पर मुच्छड़ लड्डुओं का नाप लेकर माना। इसके बाद दूसरा मुच्छड़ चिल्लाया, ‘‘सारे बाराती अपने मुंह का नाप दे दो, लड्डू ताकि उसी साइज के बनवाए जा सकें।‘‘
बारातियों को याद आया कि उन्होंने अभी दस-बारह घंटे पहले ही खाना खाया है, उनके पेट में लड्डुओं का कर्तव्य पूरा करना था, सो वे नाप लेकर ही माने। अलबत्ता बूढ़े छिद्दा पंडित जरूर बच गए, उन्होंने सच्ची-सच्ची बता दिया कि उन्हें शुगर की बीमारी है, सो उन्हें मीठे का परहेज है। हां, दूल्हे राजा उर्फ बजरंगी को सिर्फ लाठी दिखाई गई, पर वे फिर भी कांपते रहे। इसके बाद मुच्छड़ पास खड़ी बारात की बस की ओर प्रस्थान कर गए। वहां से थोडी देर बाद टायरों से हवा निकालने की सूं-सूं जैसी आवाज़ आई और बस...।
बाराती सन्न। सांप सूंघन की कहावत चरितार्थ करने को उतारू। बहुत देर कोई कुछ नहीं बोला। भला हो चिम्मन नाई की जिंदादिली का, जिसने दुःखते जबड़े से ही सबको सूचना दी कि इस गांव में बारातियों के साथ मजाक करने का रिवाज है। वरना इस गांव के लोग खातिरदारी बहुत अच्छी करते हैं। इस पर बारातियों के दुःखते जबड़ों का दर्द कम हुआ। लाला ने भी गाल सहलाते हुए अपनी झब्बेदार मूंछों को फिर ताव देना शुरू कर दिया। कहना न होगा कि इस बार ताव में गर्मी अलबत्ता थोड़ा कम थी।
मुच्छड़ों के अंधेरा गमन के बमुश्किल आधा घंटे बाद फिर कुछ लोग आते दिखाई दिए। लाला ने पहचाना-इस बार लड़की का बाप, नाई, चाचा-ताऊ वगैरह थे। उन्होंने आते ही बारात को नमस्कार की, लाला ने जवाब में गालियां दीं, बारात वापस ले जाने की धमकी दी। दृश्य ये बना कि वे मनाते जाएं, लाला भड़कते जाएं। छिद्दा पंडित ने बात को तोड़ ये निकाला कि बारात की इज्जत हतक के रूप में लड़की वाले लाला को पांच हजार रुपया दें, वरना बारात वापस जाएगी। लाला मान गया। लड़की वालों ने बहुतेरा मान-मनौवल किया, पर लालाकी गई हुई इज्जत थी, बिना पांच हजार के कैसे वापस आती। इसी तुफैल में घंटा भर लग गया। हारकर लड़की का भाई बोला, ‘‘अच्छा देखते हैं, घर जाकर मशवरा करेंगे?‘‘ लाला ने दुबारा ख़बरदार कर दिया कि बारात की खातिर का इंतजाम बढ़िया होना चाहिए, ये पांच हजार फेरों से पहले मिलने चाहिए...वरना...। लड़की वाले वरना का मतलब जानते थे, सो वे जल्दी ही पतली गली से खिसक लिए। लाला का हाथ पुनः मूंछों को सहलाने लगा।
इस घटना के थोड़ी ही देर बाद नाश्ते का बुलावा आ गया। सब लोग फटाफट तैयार होकर चल दिए। आगे-आगे लालटेनधारी घराती, उसके पीछे-पीछे पेट के चूहों को ख्याली पकवान खिलाती बारात। रास्ते में ही सब बारातियों ने अपने-अपने काम बांट लिए। बुंदू को लड्डुओं को पत्थर बताकर फेंकन का काम मिला तो श्याम को रायते में मिर्ची भर रखी हैकहकर रायते का शकोरा घराती पर फेंकने का। बूढ़ों को कचैड़ी को सूखी रोटी बताकर कुत्तों के आगे डालने का। अलबत्ता ये जरूर तय कर लिया गया कि ये सब कार्यक्रम पेट भर जाने के बाद संपन्न होंगे। बजरंगी मित्र रम्घू और मग्घू ने बिना किसी के कहे ही अपने लिए घरातियों की लड़कियों को चुटकी काटने का काम चुन लिया। इस प्रकार सारी तैयारियों से लैस बारात का काफिला नाश्ते के लिए घरातियों के द्वार पर पहुंच गया।
दरवाजे पर ही आठ-दस खाए-पिए घर के तगड़े बाराती विद्यमान थे। उनका मुखिया बारात के स्वागत में हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, ‘‘आ जाओ श्तिेदारो! नाश्ता तैयार है। पर हम गरीब आदमी हैं, जगह थोड़ी है। पंद्रह-पंद्रह आदमियों की पांत बना के चलो।‘‘ लाला ने यह सुनकर अपने झाऊ-झप्पा मूंछें फिर तरेड़ी और रिकाॅर्ड बजा दिया, ‘‘देख लेना नाश्ते में कोई कमी न रह जाए वरना...। लाला की बात बीच में ही काटकर मुखिया बोला, ‘‘ना-ना लाला जीकमी कतई न रहने की हैं। हमें पता है, वरना आप बारात वापस ले जाओगे। गरीब आदमी हैं, पर फिर भी आप लोगन की खातिर का जो इंतजाम बना, वह कर दिया है। आप लोगन के वैसे तो बड़ी जल्दी करी बारात लाने में, पर भूख तो लगी ही रही होगी। आ जाओ, पहले पंद्रह आदमी आ जाओ।‘‘ फिर दूल्हे राजा उर्फ जूनियर लाला बजरंगी लाल की ओर इशारा करके बोला, ‘‘लल्ला, आप इधर आ जाओ, आपका नाश्ता जनानखाने में है।‘‘ लल्ला पहली बार ससुराल में खुश भए। बढ़िया नाश्ता, वह भी साले-सालियों के बीच-ये मारा पापड़ वाले को। बजरंगी के दोस्तों ने भी जाने की जिद की, पर जनानखाने की इज्जत के नाम पर उन्हें रोक दिया गया।
पहली खेप में पंद्रह बाराती मुच्छड़ के पीछे चलते हुए एक बड़े से कमरे में आ गए, जहां पंद्रह-बीस हट्टे-कट्टे बाराती लाठियों समेत पहले से मौजूद थे। पहले घराती ने दरवाजे की अंदर से सांकल लगा दी। बस फिर क्या था, थोड़ी ही देर में लाठियों से भोजन वितरित होने लगा। पहला प्रसाद लाला रामदीन हलवाई उर्फ बजरंगी के बाप को मिला। एक लाठी बोली-लो लालाजी, लड्डू खाओ। दूसरी ने बरफी, तीसरी ने कचैड़ी खाने का आह्यन किया। लाठियों के साथ आवाजें भी आती-जाती-लै लाला सारै-लड्डू खाय लै-लै खाय-अबके बरफी खा...लै कचैड़ी गरम है...भैया लाला का पेट ढंग से भर दीयौ, वरना अभई हाल बारात वापस ले जाएगा। लाठियां पड़ती रही-लाला का पेट भरता रहा। लाला के बाद बारातियों का नंबर आया। बेचारों ने बहुतेरी कही, ‘हमें भूख न है‘, पर खातिरदारों को तो खातिदारी करनी थी। सो, लाठियों से तब तक नाश्ता बंटता रहा, जब तक कि हर बाराती का पेट भर नहीं गया। जब बीस-पच्चीस लाठी लाला के सिंक ली तो लाला बाकायदा दंडवत् की मुद्रा में जमीन पर लेट गया और नाक रगड़-रगड़कर माफी मांगने लगा, रिरियाने लगा, ‘‘तौबा, मेरी तौबा! मेरे बाप की तौबा, माफ कर दो।‘‘ एक घराती भन्नाकर बोला, ‘‘क्यों अब बारात देर से लाएगा?‘‘ लाला में बकरे की आत्मा प्रवेश कर गई, सो वह मिमियाया, ‘‘ना...ना...ऽऽ...ना...ऽऽजी।‘‘ घराती फिर बोला, ‘‘बारात वापस ले जाएगा।‘‘ लाला में घुसा बकरा फिर मिमियाया, ‘‘ना जी...ना जी...।‘‘ इसके बाद बाराती बकरों ने भी मिमियाने-रिरियाने का अभ्यास शुरू कर दिया। इस पर खुश होकर मुच्छड़ों के नेता ने उन्हें लाठी-बख्शी का अभयदान दे दिया और दरवाजा बंद करके साथियों समेत बाहर आ गया। आखिर बाकी के बारातियों की भी खातिर का इंतजाम करना था।
इसके बाद पंद्रह-पंद्रह की तीन खेपों में सारे बारातियों को बढ़िया नाश्ता कराया गया। अलबत्ता जरिया वही तेल पिली लाठियां रहीं। खातिरदारी कार्यक्रम की समाप्ति के बाद, जब सब लोग एक साथ मिले तो उनकी हालत देखने लायक थी। लाला के गाल फूली कचैड़ी की छटा दे रहे थे तो नाक गोभी के पकौड़े की। बुंदू के सिर पर दो काले गुलाब जामुन उगे हुए थे तो बसेसर के माथे पर चार लड्डू। छिद्दा पंडित के चेहरे पर रायते की बूंदियां भिनक रही थीं तो चिम्मन ने इतना नाश्ता कर लिया था कि उसका पिछवाड़े वाला हिस्सा ही नहीं उठ पा रहा था। यानी बारातियों की खातिर काफी बढ़िया हुई थी, सब ही तृप्त थे।
तभी एक घराती को याद आया कि बारातियों को नाश्ता तो करा दिया, पर शर्बत तो पिलाया ही नहीं। सो, उसने एक लड़के को आवाज़ देकर शर्बत की की बाल्टी मंगाई। पर सभी बारातियों ने शर्बत के लिए मना कर दिया, बल्कि एकाध ने तो बाल्टी में झांककर भी देख लिया कि उसमें कहीं लाठियों का घोल न पड़ा हो। इस पर उसी घराती ने घुड़ककर कहा, ‘‘जल्दी से लोटा उठाओ। इस शर्बत को क्या तुम्हारा बाप पीएगा। जल्दी करो... वरना...।’’ वरना की गंध सूंघते ही सब सतर्क हो गए। मजबूरी थी सो। सबसे पहले चिम्मन नाई ने हाथ बढ़ाया। डरते-डरते लोटा मुंह से लगाया, ठंडा और मीठा लगा। सो, वह गट-गट पूरा लोटा चढ़ा गया। उसे देखकर बाकी की भी हिम्मत बढ़ी। सबने दो-दो चार-चार लोटे शर्बत गटका। बसेसर तो पूरे सात लोटे चढ़ा गया।
पर यह क्या था! शर्बत पेट के अंदर जाने के बमुश्किल पांच-सात मिनट बाद ही पेटों में हलचल मच गई। सबसे पहले सात लोटे वाला बसेसर खेतों की तरफ गिरता-पड़ता भागा, फिर बुंदू... फिर छिद्दा पंडित... उसके बाद तो जैसे लाइन लग गई। लाला रामदीन हलवाई उर्फ दूल्हे के पिताश्री सबसे बाद में गए। पर जैसे वह जाने लगे, एक घराती ने रोक लिया, ‘‘लालाजी फेरे होने वाले हैं, आप कहां चले? फेरों पर नहीं बैठिएगा।’’ पर लाला जी को कल कहां थी, पेट में उथल-पुथल मची थी। सो, वह बड़ी मुश्किल से हाथ छुड़ाकर भागे। जाते-जाते कह गए कि फेरे तो बजरंगी को लेने हैं, बाप की जरूरत पड़े तो किसी को भी बुला लीजिएगा।
इस प्रकार रात भर खेतों में आने-जाने का क्रम चलता रहा। पांच बार खेतों की सैर कर आने के बाद वैद्यजी ने अपनी खोज प्रस्तुत की कि शर्बत में जमालगोटा मिला हुआ था।
बाकी की कहानी में इतना बता देना ही काफी होगा कि बजरंगी लल्ला की बारात वहां तीन दिन ठहरी थी।
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फेसबुक पर होली

 

होली  कथाएं-फेसबुक पर होली - आलोक पुराणिक
कन्हैया लौटे हैं बड़े दिनों बाद बिरज भूमि इस उम्मीद में कि होली जमेगी, रंग जमेगा। कन्हैया के संगी-साथी भी मस्त-मगन हैं, पर झटका खा जाते हैं, यह देखकर कि गोपियां हैं ही  नहीं मौका-ए-होली के मौके पर।
संगी-साथियों को बताया जाता है कि माहौल बदल लिया है- नये दौर में हर गोपी विराट कोहली पर फिदा है। विराट कोहली की फैन हो रखी हैं गोपियां। इस दौर की लगभग हर टीन-एजर, नौजवान लड़की विराट कोहली पर ही फिदा है। जो विराट कोहली पर नहीं मरती हैं, उन लड़कियों को नार्मल ना माना जाता।
संगी-साथी कनफ्यूज्ड होकर पूछ रहे हैं-अरे वाह, ऐसे कैसे? कन्हैया की माखनचोर लीलाओं का क्या असर होता था! गोपियां खिंची चली आती थीं।
संगी-साथियों को बताया गया है -जी माखन तो अब आऊट आफ फैशन हो गया है। बीस साल से नीचे वाले और नीचेवाली इस डर से नहीं खातीं कि हाय कहीं वजन ना बढ़ जाये और चालीस साल से ऊपरवाले और ऊपरवाली इस खतरे में ना खातीं कि कहीं कोलस्ट्रोल ना बढ़ जाये। माखन की तो बात ही ना करना, गोपियां बेहोश हो जायेंगी।
संगी-साथी कह रहे हैं- तो होली होगी ही नहीं क्या।  संगी-साथियों को बताया गया है कि अगर कायदे के स्पांसर मिल गये, तो जरुर हो जायेगी होली। टीवी चैनलों ने गोपियों का स्वभाव बदल दिया है। अब बिना रकम लिये वो किसी इवेंट में ना जातीं। इतने टीवी चैनल हो गये हैं कि होली के आसपास हर टीवी चैनल पर होली पर गोपिकाओं का डांस चाहिए होता है, डांस के लिए गोपिकाओं को रकम मिलती है। टीवी वाले वो रकम होली कार्यक्रमों के स्पांसरों से खींच लाते हैं। अब तो गोपिकाएं बिना स्पांसर का नाम सुने डांस करने को तैयार नहीं होतीं।
 संगी-साथी चकरायमान हालत में है, हाय जमाना कित्ता बदल गया।
जमाना बहुत बदल गया साहब। किसी जमाने में जो कलाकार सरकारी दूरदर्शन के बुलावे पर मुफ्त तक में होली-डांस करने को तैयार रहते थे, अब सैकड़ों टीवी चैनलों के बुलावों में तुलना करते हैं कि किसका रेट सबसे ज्यादा है। वक्त बदल गया है। मुफ्त में कुछ ना हो रहा है।
उफ्फ, तो स्पांसर लाओ, होली डांस कराओ ना-संगी-साथी दुखी मन से कह रहे हैं।
जी स्पांसर तो इस वक्त सारे के सारे क्रिकेट वर्ल्ड कप को स्पांसर कर रहे हैं। होली स्पांसर करने के लिए किसी के पास रकम नहीं है।
उफ्फ, तो कोई छोटा-मोटा झाड़ू निर्माता ही  स्पांसर कर दे ना होली उत्सव।
जी इस वक्त झाड़ू छोटा-मोटा आइटम नहीं ना है। झाड़ू वाले मुख्यमंत्री हो रहे हैं।
उफ्फ तो होली होगी या नहीं है।
जी जरुर अगर स्पांसर मिला तो, हो भी सकती है।


होली कथा नंबर टू-फेसबुक पर होली – आलोक पुराणिक
ब्रज की सारी क्यूट गोपिकाएं फेसबुक पर वो फोटो पोस्ट करके गायब हो गयी हैं, जिनमें उन्होने अपने गालों पर थोड़ा सा रंग लगाया हुआ है-बिरज के होली-इच्छुक नौजवान परेशान होकर कह रहे हैं।
यस, जमाने का फैशन यही है अब त्योहार फेसबुक पर ही मनाये जाते हैं।
पर, गोपिकाएं आखिर चेहरे पर खूब रंग लगाने से बचती क्यों हैं। यस, फेस को चमकायमान रखने में हजारों रुपये खर्च कर देती हैं, फेस-पैक, क्रीम और ना जाने क्या-क्या। एक दिन होली पर रंगों से चेहरे के चौपट करना अफोर्ड ना कर सकती  हैं गोपिकाएं।
पर, होली तो रंगों का त्योहार है।
यस, होली क्या अब सारे त्योहार या तो नोटों के त्योहार हैं या फेसबुक के। और किसी गोपिका से फेसबुक पर इस बारे में पूछताछ ना कर लेना कि वह तुम्हे ब्लाक कर देगी।

फ्लैट नंबर एफ-1 प्लाट नंबर बी-39 रामप्रस्थ कालोनी गाजियाबाद-201011
मोबाइल-9810018799 



होली आई और चली गई  - निर्मल गुप्ता

होली आई और आकर चली गई।सबने अपने - अपने हिस्से का हुडदंग या तो जमकर मचाया या फिर मचाने की पुरजोर कोशश की।यह अलग बात है कि नैचुरल उल्लास और उमंग की आमद इस बार जरा कम रही।सिंथेटिक उन्माद की नकली खोये से बनी गुजियों की तरह  बजार में भरपूर डिमांड और आवक रही।चेहरों पर लगे रंगों को रगड़-रगड़ कर छुडाते हुए लोगों को ‘रंगे हुए सियार’ बरबस याद आये।चीन से से आई ऑटोमैटिक पिचकारियों ने हरे से लेकर केसरिया और नीले से लेकर पीले रंग तक समान उदार भाव से छिड़क कर लाल रंग के प्रति अपने अतिरिक्त मोह को मुनाफे के कारोबार की खातिर त्याग देने का स्पष्ट संदेश दिया।अब वाम भी बाज़ार की तरह काम से काम रखने लगा है।

होली के दिन नए मिजाज के सारे शहर अनायास हैल्थ कांशस हो उठे।स्वाइन फ्लू के प्रकोप से बचने के लिए लोगों ने एक दूसरे को गले लगाना स्थगित रखा।हाथ मिलाये तो मुहँ पर मास्क और हथेलियों पर दस्ताने पहन कर बड़ी एहतियात के साथ।तरह तरह के मुखौटे और दस्ताने इस मौके पर खूब बिके।राजनीतिक लोग एक दूसरे का मुहँ काला करने की जुगत में यत्र तत्र लगे रहे।फेयर एंड लवली का जिक्र जनता को गुदगुदाता रहा।

होली तो जिनकी होनी थी हो ली, बाकी लकीर के फकीर अपने बुझे हुए चूल्हे पर टेसू के फूलों के सहारे जिंदगी को रंगमय बनाने का ख्वाबी पुलाव पकाते रहे।बीरबल की खिचड़ी की तरह स्वप्नजीवी खानसामों द्वारा पकाए जाने वाले पकवान आसानी से कहाँ पक पाते है?

वैसे तो इस बार होली राजधानी में खासतौर पर मनायी जानी थी।पर वहां होली तय वक्त से पहले आ धमकी।रंगपाशी को लेकर जल संकट का विमर्श उठ खड़ा हुआ।आप वाले खास से खासमखास बन कर इधर उधर इतराते रहे।आपसी टन्टों  के चलते गुलाल का रंग काला पड़ गया।चेहरे चिकने चुपड़े बने रह गए, मन मलीन हो गये।आरोप प्रत्यारोपों की फुलझड़ियों जल उठीं।होली- दीवाली का ‘रिमिक्स’ प्रकट हुआ।

होली के अवसर पर मौसम वातावरण में भंग खुद–ब-खुद घोल देता है लेकिन सिल बट्टे पर घुटी भंग की तरंग की बात ही कुछ और होती है।अनेक निराशावादी जी कहते मिले कि पूरे कुएं में जब भांग गिरी हो तो क्या किया जाये?मैंने उनसे कहा कि तब उस कुएं के पानी को फिल्टर करके घूँट घूँट कर पिया जाये।उन्होंने कहा कि आप तो हर बात पर मजाक करते हैं। मैंने कहा कि मैं कुछ नहीं करता।हास अपनी स्थान  और परिहास उपयुक्त पात्र ठीक उसी तरह खुद दूंढ लेता है जैसे तितलियाँ फूलों का एड्रेस ‘येलो पेजेस’ पर नहीं,स्वत: पा जाती हैं।

इस बार होली आई तो पर बहुत से लोगों के लिए ठीकठाक तरीके से नहीं आ पायी।कुछ लोगों  ने आपसी छीछालेदार के जरिये यह वक्त से पहले मना डाली।कहीं यह आलाकमान की उदासी और उपयुक्त कारिंदों की तलाश में व्यस्तता  के चलते सही समय आने तक के लिए स्थगित कर दी गयी।किसी को इसे  ग्रेंड इवेंट बनाने लायक उपयुक्त प्रायोजक नहीं मिले ,इसलिए यह मन नहीं पायी।कुछ लोग कोपभवन में बैठे कुढ़ते रहे और तकते रहे कि उनका कोई मनाने आये।कोई नहीं आया और इत्तेफाक देखें कि उनका भवन के दरवाजे को  हवा ने भी नहीं हिलाया।वे बेचारे  बिना रंगे कोरे के कोरे रह गए। एक फायर ब्रांड नेता ने अपने भक्तों से कह दिया कि वे होली खुद न मनाएं और जो मनाता दिखे उसकी ढंग से मरम्मत कर डालें।

समय बदल गया है।अब होली केवल गुजिया, गुलाल, टेसू के रंग ,भंग ,तरंग ,ठिठोली ,ढोलक की थाप ,उमंग और उल्लास के सहारे नहीं मनती।इसे मनाने के लिए पूरा ‘रोड मैप’ तैयार करना पड़ता है।होली बीतते ही मूर्ख दिवस आ टपकता है।तब होली के अवसर की रही सही कसर पूरी हो जाती है।मूर्खता हमारी जिन्दगी का स्थाई भाव है और जब तक यह है तब तक होली और मूर्खता का पर्व इसी तरह सदा सर्वदा  मनाया जाता रहेगा।

निर्मल गुप्त,२०८ छीपी टैंक,मेरठ-२५०००१ मोबाईल: ०८१७१५२२९२२






ये सीटी-वादक – कमलेश पाण्डेय

आप ही बताईये- इन चंदूलाल का क्या करें? 

ये हर वखत चिंता में सुलगते रहते हैं. इनकी चिंता है कि कोई कुछ कर कर रहा है तो क्यों रहा है. कहीं भी कुछ हो क्यों रहा है. ये विकल्प-शास्त्र में पीएचडी हैं. इनके जाने कोई आदमी, संस्था, पार्टी या खुद सरकार ही कुछ करने की ठान ले तो तुरंत-फुरंत घोषणा कर देते हैं कि ये तो गलत हो रहा है...इसे तो होने का कोई अधिकार ही नहीं. इसके बाद अपने विकल्पों की पिटारी खोलकर बताने लगते हैं कि इस काम के एवज़ तो ये, वो या फिर इत्ते सारे काम इकट्ठे भी हो सकते हैं. 

उद्यमी लोगों की मेहनत को पलीता लगाते चिर-चिन्तक चंदूलाल हर संभव जगह पर घुमते-फिरते या धरने पर बैठे हैं. छोटू-उस्ताद की मंडली ने मोहल्ले में अष्टयाम का आयोजन किया. चेलों ने बस बाज़ार की दुकानों का एक फेरा लगाया. चंद आँखें व बंधी मुठ्ठियाँ दिखा के और “धरम का काम है” की रसीद देके बातों-बातों में पचासेक हज़ार इकठ्ठे हो गए. काम शुरू हो इससे पहले ही चंदूलाल प्रकट हुए और सीटी बजाते घूमने लगे कि ये गलत हो रहा है. मोहल्ले में सबको बताने लगे कि अष्टयाम के बदले इतने पैसे में जाने क्या-क्या नेक काम हो सकते हैं. वो तो छोटू उस्ताद का मामला था कि उन्हें समझा दिया कि उनकी मंडली नेकी कर दरिया में डालने की बजाय नेकी की बात करने वालों को ही दरिया में डालना पसंद करती है. अष्टयाम आखिर पूरे मोहल्ले की भक्तिमय हाजिरी के साथ संपन्न हुआ. छोटू उस्ताद ही नहीं, मोहल्ले वालों को भी पता है कि क्या होना चाहिए. 

उद्यमी लोगों को इन सीटी-वादकों से कितनी पीड़ा होती है ये आप तभी जान पायेंगे अगर आपने भी मेहनत कर के सामाजिक अनुष्ठानों का कोई सफल कारोबार खडा किया हो. आप खुद सोचें (ये ज़हमत अकेले मैं ही क्यों उठाऊँ?), आज के ज़माने में कुछ बड़ा करने में आखिर क्या लगता है. पैसा ही न. अगर आप सोचते हैं कि आध्यात्म या कल्चर लगता है तो उसके पीछे भी पैसा ही तो छुपा है. शुरू में बड़ी मेहनत लगती है, पर बाद में ज़रूर भक्त लोग जमा हो जाते हैं और तमाम तरीकों से चंदा-वंदा जमा कर जैसा आप चाहते हैं, आयोजन कर डालते हैं. बस पैसा और आदमी जुट जाय तो प्रशासन, व्यवस्था, क़ानून वगैरह सब जुट लिए समझो. फिर जितना ऊंचा, बड़ा, लंबा, चौड़ा, उलटा या सीधा आईडिया पकाना है, पका लें. आंच में जलने को सरे संसाधन लाइन लगाकर खड़े रहते हैं. कितने तो व्यापक उद्देश्य होते हैं आपके इन आयोजनों के – जनकल्याण तो लगे हाथों होता ही है, समाज के हर तबके में छुपे अपने जैसे त्यागियों के साथ रमण-चमन, मिलना-जुलना, आगे और आयोजनों के मंच तैयार करना आदि इत्यादि. क्या ये सब इस वजह से छोड़ दें कि चंदूलालों को अच्छा नहीं लगता और वे इसकी जगह ये और वो करना चाहते हैं. 

सालों लगते हैं कुछ करने लायक बनने में और जब आप करने पर आ गये तो आ गए ये भी अपनी पिपही लेकर- कभी पर्यावरण का राग बजायें, तो ज्यादातर गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी की. आप सोच रहे हैं कुछ ग्लोबल स्तर की, ये बात करें गलियन की. आपके दिमाग में करोड़ों की डिजायनर मंच-सज्जा और चकाचौंध कर देने वाले नज़ारे हैं और ये बात कर रहे टाट-पट्टी स्कूलों में बेंच लगवाने की. हमारी चिंता लाखों लोगों को एक साथ बिठाकर पञ्च-सितारा लंच कराने की है, चंदूलाल फ़िक्रमंद हैं मिड-डे मील के कीड़े लगे चावल दाल की जांच के लिए. हम गिनिस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में घुसना चाहें, आप रूटीन में सदियों से चल रही घटनाओं का ज़िक्र करें जो अब क्या बदलेंगे? भई, तुलना में कुछ तो बराबरी आने दो. 

उधर सरकार और चंदूलालों में भी ठनी रही है. सरकार तो बनवाई ही जाती है काम करवाने के लिए. सो काम तो वो करती है, कौन से काम? इसी पर मतभेद बना रहता है. सरकार को दिखने वाले काम मुफीद आते हैं. जो बड़े होते हैं वही जियादा दिखते हैं और चुनाव में बखानने के काम आते हैं. इधर चंदूलाल माइक्रो-स्तर पर सोचते हैं, विकल्प-शास्त्र का पिटारा खोल कर हर वृहत प्रोजेक्ट को कई सूक्ष्म कामों में तब्दील करने की जिद करते हैं. कभी-कभी सरकार भी इनके मज़े लेती है और बड़े-बड़े प्रोजेक्टों में छोटे-छोटे अड़ंगे लगने देती है. इससे प्रोजेक्ट चर्चा में रहता है और उसका बज़ट और उसी अनुपात में कमीशन बढ़ता रहता है. एक ही प्रोजेक्ट कई चुनावों तक काम आ जाता है. इसलिए सरकारें अब चंदूलाल की सुरक्षा के लिए क़ानून बना रही है. सुरक्षा को ये ख़तरा ज़ाहिर वजहों से है. 

ताजमहल बनते समय अगर चंदूलाल की सीटी सुन ली गई होती तो ताजमहल गायब होता और उसकी जगह हिन्दोस्तां नामक जगह में एक लाख मदरसे-स्कूल होते जिसमें पढ़कर तमाम लोग आलिम-फ़ाजिल हो जाते. आगे ये लोग कुछ और सीटियों की आवाजों की वज्ह से कुछ अजन्मे किलों-मकबरों की नींव पर बने कल-कारखानों में काम करते और इसी तरीके से बन पाए अस्पतालों की वजह से ज़िंदा बचे बाक़ी लोग दुनिया के अन्य हरित क्षेत्रों में चरने को चल देते. कुल मिला कर हिन्दोस्तान की जगह काम में डूबा जापान-सा कुछ बनता. उन्हें लौट कर देश में देखने को बुलाने वाला ताजमहल भी न होता.  

दरअसल देश का ये आलम कि कहीं साधनों-संसाधनों की बाढ़ आई रहती है तो कहीं बेकसी और मोहताजी का सूखा पड़ा होता है, देश की एक छोटी मगर सक्षम व खुशहाल आबादी के लिए रंग-बिरंगे भारत की विविधतापूर्ण इतिहास-भूगोल, समाज-संस्कृति का ही एक रूप है. चंदूलाल मगर इसे अश्लीलता के तौर पर देखते हैं. अब अश्लीलता पर रोक आदि पर दुनिया भर में क्या रवैया है, हम सब जानते ही हैं. 

होने के खिलाफ झंडा बुलंद रखें वाले चंदूलाल विरोधाभासी भी हैं. होने से भी जियादा वे कई ‘न होने’ के विरोध में भी ऐसे ही क्रांतिकारी तेवर रखते हैं. शायद वे दो-चार बड़ा-बड़ा होने को कई छोटे-छोटे होने में तब्दील करने में यकीन करते हैं. ये बहस तभी ख़त्म होगी जब ताजमहल से लेकर स्कूल-मदरसे-अस्पताल तक सब अपनी सही जगह खड़े मिलें. चंदूलाल लगे रहेंगे. 

और ज़रा आप भी सावधान रहिये, चंदूलाल की हिट लिस्ट में होली भी है क्योंकि ये तो शुरू ही ‘हो’ से होती है. होली पर उनके हिसाब से न होने लायक इतना कुछ होता  कि अगर वो खुद भंग की तरंग में न हों तो फिर आपकी होली तो हो ली. ...इत्ता पानी बर्बाद होता है, ज़हरीले रंगों से सेहत बिगड़ती है, नकली मिठाईयों से बचो, शोर-शराबा-मार-पीट मत करो, नशा कर सामाजिक माहौल मत बिगाड़ो..आदि इत्यादि . हिदायतों की इस लम्बी सूची को ध्यान में रखते हुए ही होली खेलें, वरना चंदूलाल आ जाएगा.

कब है होली? कब?


बी 260 पॉकेट-2
केन्द्रीय विहार, सेक्टर-82
नोएडा
9868380502



आज बिरज में होली है – कृष्ण वेदान्त


अपने - अपने मन की गठरी आज सभी ने खोली है
  बुरा भला सबका सुन लीजै आज बिरज में होली है

  भाई,बहन,माँ, देवर,भाभी या कोई रिश्तेदार पड़ौसी हो
  दिल से माफ़ी माँग ही लेना जिस पर भी नीयत डोली हो

  पाँच इन्द्रियाँ रंग पंचमी खेले और छठवाँ साक्षी भाव रहे
  ध्यान - प्रेम की मदिरा पीकर ये आई मस्तों की टोली है

  ऊँच - नीच और जात - पाँत के उजले कपड़े रंग डालो
  प्रेम के पानी का रंग न कोई जो हम सबका हमजोली है

  कोई किसी का नहीं है दुश्मन ये सब सागर की लहरें हैं
  हमने आँख के खारे पानी में,यूँ  प्यार की मिश्री घोली है

  नर नारी ने आज रस्म रिवाज की हर इक मर्यादा तोड़ी है
  बे सुरे भी आज सुर में गायेंगे ऐसी मीठी प्यार की बोली है

  पागलपन को बाहर फेंको और मन - मंदिर को साफ़ करो
  ये होली का त्योहार है दर्पण और मधुशाला की रंगोली है

  झूठे सच्चे में कोई भेद करे ना यह सब को ही स्वीकार करे
  हम सब ने ही बढ़ - चढ़ कर आज अपनी पोल ही खोली है

  इन्द्र धनुष का खेल है प्यारे ,सब दूर से चमके चाँद सितारे
  फूलों पे सजे मोती के दाने ये पल भर की आँख मिचौली है

  यहाँ हर सुंदर चेहरे के पीछे आँसुओं की लंबी कहानी है
  दुखों की गठरी कोई न देखे यहाँ सब देखे लहंगा चोली है

  जीवन उत्सव और जीना आनंद है घर मंदिर मयखाना जी
  ओशो प्रेम की मदिरा पल पल हम सबने साँस में घोली है

  होश में इक इक क़दम उठाना और नाच ना गाना मस्ती में
  प्यार की भाषा तो जाने जग सारा यह क़ुदरत की बोली है

  नक़ली चेहरा दिखाने वालों में भैया कुछ तो नक़ली होगा
  जानने वाले तो जान ही लेंगे नहीं पब्लिक इतनी भोली है
                                                                                    
 
मोबाइल नंबर  0044 740 3891 3821





होली के दोहे – मनोज खरे

उमर हिरनिया हो गई, देह-इन्द्र-दरबार
मौसम सँग मोहित हुए, दर्पण-फूल-बहार

दर्पण बोला लाड़ से, सुन गोरी, दिलचोर
अंगिया ना सह पाएगी, अब यौवन का जोर

यूं ना लो अंगड़ाइयां, संयम हैं कमजोर
देर टूटते ना लगे, लोक-लाज की डोर

शाम सेंदुरी होंठ पर, आँखें उजली भोर
बैरन नदिया सा चढ़े, यौवन ये बरजोर

तितली झुक कर फूल पर, कहती है आदाब
सीने में दिल की जगह, रक्खा लाल गुलाब

जब से होठों ने छुए, तेरे होंठ पलाश
उस दिन से ही हो गई, अम्बर जैसी प्यास

~मनोज खरे
[सौजन्य – यशोदा अग्रवाल]




हुरियाई हजलें - नीरज गोस्वामी


हुआ जो सोच में बूढा उसे फागुन सताता है
मगर जो है जवां दिल वो सदा होली मनाता है

अपुन तो टुन्न हो जाते भिडू जब हाथ से अपने
हमें घर वो बुला कर प्यार से पानी पिलाता है

उसे बाज़ार के रंगों से रंगने की ज़रूरत क्या
फ़कत छूते ही मेरे जो गुलाबी होता जाता है

हमारे देश में कानून तो है इक मदारी सा
तभी वो बेगुनाहों को बँदरिया सा नचाता है

गलत बातों को ठहराने सही हर बार संसद में
कोई जूते लगाता है कोई चप्पल चलाता है

सियासत मुल्क में शायद है इक कंगाल की बेटी
हर इक बूढा उसे पाने को कैसे छटपटाता है

बदल दूंगा मैं इसका रंग कह कर देखिये नेता
बुरे हालात सी हर भैंस पर उबटन लगाता है

बहुत मटका रही हो आज पतली जिस कमरिया को
उसे ही याद रख इक दिन खुदा कमरा बनाता है

दबा लेते हैं दिल में चाह अब तुझसे लिपटने की
करें कितनी भी कोशिश बीच में ये पेट आता है

सुनाई ही नहीं देगा किसी को सच वहां "नीरज"
तू क्यूँ नक्कार खाने में खड़ा तूती बजाता है


 2

केसरिया, लाल, पीला, नीला, हरा, गुलाबी
सारे लगा के देखे, तुझपे खिला गुलाबी

रहता था लाल हरदम, दुश्मन के खून से जो
होली में प्यार से वो, खंज़र हुआ गुलाबी

काला कलूट ऐसा की रात में दिखे ना
फागुन में सुन सखी वो, लगता पिया गुलाबी

आँखों में लाल डोरे, पावों में हल्की थिरकन
तू पास हो तो मुझ पर, चढ़ता नशा गुलाबी

पैगाम पी का आया, होली पे आ रहे हैं
मन का मयूर नाचा, तन हो गया गुलाबी

कल तक सफ़ेद झक थी, जुम्मन चचा की दाढ़ी
काला किया लगा तब, है मामला गुलाबी

होली पे मिल के 'नीरज' इक दूसरे को कर दें
केसरिया, लाल, पीला, नीला, हरा, गुलाबी


3.

आँखों में तेरी अपने, कुछ ख़्वाब सजा दूँ तो
फिर ख़्वाब वही सारे, सच कर के दिखा दूँ तो

 महकोगी गुलाबों सी, होली पे मेरी जानम
इक रंग मुहब्बत का, थोड़ा सा लगा दूँ तो

जिस राह से गुजरो तुम, सब फूल बिछाते हैं
उस राह प मैं अपनी, पलकें ही बिछा दूँ तो

कहते हैं वो बारिश में, बा-होश नहायेंगे
बादल में अगर मदिरा, चुपके से मिला दूँ तो ?

फागुन की बयारों में, कुचियाते हुए महुए
की छाँव तुझे दिल की, हर बात बता दूँ तो

बस उसकी मुंडेरों तक, परवाज़ रही इनकी
चाहत के परिंदों को, मैं जब भी उड़ा दूँ तो

हो जाएगा टेसू के, फूलों सा तेरा चेहरा
उस पहली छुवन की मैं, गर याद दिला दूँ तो

उफ़! हाय हटो जाओ, कहते हुए लिपटेगी
मैं हाथ पकड़ उसका, हौले से दबा दूँ तो

[महुए के पेड़ की पत्तियां फागुन में गिरनी शुरू होती हैं और टहनियों में फूल आने लगते हैं ,इस प्रक्रिया को कुचियाना कहते हैं।]
(टेसू के फूल सुर्ख लाल रंग के होते हैं )


4.

कमीने, पाजी, हरामी, अहमक, टपोरी सारे, तेरी गली में
रकीब बन कर मुझे डराते मैं आऊँ कैसे, तेरी गली में

खडूस बापू, मुटल्ली अम्मा, निकम्मे भाई, छिछोरी बहनें
बजाएं मुझको समझ नगाड़ा ये सारे मिल के, तेरी गली में

हमारी मूंछो, को काट देना, जो हमने होली, के दिन ही आके
न भांग छानी, न गटकी दारून खाये गुझिये, तेरी गली में

अकड़ रहे थे ये सोच कर हम, जरा भी मजनू से कम नहीं हैं
उतर गया है, बुखार सारा, पड़े वो जूते, तेरी गली में

तमाम रस्‍ता कि जैसे कीचड़, कहीं पे गढ्ढा कहीं पे गोबर
तेरी मुहब्‍बत में डूबकर हम मगर हैं आये तेरी गली में

किसी को मामा किसी को नाना किसी को चाचा किसी को ताऊ
बनाये हमने हैं तेरी खातिर ये फ़र्ज़ी रिश्ते तेरी गली में

भुला दी अपनी उमर तो देखो ये हाल इसका हुआ है लोगों
पड़ा हुआ है जमीं पे 'नीरज' लगा के ठुमके तेरी गली में



एक गीत  - क्यों न मन फागुन बने – कल्पना रामानी


रंग सारे भूमि पर आकर मिले हैं
क्यों न मन फागुन बने

प्रकृति ने फिर प्रेम के पुखराज
जी भर कर लुटाए
सुरभि से रसराज ने कालीन
बगिया में बिछाए
हर तरफ आनंद-रस के सिलसिले है
क्यों न मन फागुन बने

रमणियों-पग रच हिना ने
पायलों से प्रीत जोड़ी
और पिचकारी चली भरकर
ठिठोली-भंग थोड़ी
गेर ने गटके सभी शिकवे गिले हैं
क्यों न मन फागुन बने

रंग सारे दाग धो देते
दिलों के दलदलों से
और अंतर्घट गले तक 
पूर होते शतदलों से
बैर के, जड़ छोड़ ढह जाते किले हैं
क्यों न मन फागुन बने   

  

दो ग़ज़लें – कलपना रामानी

१)

गुल खिले, गुलशन जगे, खुशबू हुआ मौसम
सृष्टि का कण-कण हुआ, रंगों भरा मौसम

क्यारियाँ, फुलवारियाँ, सजने लगीं खुश हो
बालपन में रंग नव, भरने लगा मौसम

गोद ले कलियाँ, तितलियाँ, ओस-कण, भँवरे
दे रहा हर-मन सुकूँ, यह खुशनुमा मौसम

अंकुरित होने लगे, उल्लास के पौधे
आस के फूलों-फलों से, लद गया मौसम

सूर्य-रथ से सात-रंगी नव्य किरणों को
देख उतरता भूमि पर, खुलकर खिला मौसम

लाल, नारंगी, गुलाबी, पीत या नीला 
रंग सब मिल कर बनाते, प्यार का मौसम

फागुनी दिन कह रहे, जी भर कहो ग़ज़लें  
भावों का भंडार ले, सम्मुख खड़ा मौसम

प्रकृति का हर रंग भर लो, मित्र जीवन में
कल्पना’ त्यौहार होगा, हर नया मौसम



२)

रंग लाए व्योम से भीगा हुआ फागुन सखी।
भूमि पर हर जीव से हँसकर मिला फागुन सखी।

ऋतु रँगीली, मन नशीला, भंग का प्याला लिए
पाँव घुँघरू बाँधकर, बहका रहा फागुन सखी।

वन-पलाशों में रचाईं धूप ने रंगोलियाँ
विहग वृंदों, चौपदों का मन हुआ फागुन सखी।

उर उमंगें हैं उमंगित, जी जनों का झूम उठा
छप्परों-छानों-छतों पर, छा गया फागुन सखी।

आम रस चखने चली अमराइयों में कोकिला
कूक की उसकी अदा पर, है फिदा फागुन सखी

हो रही घर घर में पूजा होलिका की रीत से
कल्पना” संदेश देता जीत का फागुन सखी

-कल्पना रामानी
मो-07498842072



होली के दोहे - अशोक कुमार रक्ताले


होली के हर रंग पर, रहे प्रेम का वेश |
दूर करे विद्वेष सब, दे पावन सन्देश ||

उड़ता हुआ अबीर हो , या फागुन का रंग |
विरहन को डँसता रहा, बनकर सदा भुजंग || 

लाता है हर रंग में , मिला प्रेम अनुराग |
झूम-झूमकर आज भी, वासंतोत्सव फाग ||

मंद-मंद दहका रही, तन होली की आग |
मन पागल भी गा रहा, झूम-झूम कर फाग ||

हुरियारों की टोलियाँ, बूढ़े हुए जवान |
भौजी जीजा सालियाँ, सारे हैं बैमान ||

फागुन ने तनपर मला, लाल गुलाल अबीर |
सुध भूला धनवान भी, फिरता बना फ़कीर ||

आये चल दहलीज तक, फागुन के मृदु पाँव |
झूम उठे उल्लास से , नगर गली अरु गाँव ||


54, राजस्व कॉलोनी, फ्रीगंज, उज्जैन. (म.प्र.) मो. : 9827256343.  



एक गीत – मुमताज़ नाज़ां


हर इक दिल में उमंग उट्ठी
 हर इक चेहरे पे आब आया
 फ़िज़ा पर छाई है मस्ती
 बहारों पर शबाब आया
 थिरक उट्ठे हैं दिल
 धड़कन में है आहंग होली में
 खिला फागुन
 छलक उट्ठे महकते रंग होली में

यहाँ है बौर आमों पर
 वहां कोयल भी बौराई
 बसंती ओढ़नी ऋतुराज ने
 धरती को पहनाई
 मचल कर नाचता है मोर
 अपने पंख फैलाए
 हया मख़्मूर अरमानों को
 थपकी दे के बहलाए
 थिरक उठ्ठी उमंगें
 हौसलों के संग होली में

तरंगें भंग की उठती हैं जब
 दिल झूम जाता है
 बरसता रंग
 गोरी के बदन को चूम जाता है
 बंधे हैं सबके दिल
 जज़्बात की इक कच्ची डोरी से
 लगाया जा रहा है रंग
 ज़िद से, जोराजोरी से
 पिया से हो गई है
 प्यार की इक जंग होली में

अजब सी बेख़ुदी है
 होश हैं किसके ठिकाने से
 जताया जा रहा है प्यार
 होली के बहाने से
 हुआ आग़ाज़ वो देखो
 किसी रंगीं कहानी का
 वो डाला रंग, रँग डाला है
 सब तन मन दीवानी का
 शरारत से पिया की
 हो गया जी तंग होली में

कहीं मस्ती, कहीं हुड़दंग
 बोली है, ठिठोली है
 झमकती झूमती वो आ रही
 मस्तों की टोली है
 हमारे देश के लोगों का
 हर अंदाज़ है बेढब
 पराया कौन, अपना कौन
 सब यक रंग हैं साहब
 हर इक दिल पर बजी है
 प्यार की मिरदंग होली में




एक रचना - श्रीमती ज्ञान्ति सिंह

मयखाने में बुलाकर
भंग के बहाने
लुट लिया
कज़री वाले ने
नेता बने शैतानों ने
वर्दी पर दाग लगाने वालों ने
जनता की होली जल रही
जनता के दरबारों में
आस्तीनों को हम पाल रहे
अपने ही जंजाल में
नेता करते जुगाली
अपने ही घर बार में
डंडे उठाकर दौड़ रहे
देखो कितने धार में
प्रशाशन  को साला समझें
हम किसपर इतबार करें
जुगत लगाते करते
रहते यह अब सिर्फ हेराफेरी
किसको क्या कहें अब
कंगालों की नगरी में
कुकर सुवर बन गए 
अट्टास लगाते  नगरी में
आने का गुलाल
अब न दिखता है
पेट की अतडी झांक रही
अब खुले हुए मैदानों में
वोटो की खेती कैसे हो
इसकी जुगत सब बना रहे
हाड मॉस की राजनीति कर
आपना हित ये साध रहे
देश को कंगाल्ली पर लेन को
खून की होली खेल रहे
होली में अब बरजोरी है
सखा सहेली पर सब भारी है
दुनिया दांत निपोरती है
जब अबला यहाँ
सताई जाती है
किसी की बहन
किसी की बेटी और
किसी की पत्नी
जब रोज जलाई जाती है
खेलूं कैसे होली
अब कैसे मैं
यह तो कोई हमें दे बताये
जनता के खातिर जब जवान
गोली खाते हैं
सिंदूर मिट जाती है पल में
तब ही मेरी होली का त्यौहार
सब गम में डूब जाता है
मेरे घर मैं होली खेलूं कैसे
जब पड़ोस में जवान ने
सहादत पाई है

मो- ९९५३४७९५८३



अररर अररर मच गई होरी  - मंगलेश दत्त


उत्सब जे तौ हिया मिलन कौ
 बाँध प्रेम की डोरी ।।

 गली मौहल्ला चौक चौबारे ।
 फूलन के रंग पट गए सारे ।।
 दूर दूर तक धारन बारी ।
 धुआंधार चल रहीं पिचकारी।।

लठ बरसाबैं बरसाने मेँ
 छोरन के सर छोरी ।१।
अररर अररर मच गई होरी ।

 बाजत ढोल मृदंग नगारा ।
 उड़त गुलाल अबीर गुबारा ।।
 मठरी गुजिआ बालूसाई ।
 लो ठंडी केसर ठंडाई ।।

दुस्मन जी गल बईँया डारत
 तज कें जोराजोरी ।२।
अररर अररर मच गई होरी ।

 रंग रंगीले छैल छबीले ।
 मस्ताने हैं बड़े हठीले ।।
 कोउना बाकी छोड़ो इन्नें ।
 मूँछन ताब दिऔ हो जिन्नें ।।

हाय हाय इन दारी केन्नें
 रंग दई चूनर कोरी ।३।
अररर अररर मच गई होरी ।

 देखौ री भगबान को ढोटा ।
 छान गयौ छै भाँग के लोटा ।।
 नाय मानौ इत्ती समझाई ।
 नई नई बेटा भई है सगाई ।।

भुत्त सौ मौहड़ौ बैठ गली मेँ
 दिन में गाबत लोरी ।४।
अररर अररर मच गई होरी ।

 मौहन कौ सब मौहन ब्रज में ।
 दूध प्रेम कौ दौहन ब्रज में ।।
 ना कंसन सौं डर रे ब्रज में ।
 चक्र सुदरसन बारौ ब्रज में ।।

'मंगलेश' प्रभु कान्हा जी संग
 सोभित राधा गोरी ।५।
अररर अररर मच गई होरी ।

9867530956



होली के छन्द – नवीन सी. चतुर्वेदी


रसिक शिरोमणि की छब कों निहारत ही,
 हियरा हरौ है गयौ, मगन किशोरी है।

जैसें ही ललन जू सों लाडली के नैन मिले,
 नैनन में गहराई लाल रंग डोरी है।

हिमजल के समान रंग नेह कौ 'नवीन',
 प्रीत परिहास पीत रंग चहूँ ओरी है।

दुनिया तौ एक होरी एक फाग खेलै किन्तु,
 श्यामा श्याम के यहाँ तौ बारों मास होरी है॥

*****

ब्रज-रज अनुरागी श्याम जू नित 'नवीन'
 विश्व कल्याण हेतु बानक बनामें हैं।

मित्र कों बताए बिन मित्रता निभामें और,
 फाग के बहानें मन-मैल कों मिटामें हैं।

रसिकन के रुआब नेह-छोह के नवाब,
 प्रीत, परतीत जीत-जीत हार जामें हैं।

नर-नारी की समान-सत्ता समुझायवे कों,
 लाडले जू लाडली के चरन दबामें हैं॥

*****

दही दूध माखन के चतुर चुरैयन के,
 सखा श्याम सुन्दर के पाँयन की रोरी है।

रसदाई, वरदाई, मुगधाई जसुधा के,
 ललना के पलना के झूलन की डोरी है।

धरा सों अकास तक दिखै है जा कौ उजास,
 ऐसे नँद-नन्द मुख चंद्र की चकोरी है।

औरन की होरी, होरी होयगी 'नवीन' किन्तु,
 हरि की होरी तौ नवनीत की कटोरी है॥

*****

मस्त-मस्त मदभरे फागन की तान छेड़,
 रितुपति वसंत नें म्हैफिल जमाई है।

रंगन कौ संग पाय मन की उमंगन नें,
 चंग-ढप-ढोल संग रंगत बढाई है।

लेकिन रँगरेज कों रंगन कौ कहा मोह,
 हरि नें होरी 'नवीन' रीति सों मनाई है।

अधर, कपोल, नाक, ठोड़ी, अँगुरियन पै,
 मीत नें मलाई रुच-रुच कें लगाई है॥

*****

जसुधा कौ मन भयौ लाल कों भिगोय डारों,
 फिर वा कों ध्यान आयौ गजब है जावैगौ।

भींजबे के बाद यदि कनुआ रिसाय गयौ,
 कौन फिर माखन के मीत कों मनावैगौ।

नन्द बाबा पूछत हैं ए री जसोमत बोल,
 रंग डारबे सों कान्हा काय कों रिसावैगौ।

जसुधा बोली अगर रंग लग जायगौ तौ,
 लल्ला अँगुरियन कों कैसें चाट पावैगौ॥


आज्ञा लेने से पूर्व एक बार फिर सभी साहित्यानुरागियों को होली की बधाइयाँ। अल्प समय की सूचना पर जिन साथियों ने अपनी रचनाएँ भेज कर अंक के प्रकाशन की राह सुगम की उन सभी का बहुत बहुत आभार। साहित्यम का होली विशेषांक होली की तरह का ही होता है, बस मस्ती मस्ती और मस्ती। आशा है आप सभी को यह अंक पसंद आया होगा। अब तक के अनुभव के आधार पर मन में कुछ ऐसा विचार आ रहा है कि साहित्यम के भावी अंकों को किसी समय-चक्र में बाँधने की बजाय उपलब्धता / सुगमता पर आधारित रखा जाये। आप के बहुमूल्य सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

नमस्कार।