30 अप्रैल 2014

लघु कथा – प्रसाद - प्राण शर्मा

पहले की तरह इस बार भी धनराज जी ने अपने बेटे का जन्म दिवस राम मन्दिर में खूब धूमधाम से मनाया । वे मन्दिर के प्रेसिडेण्ट हैं। उन के नाम से लोग खिंचे चले आये।

केक काटा गया। खूब तालियाँ बजीं। हैपी बर्थ डे से हाल  गूँज उठा। उपहारों से  स्टेज भर गयी। इतने उपहार भगवान् राम को नहीं मिलते हैं जितने उपहार बेटे को मिले।  सभी अतिथि खूब नाचे - झूमे। शायद ही कोई मधुर गीत गाने से पीछे रहा था।

आरती के बाद प्रसाद के रूप में काजू , अखरोट , किशमिश और मिशरी का मिला - जुला डिब्बा अतिथियों को दिया जाने लगा। हर डिब्बा पाञ्च सौ ग्राम का था। प्रसाद देने  वाले धनराज खुद ही थे।

कुछ अतिथियों के बाद नगर के मुख्य न्यायधीश उत्तम कुमार जी की प्रसाद लेने की बारी आयी। उन्हें देख कर धनराज जी खिल उठे। उन्होंने झट मुख्य न्यायधीश जी को दो डिब्बे थमा दिए।

अपने हाथों में दो डिब्बे देख कर वे हैरान हो गये। पूछ बैठे - " धनराज जी , औरों को तो आप प्रसाद का  एक ही डिब्बा दे रहे हैं , मुझे दो डिब्बे क्यों ? "

" हज़ूर ,आप नगर के विशेष व्यक्ति हैं। " धनराज जी ने  उनके कान में कहा।

मुख्यधीश जी उन्हें एक तरफ ले गये। बड़ी नम्रता से बोले - " देखिये , धनराज जी, ये राम का मन्दिर है। उनके  मन्दिर में सभी अतिथि विशेष हैं। "

6 टिप्‍पणियां:

  1. काश यह बात सब समझ सकें की हर इंसान बराबर है ।

    जवाब देंहटाएं
  2. ईश्वर के दरबार मे सभी बराबर होते हैं बहूत सुन्दर लघुकथा प्रेरक

    जवाब देंहटाएं
  3. दोनों पक्षों को सुन्दर सीख देती लघु कथा के लिए बधाई आपको |

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह ... जमाने की नब्ज समझते हैं प्राण साहब ...
    चुटीले अंदाज़ में अच्छी कहानी ...

    जवाब देंहटाएं
  5. हम मन्दिर जाते है तो अपनी सुविधा यानी अपने जूते उतारते है अपना अहं तिरोहित करते हैं यानी सर झुकाते है । जो प्रसाद मिलता है स्वीकार करते है नहीं देखते कि किसी और को हमसे जियादा मिला या कम । लेकिन बाहर निकलते ही हम इस छोटी सी कार्यशाला से कुछ भी नही सीखते । बाहर भी आसमान की छत वाला ईश्वर का ही मन्दिर है यहाँ हम फिर वही सुविधा ,अहं और सापेक्षता धारण कर लेते है । सारे तीर्थ दुर्गम स्थानो पर बनाये गये क्योकि ये जीवन सीखने की प्राकृतिक कार्यशालायें है । कुछ दिनों का शरीर का कष्ट आस्था की भावना से समाज के सभी वर्गो के साथ साथ चलना और भोजन भूगोल के साथ अनुकूलन जीवन को ही सिखाने की प्रविधि है जो तीर्थयात्राओ के मूल में छिपी हुयी है परन्तु शायद इस वाणिज्यिक जगत मे हम इसका मूल प्रयोजन भूल गये हैं ।
    प्राण साहब !! व्यंग्य तो इस लघु कथा का इसकी इब्तिदा से ही तारी था !! -
    मन्दिर के प्रेसीडेण्ट !! राम मन्दिर मे --केक काटा गया-- इतने उपहार भगवान् राम को नहीं मिलते हैं जितने उपहार बेटे को मिले---हर डिब्बा पाञ्च सौ ग्राम का था। प्रसाद देने वाले धनराज खुद ही थे---
    सच ये है कि ये लघु कथा जिस कैंवास पर लिखी गयी है –वो सवयं एक सम्यक उपालम्भ है –इसका केन्द्रीय भाव बेहद समर्थ है जो कि लघु कथा की विशेषता होती है !! बधाई प्राण साहब !! –मयंक

    जवाब देंहटाएं