13 सितंबर 2013

चंद अशआर - मदन मोहन दानिश

मसअला ये इश्क़ का है, ज़िन्दगानी का नहीं
यूँ समझिये प्यास का शिकवा है, पानी का नहीं.
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बस एक काम है मौला, इसे अगर कर दे
मेरा जो मुझसे तअल्लुक है, मोतबर कर दे
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कितने साए लिपट गए मुझसे
रोशनी के क़रीब जाने से

वो कहाँ दूर तक गए 'दानिश'
जो परिंदे उड़े, उड़ाने से
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हम अपने दुःख को गाने लग गए हैं
मगर इसमे , ज़माने लग गए हैं

कहानी रुख़ बदलना चाहती है
नए किरदार आने लग गए हैं
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मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ.
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ

गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ .
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वो ज़माने से डर गया शायद
कम था मुझ में भी हौसला शायद

उसकी आवारगी तमाम हुई
कोई दरवाज़ा खुल गया शायद
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तुमसे ही छूटता नहीं जंगल तो क्या करें
वरना फ़रार होने का इक रास्ता तो है .

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डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गई
बस यहीं मजबूर दरिया हो गया.

ग़म अँधेरे का नहीं 'दानिश', मगर
वक़्त से पहले अँधेरा हो गया
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ये माना इस तरफ़ रस्ता न जाए
मगर फिर भी मुझे रोका न  जाए

बदल सकती है रुख़ तस्वीर अपना
कुछ इतने ग़ौर से देखा न जाए

हमारी अर्ज़ बस इतनी है दानिश
उदासी का सबब पूछा न जाए.
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जब अपनी बेकली से, बेख़ुदी से कुछ नहीं होता
पुकारें क्यों किसी को हम, किसी से कुछ नहीं होता.

कोई जब शह्र से जाए तो रौनक़ रूठ जाती है
किसी की शह्र में मौजूदगी से कुछ नहीं होता
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इनको बुझते कभी नहीं देखा
कौन जलता है इन सितारों में



मदन मोहन दानिश
Programme Exexcutive at AII Radio, Gwalior

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