29 सितंबर 2013

उफ़! मुशायरों की ये हालत - साजिद घायल

दोस्तो, दुबई में एक मुशायरा सुनने का मौक़ा मिला। सही मायनों में यह मेरा पहला एक्सपीरियन्स था। इस से पहले कभी ज़िन्दगी में ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया था। बस यू ट्यूब पर ही देखा था बुजुर्गों को शायरी पढ़ते हुये और मस्त सामईन को मस्त होते हुये। बहुत कुछ एकस्पेक्ट कर रहा था इस ख़ूबसूरत महफ़िल से, और जब मुनव्वर राणा भाई मुशायरे की निज़ामत करने वाले हों, इक़बाल अशहर शेर पढ़ने वाले हों तो एक्सपेक्टेशन और भी ज़ियादा बढ़ जाती है। 

पर वहाँ जा कर मैंने जो माहौल देखा, जो मंज़र देखा उस ने मुझे यह फ़ैसला लेने पर मज़बूर कर दिया कि यह मेरा आख़िरी मुशायरा है। आज के बाद मैं ज़िन्दगी में कभी कोई मुशायरा सुनने नहीं जाऊँगा। इस मुशायरे को क़ामयाब मुशायरा बनाने के लिये हमारी असोसियेशन की टीम ने अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह उन की मेहनतों का और नेक-नीयती का ही नतीज़ा था जो यहाँ दूर परदेश में ऐसी महफ़िल सजी थी। शायरों / कवियों का हुजूम भी देखने लायक था। ऐसा लग रहा था मानो आसमान के जगमगाते तारे ज़मीन पर उतर आये हों। 

लेकिन जिस तरह की बेहूदगी और गंदगी से एक बड़ी जमात ने यह मुशायरा सुना है, उस ने मेरी आँखें नम कर दीं। मुनव्वर भाई तक का मज़ाक बनाया जा रहा था, एक बड़ी भीड़ को यह तक पता नहीं था कि मुनव्वर भाई हैं कौन? और उन का मक़ाम क्या है? हर शायर और ख़ास कर शायरा को इस बेदर्दी से जलील किया जा रहा था कि मैं बयान नहीं कर सकता। ऐसे-ऐसे जुमले कसे जा रहे थे मानो हम किसी मुशायरे में नहीं बल्कि किसी तवायफ़ के कोठे पर बैठे हों। अरे मैं तो कहता हूँ कि कोठों पर भी एक अदब होता होगा, यहाँ तो वह भी नहीं था। सारे भाई जो यह तमाशा देख रहे थे वो सब यू. पी. से बिलोंग करते थे। यक़ीन जानिये उन की इतनी बड़ी भीड़ होने के बावजूद मैं यह कहने पर मज़बूर हो गया एक भाई से कि "किसी की बे-इज़्ज़ती कर के आप बड़े नहीं हो जाओगे मेरे भाई " 

मैं तो इसी नतीज़े पर पहुँचा हूँ अगर 10 शेरो-शायरी से मुहब्बत करने वाले लोग हों तो सिर्फ़ वही आपस में बैठें और एक दूसरे को सुनें - सुनाएँ। इस तरह के घटिया और गिरे हुये लोगों को बुला कर मुशायरा करना उर्दू को गाली देना है,  उर्दू को नंगा कर के उस से मुजरा करवाने जैसा है। और क्या-क्या बताऊँ - सीटियाँ बजाई जा रही थीं। एक शायर............. नाम याद नहीं आ रहा ............... उन्होंने गिड़गिड़ा कर कहा भी "भाई उर्दू वैसे ही बुरे दौर से गुजर रही है, प्लीज आप सब से गुजारिश है कि सीटियाँ न बजाएँ , यहाँ कोई नौटंकी नहीं हो रही" .... मगर किसी पर कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ा। 

क्यूँ होते हैं यह मुशायरे? क्या मतलब रह गया है ऐसे मुशायरों का? छी: मुझे तो अब घिन आ गयी है। अगर मेरी बातों से किसी के दिल को कोई चोट पहुँची हो तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा, यह मेरी और सिर्फ़ मेरी जाती राय है............... मैं ग़लत भी हो सकता हूँ  

आबू धाबी से साजिद घायल via email - sajidghayel@gmail.com

26 सितंबर 2013

बोल-बचनों को सदाचार समझ लेते हैं - नवीन

बोल-बचनों को सदाचार समझ लेते हैं।
लोग टीलों को भी कुहसार समझ लेते हैं॥

दूर अम्बर में कोई चश्म लहू रोती है।
हम यहाँ उस को चमत्कार समझ लेते हैं॥

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर।
हम यहाँ ख़ुद को कलाकार समझ लेते हैं॥

भूल कर भी कभी पैजनियाँ को पाज़ेब न बोल।
किस की झनकार है फ़नकार समझ लेते हैं॥

पहले हर बात पे हम लोग उलझ पड़ते थे।
अब तो बस रार का इसरार समझ लेते हैं॥

एक दूजे को बहुत घाव दिये हैं हमने।
आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं॥

अपनी बातों का बतंगड़ न बानाएँ साहब।
सार एक पल में समझदार समझ लेते हैं॥

टीला – मिट्टी या रेट की बड़ी छोटी सी पहाड़ीकुहसार – पहाड़ [बहुवचन], चश्म – आँख, तसव्वुर – कल्पना, रार – लड़ाईइसरार – जिद / हठ [लड़ाई की वज़्ह]


फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फ़ालुन. 
बहरे रमल मुसम्मन मख़्बून मुसक्कन. 
2122 1122 1122 22 

25 सितंबर 2013

दीवार काफ़िये पर मुक्तलिफ़ अशआर

काव्य की विधा कोई भी हो, महत्वपूर्ण होता है कि हम किस तरह से ख़याल को नज़्म करते हैं। विभिन्न रचनधर्मी किसी एक ही ख़याल या शब्द या बन्दिश को अलग-अलग किस तरह से नज़्म करते हैं, यह बानगी भी देखने लायक होती है। इस की शुरुआत हुई थी पिङ्गल आधारित समस्या-पूर्ति आयोजनों से। कालान्तर में जब पिङ्गल से बढ़ कर अरूज़ का जन्म हुआ तो वहाँ भी तरही जैसे कार्यक्रम चलन में आये। कोई भी देश-काल-वातावरण-व्यक्ति-वस्तु-स्थिति वग़ैरह होमनुष्य को दरकार रहती है एक अदद एक्टिविटी की – जिस के ज़रिये वह अपनी कलाकारी [क्षमता] का प्रदर्शन कर सके। ग़ज़ल के तरही आयोजनों में इस तरह के नज़्ज़ारे भरपूर देखने को मिलते हैं। लफ़्ज़ की वेबसाइट पर ज़ारी 12 वीं तरही में तमाम शायरों ने एक ही क़ाफ़िये ‘दीवार’ को किस-किस तरह से नज़्म किया है, उस की झलकियाँ देखियेगा। स्थापित रचनाधर्मियों के लिये जहाँ एक ओर यह सबबे-लुत्फ़ है वहीं मेरे जैसे अनाड़ियों के लिये सीखने का ज़रीया। तरही में आई हुई ग़ज़लों के क्रम में ही उन के शेर लिये जा रहे हैं  :-

हवा आयेगी आग पहने हुए
समा जायेगी घर की दीवार में – स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’

स्वप्निल बेसिकली गीत के व्यक्ति हैं इसलिए इन की ग़ज़लों में गीतात्मकता प्रचुर मात्रा में मिलती है। हवा का आग पहन कर आना उस का एक अच्छा उदाहरण है।

पता तो चले कम से कम दिन तो है
झरोखा ये रहने दो दीवार में – याक़ूब आज़म

याक़ूब आज़म साहब बंधनों के साथ-साथ कुछ-कुछ आज़ादी की पैरवी भी कर रहे हैं। बहुत ख़ूब।

न परदा ही सरका, न खिड़की खुली
ठनी थी गली और दीवार में – गौतम राजरिशी

मिलिट्री वाले गौतम राजरिशी ग़ज़ल को बसन्ती चोला पहनाते रहते हैं, यहाँ भी उन का वही रूप मुखरित हुआ है ।  फ़ौजी भाई कमाल किया है आपने, जीते रहिये।

पहाड़ों में खोजूँगा झरना कोई
मैं खिड़की तलाशूँगा दीवार में – सौरभ शेखर

सौरभ, बातों को गहराई में उतर कर पकड़ते हैं और बहुत बार संकोच तो बहुत बार आवेश के साथ पटल पर रख देते हैं। निराशापूर्ण वातावरण में आशा की किरण ढूँढता उन का किरदार यहाँ मुख़ातिब है हमसे।

पसे-दर मकां में सभी अंधे हैं
दरीचे हज़ारों हैं दीवार में – खुर्शीद खैराड़ी
पसेदर – दरवाज़े के पीछे, दरीचा – खिड़की

खुर्शीद साहब को पहली बार पढ़ने का मौक़ा मिला और सभी ने मुक्त कण्ठ से आप की प्रशंसा की है। बड़ी ही मँझी हुई ग़ज़ल पेश की है आप ने। हमारे समय के विरोधाभास को बड़े ही सलीक़े से लपेटा है आप ने दीवार क़ाफ़िये के ज़रीए। अलबत्ता आप का ऊला मिसरा थोड़ी मेहनत ज़रूर माँग रहा है। आय मीन मिसरे के अन्त में बोलने में लड़खड़ाहट उत्पन्न हो रही है। लेकिन भरपूर ग़ज़ल के भरपूर शेर के लिये आप मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं।

हवा, रौशनी, धूप आने लगें
खुले इक दरीचा जो दीवार में – अदील जाफ़री

अदील जाफ़री साहब ने भी निराशा में आशा को ढूँढने का अच्छा प्रयास किया है।

हरिक संग शीशे सा है इन दिनों
नज़र आता है मुँह भी दीवार में – मयंक अवस्थी
संग – पत्थर

मयंक जी लीक से हट कर चलने वाले शायर हैं। आप का उक्त शेर मेरी बात की तसदीक़ करता है। दीवार में शीशे का तसव्वुर  बरबस ही मुँह से वाह कहलवा देता है । इसी शेर का एक फ्लेवर यह भी है कि अब विरोधाभास, समस्याएँ, अवरोध वग़ैरह सेल्फ़-एक्सप्लनेटरी हो चुके हैं – यानि ग़ालिब की तरह अब “दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है? आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?” टाइप सवालात की दरकार नहीं है। बच्चे भी बता सकते हैं – वॉट्स रूट लेवल कॉज़ ऑफ द प्रोब्लेम।

फिर इक रोज़ दिल का खँडर ढह गया
नमी थी लगातार दीवार में – नवनीत शर्मा

दीवार में नमी होने के कारण दिल के खण्डहर का ढह जाना! भाई वाह!! क्या बात है!!! शायर ने कमाल किया है यहाँ।

नदी सर पटकती रही बाँध पर
नहीं राह मिल पाई दीवार में – दिनेश नायडू

दिनेश नायडू इंजीनियरिंग से जुड़े व्यक्ति हैं और देखिये अभियन्ता ने बाँध से क्या मंज़र चुराया है। बहुत ख़ूब। इस तरह की अभियांत्रिकीय कल्पनाएँ धर्मेन्द्र कुमार सज्जन की रचनाओं में देखने का आदी रहा हूँ मैं अब दिनेश भी इन इमकानात से लबरेज़ दिखाई पड़ रहे हैं। जीते रहिये। 

खुला भेद पहली ही बौछार में
कई दर निकल आये दीवार में – इरशाद ख़ान सिकन्दर

इरशाद अपनी सहज और सरस बेबाक़ी के लिये मक़बूल हैं और आप का उपरोक्त शेर इस बात की पुष्टि करता है। यानि शायर ने अपनी बात कह दी – अब सोचना शुरू करें लोगबाग........

उदासी भी उसने वहीं पर रखी
ख़ुशी का जो आला था दीवार में – शबाब मेरठी

शबाब साहब देशज प्रतीकों को बड़ी ही सुंदरता के साथ नज़्म करते हैं, यहाँ भी आप ने ‘आला’ शब्द / प्रतीक के ज़रीए अपनी उसी कारीगरी का भरपूर प्रदर्शन किया है। क्या बात है।

ये छत को सहारा न दे पायेगी
अगर इतने दर होंगे दीवार में – आदिक भारती

ग़ज़ल में ख़याल पर ख़याल निकल कर आते हैं। इरशाद भाई के बाद आदिक साहब की ग़ज़ल आई थी। मुमकिन है आप ने इरशाद के ख़याल पर ख़याल बाँधा हो या यह भी हो सकता है कि ख़यालों का टकराना महज़ एक इत्तेफ़ाक़ हो। जो भी हो, तरही की पहली 14 ग़ज़लों में ‘दीवार’ क़ाफ़िया की इतनी अच्छी गिरह आप के हिस्से आयी, आप को भरपूर बधाइयाँ।

फ़क़त एक दस्तक ही बारिश ने दी
दरारें उभर आईं दीवार में – विकास शर्मा ‘राज़’

यहाँ भी ख़याल की रिपीटेशन है और यक़ीनन यह संयोग वश ही होगा। हालाँकि इस से बचा भी जा सकता है, परन्तु अधिकतर लोग तरही ग़ज़लों को उतनी गम्भीरता से नहीं लेते। अन्तर सिर्फ़ दरवाज़ा और दरार का है। चूँकि इरशाद और विकास दौनों ही मेरे गुरूभाई हैं, इसलिए थोड़ा अधिकार समझते हुये इस बात को रेखांकित किया है ताकि अगर बात उचित लगे तो भावी आयोजनों में इस तरह के दुहराव को अवॉइड किया जा सके।

कोई मौज बेचैन है उस तरफ़
लगाये कोई नक़्ब दीवार में – पवन कुमार
मौज – लहर, नक़्ब – सेंध

प्रशासनिक सेवा से जुड़े पवन जी की फ़िक्र हमें यह सोचने पर मज़बूर कर देती है कि साहित्य के लिये क्या वाक़ई पूर्ण-कालिक इबादत ज़रूरी है? न सिर्फ़ इन की फ़िक्र में इन की छाप स्पष्ट रूप से द्रष्टव्य होती है, बल्कि उस में निरन्तरता का पुट भी विद्यमान रहता है। दीवार के उस पार की लहर को इस पार लाने के लिये दीवार में सेंध.............. , अद्भुत सोच और विलक्षण सम्प्रेषण। यदि आप को मेरा कहा अतिशयोक्ति लगे तो इस बयान को किसी प्रशासनिक अधिकारी के अनुभव / सरोकार / राय वग़ैरह से सम्बन्धित सांकेतिक-अनुदेश के सन्दर्भ के साथ देखिये और इस की गहराइयों की थाह लेने की कोशिश कीजिये।

मुहब्बत को चुनवा के दीवार में
कहां ख़ुश था अकबर भी दरबार में – शफ़ीक़ रायपुरी

शफ़ीक़ साहब ने भी क्या ख़ूब निभाया है ‘दीवार’ क़ाफ़िये को। इस शेर की एक और ख़ूबी है कि इस के ऊला और सानी मिसरे को अदल-बदल करने पर लुत्फ़ बढ़ जा रहा है। उस्तादों वाला काम।

फिराती रही वहशते-दिल मुझे
न दर में रहा और न दीवार में – असलम इलाहाबादी

वहशतेदिल का भटकाव बख़ूबी नज़्म किया गया है अलबत्ता ‘दर / दीवार - में’ थोड़ा-थोड़ा ‘दर / दीवार - पर’ जैसा दृश्य दिखला रहे हैं, पर चल जाने लायक है। तुफ़ैल साहब से भी बात हुई थी इस शेर पर।

दबाया था आहों को मैंने बहुत
दरार आ गयी दिल की दीवार में – तुफ़ैल चतुर्वेदी

शुरुआत की अमूमन सभी ग़ज़लों में ‘दीवार’ क़ाफ़िये को नज़्म किया गया फिर यक-ब-यक  अनेक ऐसी ग़ज़लें आईं जिन में यह क़ाफ़िया नज़्म नहीं किया गया। अब फिर से इस की आमद शुरू हुई है। आदिक साहब का नज़्म किया हुआ ‘दीवार’ क़ाफ़िया अभी भी हमें अपने सुरूर में जकड़े हुये है पर यहाँ जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब ने भी दावेदारी पेश कर दी है। एक्यूरेटली डिजाइन्ड लिटरली परफेक्ट पिक्चर पोर्ट्रेट है यह शेर। तर्क पर कसें तो भी कुछ कमी नहीं है और 99.99% ख़याल भी नया है।

दरीचों से बोली गुज़रती हवा
कोई दर भी होता था दीवार में – आदिल रज़ा मंसूरी

शेर का मज़ा यही है कि उस के मुक्तलिफ़ मायने निकलें। मैं इस शेर को महँगाई से जोड़ कर पढ़ रहा हूँ और लुत्फ़ भी ले रहा हूँ। बढ़िया शेर है।

मिरे इश्क़ का घर बना जब, जुड़ी
तिरे नाम की ईंट दीवार में – प्रकाश सिंह अर्श

प्रकाश भाई को बधाई इस शेर के लिये।

प्रकाश सिंह अर्श की ग़ज़ल 29वें नम्बर पर आई और 25 सितम्बर बुधवार रात तक कुल जमा 35 ग़ज़लें आ चुकी हैं। शायद यहाँ तरही का समापन भी हो चुका है। अर्श के बाद की ग़ज़लों में भी ‘दीवार’ क़ाफ़िया नज़्म नहीं किया गया।


तो दोस्तो यह एक सफ़र था, मेरा साथ इस सफ़र पर चलने के लिये आप का बहुत-बहुत आभार। आप को यह आलेख कैसा लगा, बताइएगा अवश्य।  

चन्द अशआर - रश्मि सबा

अश्क आँखों में उतरता तो उतरता कैसे
झील सूखी थी ,कोई अक्स उभरता कैसे

उम्र लगती है सबा दर्द को पानी देते
रात के रात कोई रूप निखरता कैसे

तसव्वुर में कभी सोचा था जिसको
वही चेहरा हमारा हो रहा है

मैं जबसे रतजगे करने लगी हूँ
उजाले में इजाफ़ा हो रहा है
                              
इन परिंदों को भटकते हुए देखा ही नहीं
कौन है रोज़ इन्हें राह दिखाने वाला

अक्स मेरा था सबा और चमक भी मेरी
अब परेशान है आईना दिखाने वाला
                                         
उतारी जा चुकी हूँ चाक से मैं
किसी का फ़र्ज़ पूरा हो गया क्या

उतर आए हैं पलकों पर सितारे
फ़लक पर चाँद तनहा रह गया क्या

जबसे वो दूर हो गया मुझसे
यूँ  लगा दूर है खुदा मुझसे

मेरा नुक़सान हर तरह से है
माँगता है वो मशवरा मुझसे

और कुछ रुख़ निकालने के लिए
सुनना चाहेगा वाक़या मुझसे

हाय किस फूल की ये ख़ुशबू है
पूछती रह गयी सबा मुझसे
    
फ़रिश्ते ध्यान लगाए उतरने लगते हैं .
जो साथ तुम हो तो लम्हे सँवरने लगते हैं

ये आईने के अलावा सिफ़त किसी में नहीं
सँवरने वाले सरापा बिखरने लगते हैं

सजानी होती है जिस शब भी चाँद को महफ़िल
सितारे शाम से छत पर उतरने लगते हैं

दिखाई दे तो लिपट जाऊँ उस सदा से मैं 
कि जिसको सुन के 'सबा' फूल झरने लगते हैं
                                                        
चाँद को साथी बना ले ,रात को आबाद कर
रोशनी के ख़्वाब बुन और नींद से फ़रियाद कर

एक मद्धम सी सदा आती है मुझ तक रात दिन
कोई ये कहता है शायद, अब मुझे आज़ाद कर

क्या अजब दस्तूर है उसकी अदालत का सबा
मुद्दआ कोई नहीं है फिर भी तू फ़रियाद कर

कहीं से आती सदा है कोई
सदा नहीं है दुआ है कोई

कहाँ पता थी ये बात मुझको
कि मुझमे कब से छुपा है कोई

समझ रहे थे जिसे जज़ीरा
समन्दरों में घिरा है कोई

चमक रहा है जो चाँद बन के
यहीं से उठ कर गया है कोई

वफ़ा भी दे दी अना भी दे दी
सबा से फिर क्यूँ ख़फ़ा है कोई
                                   
फ़र्क पड़ता है क्या समंदर को
एक कश्ती के डूब जाने से

हर बहाना बरत चुका है सबा
अब वो आएगा किस बहाने से

ख़ामोशी थक के सो गई आख़िर
वो सदा रात भर नहीं आई

आहटें दिन की सुन रही थी मगर
रात ढलती नज़र नहीं आई

:- रश्मि सबा

20 सितंबर 2013

उसूल अपनी जगह कामकाज अपनी जगह - नवीन

उसूल अपनी जगह कामकाज अपनी जगह
यक़ीन अपनी जगह है रिवाज अपनी जगह

मैं तब ज़हीन था और अब पढ़ा-लिखा इन्सान
अज़ल है अपनी जगह और आज अपनी जगह
ज़हीन – कुशल / दक्ष, अज़ल – सृष्टि का पहला दिन

किसी दीवानी की उलफ़त ने हम को सिखलाया
लगन है अपनी जगह लोकलाज अपनी जगह

शकेब को भी तो हमजिंस की कमी खटकी
मक़ाम अपनी जगह है मिज़ाज अपनी जगह
हमजिंस – अपने जैसा

:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

1212 1122 1212 2

सब की सुनता हूँ बस अपनी ही सदा काटूँ हूँ - नवीन

सब की सुनता हूँ बस अपनी ही सदा काटूँ हूँ
तुझको हमराज़ बनाने की सज़ा काटूँ हूँ
सदा-आवाज़, हमराज़ – वह व्यक्ति जिसे अपना राज़ मालूम हो

दर्द ने ही तो दिये हैं मुझे तुम जैसे हबीब
और आमद के लिए ग़म का सिरा काटूँ हूँ
हबीब – दोस्त, आमद – आवक / बढ़ोतरी

है ख़लिश इतनी अभी उड़ के पहुँचना है वहाँ
बस इसी धुन में शबरोज़ हवा काटूँ हूँ
ख़लिश – तड़प, शबोरोज़ – रात दिन

ये ज़मीं तेरी है ये मेरी ये उन लोगों की
ऐसा लगता है कि जैसे मैं ख़ला काटूँ हूँ
ख़ला – अन्तरिक्ष,ब्रह्माण्ड के सन्दर्भ में

एक भी ज़ख्म छुपाया न गया तुम से ‘नवीन’
हार कर अपने कलेज़े की रिदा काटूँ हूँ
रिदा – चादर

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन.
बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन.

2122 1122 1122 22

18 सितंबर 2013

हवा के सिवा है जो रफ़्तार में - नवीन

हवा के सिवा है जो रफ़्तार में
असर उसका डाल अपने किरदार में

हदें हम पे हँसती रहीं और हम
तलाशा किये तर्क तकरार में
भला हो भरम का जो भरमा लिया
वगरना धरा क्या है संसार में

हमें यूँ अज़ल ही से मालूम था
है किस-किस का इसरार इस रार में
मगर क्या करें हम भी फँस ही गये
ख़ला की बलाओं की गुफ़्तार में
अज़ल - आदि / पहले से, इसरार - हठ, जिद, रार - लड़ाई, ख़ला - अन्तरिक्ष, गुफ़्तार - बातचीत 

चला चाक अपना ख़ला के कुम्हार
कई अक़्स हैं अनगढ़े, ग़ार में
मुहब्बत की रंगत में वहशत भी घोल 
उजाला तो हो कूचा-ए-यार में
ग़ार - गड्ढा, सूरज जहाँ डूबता है उस के संदर्भ में, वहशत - पागलपन / दीवानगी

वो लावा जो दुनिया बनाता भी है
न कुहसार पे है न कुहसार में
नया नूर जिस का ढिंढोरा पिटा
न रुख़सार पे है न रुख़सार में
कुहसार - पहाड़, रुख़्सार - गाल 

कहाँ सब ज़हीनों को दिखती है खाद
जी हाँ! ज़र्द पत्तों के अम्बार में
तेरी बातें हैं “शुद्ध-कूड़ा” नवीन
इन्हें कौन पूछेगा बाज़ार में
ज़हीन - बुद्धिमान , ज़र्द पत्ते - सूखे पत्ते 

बहरे मुतकारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल 
122 122 122 12 

इस ग़ज़ल को पूरी तरह से प्रयोग के तौर पर कहने की कोशिश की है। यह एक क़ताबन्द ग़ज़ल है। इस में वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास और अंत्यनुप्रास अलङ्कार का प्रयोग किया गया है। ग़ज़ल में अलङ्कारों का प्रयोग पहले के शायर भी करते रहे हैं। 

13 सितंबर 2013

नवरात्रि / दशहरा उत्सव पर केन्द्रित दोहे

नमस्कार

इस बार हम वातायन पर नवरात्रि पर केन्द्रित दोहों की श्रंखला शुरू कर रहे हैं। इस आयोजन को सिर्फ़ एक पोस्ट तक सीमित न रख कर बल्कि अलग-अलग पोस्ट्स में सहेजा जायेगा। इस दौरान अन्य रचनाएँ भी आती रहेंगी। सभी साथियों से निवेदन है कि नवदुर्गा / नवरात्रि / गरबा डाण्डिया / दशहरा वग़ैरह को केंद्र में रख कर अपने दोहे भेजें तथा अपने अन्य साथियों को भी मञ्च की तरफ़ से प्रार्थना करने की कृपा करें। यदि सम्भव हो तो दोहे अपनी-अपनी माँ-बोली में भेजने की कृपा करें। जिस भाषा-बोली में दोहे रचे गये हैं, उस का ज़िक्र भी अवश्य करें। चूँकि राजस्थानी या गुजराती या भोजपुरी कई बोलियों में शोभायमान हैं। 

दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजे जाने हैं 

सामान्यत: इस आयोजन को दशहरा तक ज़ारी रखने की इच्छा है। तो आइये अच्छे-अच्छे दोहे पढ़ें और पढ़वाएँ ...... 

टीवी मरवा देगा - आलोक पुराणिक

टीवी मरवा देगा- आलोक पुराणिक

नेताजी कह रहे हैं-हमरा इंडिया बहुतै पावरफुल है इत्ता पावरफुल कि फिनलैंड देश की पापुलेशन से करीब दो गुने तो यहाँ  रेहड़ी-खोमचे हैं-करीब एक करोड़।


मैंने निवेदन किया-नेताजी इस अंदाज में मुल्क की पावर ना बताया कीजिये, कनफ्यूज्ड हो जाते हैं कि इस पर रोया जाये कि हँसा  जाये।

सड़क के उस पार कोने में चाय, चाट-गोलगप्पे, समोसे की दुकानें हैं, जिन्हें  रेहड़ी-खोमचेवाले कहा जाता है। पुलिसवाले यहाँ  फ्री का खाना-रिश्वत के चक्कर में, लेखक विषय की तलाश में, नेता पब्लिक का मूड भाँपने  आते हैं गज्जू चायवाले ने हाल में टीवी पर आ रहा नया इश्तिहार देखा है, उसमें बताया गया है कि रेहड़ी-खोमचेवाले को बतौर पथविक्रेता कस्बा विक्रय क्षेत्र (इसका मतलब मुझे ना पता) में माल बेचने और पुलिसवालों को खिलाकर उनसे कीमत लेने तक का अधिकार भी है।

गज्जू चायवाला हज्जू चाटवाले से पूछ रहा है-अब पईसा ना देना पड़ेगा क्या ठुल्लू हवलदार को, क्या वह हमारा माल खाकर हमको पईसा देगा। कईसा-कईसा कामेडी दिखाता है बे टीवी पे। टीवी तो मरवा देगा।

हज्जू चाटवाला पढ़ा लिखा सा है-कह रहा है कि एकाध बार ठुल्लू से पईसा माँग कर देखियेगा, तब ना पता चलेगा।

ठुल्लू हवलदार कह रहा है-पूरा इश्तिहार ध्यान से देखिये, तब पता चलेगा। उसमें बताया गया है कि कस्बा विक्रय समिति से कस्बा विक्रय क्षेत्र में बेचने का सर्टिफिकेट वगैरह लेना पड़ेगा। हमें ना दीजियेगा रकम, तो सर्टिफिकेटवालों को दीजियेगा। रकम देने से कहाँ बचेंगे। और इश्तिहार ध्यान से देखो-पथविक्रेता के गोलगप्पे खाकर पैसे देते हुए हवलदार एक आँख दबाकर शायद ये बता रहा है कि बेट्टे मजाक में दे रहे हैं इस बार। पर मजाक रोज-रोज ना होगा। बेट्टे रकम देने से कहाँ बचोगे।

सत्य वचन, रकम देने से कहाँ बचेंगे?

ठुल्लू हवलदार सिंगल विंडो लाइसेंसिंग अथारिटी है, सारे लाइसेंस, सारे परमिट, सारे सर्टिफिकेट उसके डंडे से झड़ते हैं। कई जगह से लाइसेंस-परमिट-सर्टिफिकेट लाने पड़ जायें, तो खोमचेवाले कह उठें कि भईया पुरानावाला सिंगल विंडो लाइसेंस ठुल्लू हवलदार लाइये।

तो यह बताइये, इस पथविक्रेता इश्तिहार को सीरियसली लें या नहीं।

ठुल्लू हवलदार आंख दबाकर कह रहे हैं-खुद ही समझ लीजिये।


हें, हें, सब समझ गये हैं।

चंद अशआर - मदन मोहन दानिश

मसअला ये इश्क़ का है, ज़िन्दगानी का नहीं
यूँ समझिये प्यास का शिकवा है, पानी का नहीं.
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बस एक काम है मौला, इसे अगर कर दे
मेरा जो मुझसे तअल्लुक है, मोतबर कर दे
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कितने साए लिपट गए मुझसे
रोशनी के क़रीब जाने से

वो कहाँ दूर तक गए 'दानिश'
जो परिंदे उड़े, उड़ाने से
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हम अपने दुःख को गाने लग गए हैं
मगर इसमे , ज़माने लग गए हैं

कहानी रुख़ बदलना चाहती है
नए किरदार आने लग गए हैं
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मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ.
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ

गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ .
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वो ज़माने से डर गया शायद
कम था मुझ में भी हौसला शायद

उसकी आवारगी तमाम हुई
कोई दरवाज़ा खुल गया शायद
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तुमसे ही छूटता नहीं जंगल तो क्या करें
वरना फ़रार होने का इक रास्ता तो है .

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डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गई
बस यहीं मजबूर दरिया हो गया.

ग़म अँधेरे का नहीं 'दानिश', मगर
वक़्त से पहले अँधेरा हो गया
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ये माना इस तरफ़ रस्ता न जाए
मगर फिर भी मुझे रोका न  जाए

बदल सकती है रुख़ तस्वीर अपना
कुछ इतने ग़ौर से देखा न जाए

हमारी अर्ज़ बस इतनी है दानिश
उदासी का सबब पूछा न जाए.
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जब अपनी बेकली से, बेख़ुदी से कुछ नहीं होता
पुकारें क्यों किसी को हम, किसी से कुछ नहीं होता.

कोई जब शह्र से जाए तो रौनक़ रूठ जाती है
किसी की शह्र में मौजूदगी से कुछ नहीं होता
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इनको बुझते कभी नहीं देखा
कौन जलता है इन सितारों में



मदन मोहन दानिश
Programme Exexcutive at AII Radio, Gwalior