16 अगस्त 2013

घोंचू कहीं का - सौरभ पाण्डेय

आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !

पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .

हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.

कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..
और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में

तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?
:- सौरभ पाण्डेय 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपने लिखा....हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 17/08/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!

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  2. वस्तुस्थिति को क्या बढ़िया स्पष्ट कर जाती है कविता...
    वाह!

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  3. बहुत खूब सुंदर रचना साझा करने के लिए आभार ,,,
    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
    RECENT POST: आज़ादी की वर्षगांठ.

    जवाब देंहटाएं
  4. कविता के भाव में जो आक्रोश है वह हृदय को छूता है।

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  5. बहुत प्रभावी ... सोचने को मजबूर करते भाव ...

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