28 मई 2013

समझ में आते हैं कुछ इन्क़लाब आहिस्ता-आहिस्ता- नवीन


मुहतरम अमीर मीनाई साहब की ज़मीन सरकती जाये है रूख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता” पर एक कोशिश


समझ में आते हैं कुछ इन्क़लाब आहिस्ता-आहिस्ता
करें भी क्या कि खुलते हैं सराब आहिस्ता-आहिस्ता 
सराब - मृगतृष्णा

हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
हमें होना था यारो क़ामयाब आहिस्ता-आहिस्ता

समय थमता नहीं है और बदन भी थक रहा है कुछ
बिखरते जा रहे हैं सारे ख़्वाब आहिस्ता-आहिस्ता

वही बज़्मेंवही रस्मेंवही ताक़तवही गुर्बत
उभरते जा रहे हैं फिर नवाब आहिस्ता-आहिस्ता
बज़्म - महफ़िलगुर्बत - ग़रीबी

किसी बेशर्म से मिन्नत नहीं सख़्ती से पेश आओ
ज़ुबाँ टपकायेगी सारे ज़वाब आहिस्ता-आहिस्ता

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222 1222 1222 1222 

4 टिप्‍पणियां:

  1. हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
    हमें होना था यारो कामयाब आहिस्ता-आहिस्ता

    सच में

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  2. बहुत खूब! लाजवाब कोशिश मैं तो बिलकुल समझ गया :)

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  3. हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
    हमें होना था यारो कामयाब आहिस्ता-आहिस्ता ..

    कामयाबी आहिस्ता ही मिलती है ...
    बहुत ही लाजवाब शेर है नवीन भई ... गज़ल का हर शेर काबिले तारीफ़ है ....

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